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"रख के मेज़ों पे जो भारत का अलम बैठे हैं / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'" के अवतरणों में अंतर

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रख के मेज़ों पे जो भारत का अलम बैठे हैं  
 
रख के मेज़ों पे जो भारत का अलम बैठे हैं  
जाहिरन खा के वो ओहदे की कसम बैठे हैं
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जाहिरन खा के वो ओहदे की क़सम बैठे हैं
  
 
बिन बुलाए ही चली आती हैं जो शाम ढले  
 
बिन बुलाए ही चली आती हैं जो शाम ढले  
बस उसी याद में हम दीदा-ए-नम बैठे हैं  
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दीदानम सिर्फ़ उन्हीं यादों में हम बैठे हैं  
  
 
खुश्क होटों पे जबां फेर के कब प्यास बुझी  
 
खुश्क होटों पे जबां फेर के कब प्यास बुझी  
 
अश्क पीते हैं यहाँ खा के जो ग़म बैठे हैं  
 
अश्क पीते हैं यहाँ खा के जो ग़म बैठे हैं  
  
सोचकर, राह में ठहरा नहीं इक पल के लिए
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बस यही सोच के हम राह में ठहरे ही नहीं
मंज़िले लुत्फ़ उठाते हैं जो कम बैठे हैं  
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लुत्फ़ मंज़िल का उठाते हैं जो कम बैठे हैं  
  
चारसू आग है नफरत की न जाने फिर भी
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चारसू आग है नफ़रत की न जाने फिर क्यों 
"हाथ पर हाथ धरे अहले कलम बैठे हैं"
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"हाथ पर हाथ धरे अहले क़लम बैठे हैं"
  
 
आज की रात मेरे दिल पे गिरेगी बिजली
 
आज की रात मेरे दिल पे गिरेगी बिजली
सोलह श्रिंगार किए मेरे सनम बैठे हैं  
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सोलह सिंगार किए मेरे सनम बैठे हैं  
  
 
बुझ रहे हुस्न के हुक्के को तेरे अब भी 'रक़ीब'  
 
बुझ रहे हुस्न के हुक्के को तेरे अब भी 'रक़ीब'  
गुड़गुड़ाने के लिए भर के चिलम बैठे हैं  
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गुड़गुड़ाने के लिए भर के चिलम बैठे हैं
 
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02:56, 7 अगस्त 2016 के समय का अवतरण

रख के मेज़ों पे जो भारत का अलम बैठे हैं
जाहिरन खा के वो ओहदे की क़सम बैठे हैं

बिन बुलाए ही चली आती हैं जो शाम ढले
दीदानम सिर्फ़ उन्हीं यादों में हम बैठे हैं

खुश्क होटों पे जबां फेर के कब प्यास बुझी
अश्क पीते हैं यहाँ खा के जो ग़म बैठे हैं

बस यही सोच के हम राह में ठहरे ही नहीं
लुत्फ़ मंज़िल का उठाते हैं जो कम बैठे हैं

चारसू आग है नफ़रत की न जाने फिर क्यों
"हाथ पर हाथ धरे अहले क़लम बैठे हैं"

आज की रात मेरे दिल पे गिरेगी बिजली
सोलह सिंगार किए मेरे सनम बैठे हैं

बुझ रहे हुस्न के हुक्के को तेरे अब भी 'रक़ीब'
गुड़गुड़ाने के लिए भर के चिलम बैठे हैं