"हल्दीघाटी / सप्तम सर्ग / श्यामनारायण पाण्डेय" के अवतरणों में अंतर
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+ | '''सप्तम सर्ग''' | ||
− | + | अभिमानी मान–अवज्ञा से¸ | |
+ | थर–थर होने संसार लगा। | ||
+ | पर्वत की उन्नत चोटी पर¸ | ||
+ | राणा का भी दरबार लगा॥1॥ | ||
− | + | अम्बर पर एक वितान तना¸ | |
+ | बलिहार अछूती आनों पर। | ||
+ | मखमली बिछौने बिछे अमल¸ | ||
+ | चिकनी–चिकनी चट्टानों पर॥2॥ | ||
− | + | शुचि सजी शिला पर राणा भी | |
− | + | बैठा अहि सा फुंकार लिये। | |
− | + | फर–फर झण्डा था फहर रहा | |
− | + | भावी रण का हुंकार लिये॥3॥ | |
− | + | ||
− | + | भाला–बरछी–तलवार लिये | |
− | + | आये खरधार कटार लिये। | |
− | + | धीरे–धीरे झुक–झुक बैठे | |
− | शुचि सजी शिला पर राणा भी | + | सरदार सभी हथियार लिये॥4॥ |
− | बैठा अहि सा फुंकार लिये। | + | |
− | फर–फर झण्डा था फहर रहा | + | तरकस में कस–कस तीर भरे |
− | भावी रण का हुंकार | + | कन्धों पर कठिन कमान लिये। |
− | भाला–बरछी–तलवार लिये | + | सरदार भील भी बैठ गये |
− | आये खरधार कटार लिये। | + | झुक–झुक रण के अरमान लिये॥5॥ |
− | धीरे–धीरे झुक–झुक बैठे | + | |
− | सरदार सभी हथियार | + | जब एक–एक जन को समझा |
− | तरकस में कस–कस तीर भरे | + | जननी–पद पर मिटने वाला। |
− | कन्धों पर कठिन कमान लिये। | + | गम्भीर भाव से बोल उठा |
− | सरदार भील भी बैठ गये | + | वह वीर उठा अपना भाला॥6॥ |
− | झुक–झुक रण के अरमान | + | |
− | जब एक–एक जन को समझा | + | तरू–तरू के मृदु संगीत रूके |
− | जननी–पद पर मिटने वाला। | + | मारूत ने गति को मंद किया। |
− | गम्भीर भाव से बोल उठा | + | सो गये सभी सोने वाले |
− | वह वीर उठा अपना | + | खग–गण ने कलरव बन्द किया॥7॥ |
− | तरू–तरू के मृदु संगीत रूके | + | |
− | मारूत ने गति को मंद किया। | + | राणा की आज मदद करने |
− | सो गये सभी सोने वाले | + | चढ़ चला इन्दु नभ–जीने पर¸ |
− | खग–गण ने कलरव बन्द | + | झिलमिल तारक–सेना भी आ |
− | राणा की आज मदद करने | + | डट गई गगन के सीने पर॥8॥ |
− | चढ़ चला इन्दु नभ–जीने पर¸ | + | |
− | झिलमिल तारक–सेना भी आ | + | गिरि पर थी बिछी रजत चादर¸ |
− | डट गई गगन के सीने | + | गह्वर के भीतर तम–विलास। |
− | गिरि पर थी बिछी रजत चादर¸ | + | कुछ–कुछ करता था तिमिर दूर¸ |
− | गह्वर के भीतर तम–विलास। | + | जुग–जुग जुगनू का लघु प्रकाश॥9॥ |
− | कुछ–कुछ करता था तिमिर दूर¸ | + | |
− | जुग–जुग जुगनू का लघु | + | गिरि अरावली के तरू के थे |
− | गिरि अरावली के तरू के थे | + | पत्ते–पत्ते निष्कम्प अचल। |
− | पत्ते–पत्ते निष्कम्प अचल। | + | वन–वेलि–लता–लतिकाएं भी |
− | वन–वेलि–लता–लतिकाएं भी | + | सहसा कुछ सुनने को निश्चल॥10॥ |
− | सहसा कुछ सुनने को | + | |
− | था मौन गगन¸ नीरव रजनी¸ | + | था मौन गगन¸ नीरव रजनी¸ |
− | नीरव सरिता¸ नीरव तरंग। | + | नीरव सरिता¸ नीरव तरंग। |
− | केवल राणा का सदुपदेश¸ | + | केवल राणा का सदुपदेश¸ |
− | करता निशीथिनी–नींद | + | करता निशीथिनी–नींद भंग॥11॥ |
− | वह बोल रहा था गरज–गरज¸ | + | |
− | रह–रह कर में असि चमक रही। | + | वह बोल रहा था गरज–गरज¸ |
− | रव–वलित बरसते बादल में¸ | + | रह–रह कर में असि चमक रही। |
− | मानों बिजली थी दमक | + | रव–वलित बरसते बादल में¸ |
− | + | मानों बिजली थी दमक रही॥12॥ | |
− | मां का गौरव बढ़ गया आज। | + | |
− | दबते न किसी से राजपूत | + | "सरदारो¸ मान–अवज्ञा से |
− | अब समझेगा | + | मां का गौरव बढ़ गया आज। |
− | वह मान महा अभिमानी है | + | दबते न किसी से राजपूत |
− | बदला लेगा ले बल अपार। | + | अब समझेगा बैरी–समाज।"॥13॥ |
− | कटि कस लो अब मेरे वीरो¸ | + | |
− | मेरी भी उठती है | + | वह मान महा अभिमानी है |
− | भूलो इन महलों के विलास | + | बदला लेगा ले बल अपार। |
− | गिरि–गुहा बना लो निज–निवास। | + | कटि कस लो अब मेरे वीरो¸ |
− | अवसर न हाथ से जाने दो | + | मेरी भी उठती है कटार॥14॥ |
− | रण–चण्डी करती | + | |
− | लोहा लेने को तुला मान | + | भूलो इन महलों के विलास |
− | तैयार रहो अब साभिमान। | + | गिरि–गुहा बना लो निज–निवास। |
− | वीरो¸ बतला दो उसे अभी | + | अवसर न हाथ से जाने दो |
− | क्षत्रियपन की है बची | + | रण–चण्डी करती अट्टहास॥15॥ |
− | साहस दिखलाकर दीक्षा दो | + | |
− | अरि को लड़ने की शिक्षा दो। | + | लोहा लेने को तुला मान |
− | जननी को जीवन–भिक्षा दो | + | तैयार रहो अब साभिमान। |
− | ले लो असि वीर–परिक्षा | + | वीरो¸ बतला दो उसे अभी |
− | रख लो अपनी मुख–लाली को | + | क्षत्रियपन की है बची आन॥16॥ |
− | मेवाड़–देश–हरियाली को। | + | |
− | दे दो नर–मुण्ड कपाली को | + | साहस दिखलाकर दीक्षा दो |
− | शिर काट–काटकर काली | + | अरि को लड़ने की शिक्षा दो। |
− | विश्वास मुझे निज वाणी का | + | जननी को जीवन–भिक्षा दो |
− | है राजपूत–कुल–प्राणी का। | + | ले लो असि वीर–परिक्षा दो॥17॥ |
− | वह हट सकता है वीर नहीं | + | |
− | यदि दूध पिया क्षत्राणी | + | रख लो अपनी मुख–लाली को |
− | नश्वर तनको डट जाने दो | + | मेवाड़–देश–हरियाली को। |
− | अवयव–अवयव छट जाने दो। | + | दे दो नर–मुण्ड कपाली को |
− | परवाह नहीं¸ कटते हों तो | + | शिर काट–काटकर काली को॥18॥ |
− | अपने को भी कट जाने | + | |
− | अब उड़ जाओ तुम | + | विश्वास मुझे निज वाणी का |
− | तुम एक रहो अब लाखों में। | + | है राजपूत–कुल–प्राणी का। |
− | वीरो¸ हलचल सी मचा–मचा | + | वह हट सकता है वीर नहीं |
− | तलवार घुसा दो | + | यदि दूध पिया क्षत्राणी का॥19॥ |
− | यदि सके शत्रु को मार नहीं | + | |
− | तुम क्षत्रिय वीर–कुमार नहीं। | + | नश्वर तनको डट जाने दो |
− | मेवाड़–सिंह मरदानों का | + | अवयव–अवयव छट जाने दो। |
− | कुछ कर सकती तलवार | + | परवाह नहीं¸ कटते हों तो |
− | मेवाड़–देश¸ मेवाड़–देश¸ | + | अपने को भी कट जाने दो॥20॥ |
− | समझो यह है मेवाड़–देश। | + | |
− | जब तक दुख में मेवाड़–देश। | + | अब उड़ जाओ तुम पाँखों में |
− | वीरो¸ तब तक के लिए | + | तुम एक रहो अब लाखों में। |
− | सन्देश यही¸ उपदेश यही | + | वीरो¸ हलचल सी मचा–मचा |
− | कहता है अपना देश यही। | + | तलवार घुसा दो आँखों में॥21॥ |
− | वीरो दिखला दो आत्म–त्याग | + | |
− | राणा का है आदेश | + | यदि सके शत्रु को मार नहीं |
− | अब से मुझको भी हास शपथ¸ | + | तुम क्षत्रिय वीर–कुमार नहीं। |
− | रमणी का वह मधुमास शपथ। | + | मेवाड़–सिंह मरदानों का |
− | रति–केलि शपथ¸ भुजपाश शपथ¸ | + | कुछ कर सकती तलवार नहीं॥22॥ |
− | महलों के भोग–विलास | + | |
− | सोने चांदी के पात्र शपथ¸ | + | मेवाड़–देश¸ मेवाड़–देश¸ |
− | हीरा–मणियों के हार शपथ। | + | समझो यह है मेवाड़–देश। |
− | माणिक–मोति से कलित–ललित | + | जब तक दुख में मेवाड़–देश। |
− | अब से तन के श्रृंगार | + | वीरो¸ तब तक के लिए क्लेश॥23॥ |
− | गायक के मधुमय गान शपथ | + | |
− | कवि की कविता की तान शपथ। | + | सन्देश यही¸ उपदेश यही |
− | रस–रंग शपथ¸ मधुपान शपथ | + | कहता है अपना देश यही। |
− | अब से मुख पर मुसकान | + | वीरो दिखला दो आत्म–त्याग |
− | मोती–झालर से सजी हुई | + | राणा का है आदेश यही॥24॥ |
− | वह सुकुमारी सी सेज शपथ। | + | |
− | यह निरपराध जग थहर रहा | + | अब से मुझको भी हास शपथ¸ |
− | जिससे वह राजस–तेज | + | रमणी का वह मधुमास शपथ। |
− | पद पर जग–वैभव लोट रहा | + | रति–केलि शपथ¸ भुजपाश शपथ¸ |
− | वह राज–भोग सुख–साज शपथ। | + | महलों के भोग–विलास शपथ॥25॥ |
− | जगमग जगमग मणि–रत्न–जटित | + | |
− | अब से मुझको यह ताज | + | सोने चांदी के पात्र शपथ¸ |
− | जब तक स्वतन्त्र यह देश नहीं | + | हीरा–मणियों के हार शपथ। |
− | है कट सकता नख केश नहीं। | + | माणिक–मोति से कलित–ललित |
− | मरने कटने का क्लेश नहीं | + | अब से तन के श्रृंगार शपथ॥26॥ |
− | कम हो सकता आवेश | + | |
− | परवाह नहीं¸ परवाह नहीं | + | गायक के मधुमय गान शपथ |
− | मैं हूं फकीर अब शाह नहीं। | + | कवि की कविता की तान शपथ। |
− | मुझको दुनिया की चाह नहीं | + | रस–रंग शपथ¸ मधुपान शपथ |
− | सह सकता जन की आह | + | अब से मुख पर मुसकान शपथ॥27॥ |
− | अरि सागर¸ तो कुम्भज समझो | + | |
− | बैरी तरू¸ तो दिग्गज समझो। | + | मोती–झालर से सजी हुई |
− | + | वह सुकुमारी सी सेज शपथ। | |
− | मुझको तूफानी रज | + | यह निरपराध जग थहर रहा |
− | यह तो जननी की ममता है | + | जिससे वह राजस–तेज शपथ॥28॥ |
− | जननी भी सिर पर हाथ न दे। | + | |
− | मुझको इसकी परवाह नहीं | + | पद पर जग–वैभव लोट रहा |
− | चाहे कोई भी साथ न | + | वह राज–भोग सुख–साज शपथ। |
− | विष–बीज न मैं बोने दूंगा | + | जगमग जगमग मणि–रत्न–जटित |
− | अरि को न कभी सोने दूंगा। | + | अब से मुझको यह ताज शपथ॥29। |
− | पर दूध कलंकित माता का | + | जब तक स्वतन्त्र यह देश नहीं |
− | मैं कभी नहीं होने दूंगा।्" | + | है कट सकता नख केश नहीं। |
− | प्रण थिरक उठा पक्षी–स्वर में | + | मरने कटने का क्लेश नहीं |
− | सूरज–मयंक–तारक–कर में। | + | कम हो सकता आवेश नहीं॥30॥ |
− | प्रतिध्वनि ने उसको दुहराया | + | |
− | निज काय छिपाकर अम्बर | + | परवाह नहीं¸ परवाह नहीं |
− | पहले राणा के अन्तर में | + | मैं हूं फकीर अब शाह नहीं। |
− | गिरि अरावली के गह्वर में। | + | मुझको दुनिया की चाह नहीं |
− | फिर गूंज उठा वसुधा भर में | + | सह सकता जन की आह नहीं॥31॥ |
− | वैरी समाज के घर–घर | + | |
− | बिजली–सी गिरी जवानों में | + | अरि सागर¸ तो कुम्भज समझो |
− | हलचल–सी मची प्रधानों में। | + | बैरी तरू¸ तो दिग्गज समझो। |
− | वह भीष्म प्रतिज्ञा घहर पड़ी | + | आँखों में जो पट जाती वह |
− | तत्क्षण अकबर के कानों | + | मुझको तूफानी रज समझो॥32॥ |
− | प्रण सुनते ही रण–मतवाले | + | |
− | सब उछल पड़े ले–ले भाले। | + | यह तो जननी की ममता है |
− | उन्नत मस्तक कर बोल उठे | + | जननी भी सिर पर हाथ न दे। |
− | + | मुझको इसकी परवाह नहीं | |
− | हम राजपूत¸ हम राजपूत¸ | + | चाहे कोई भी साथ न दे॥33॥ |
− | मेवाड़–सिंह¸ हम राजपूत। | + | |
− | तेरी पावन आज्ञा सिर पर¸ | + | विष–बीज न मैं बोने दूंगा |
− | क्या कर सकते | + | अरि को न कभी सोने दूंगा। |
− | लेना न चाहता अब विराम | + | पर दूध कलंकित माता का |
− | देता रण हमको स्वर्ग–धाम। | + | मैं कभी नहीं होने दूंगा।्"॥34॥ |
− | छिड़ जाने दे अब महायुद्ध | + | |
− | करते तुझको शत–शत | + | प्रण थिरक उठा पक्षी–स्वर में |
− | अब देर न कर सज जाने दे | + | सूरज–मयंक–तारक–कर में। |
− | रण–भेरी भी बज जाने दे। | + | प्रतिध्वनि ने उसको दुहराया |
− | अरि–मस्तक पर चढ़ जाने दे | + | निज काय छिपाकर अम्बर में॥35॥ |
− | हमको आगे बढ़ जाने | + | |
− | लड़कर अरि–दल को दर दें हम¸ | + | पहले राणा के अन्तर में |
− | दे दे आज्ञा ऋण भर दें हम¸ | + | गिरि अरावली के गह्वर में। |
− | अब महायज्ञ में आहुति बन | + | फिर गूंज उठा वसुधा भर में |
− | अपने को स्वाहा कर दें | + | वैरी समाज के घर–घर में॥36॥ |
− | मुरदे अरि तो पहले से थे | + | |
− | छिप गये कब्र में जिन्दे भी¸ | + | बिजली–सी गिरी जवानों में |
− | 'अब महायज्ञ में आहुति बन्'¸ | + | हलचल–सी मची प्रधानों में। |
− | रटने लग गये परिन्दे | + | वह भीष्म प्रतिज्ञा घहर पड़ी |
− | पौ फटी¸ गगन दीपावलियां | + | तत्क्षण अकबर के कानों में॥37॥ |
− | बुझ गई मलय के झोंकों से। | + | |
− | निशि पश्चिम विधु के साथ चली | + | प्रण सुनते ही रण–मतवाले |
− | डरकर भालों की नोकों | + | सब उछल पड़े ले–ले भाले। |
− | दिनकर सिर काट दनुज–दल का | + | उन्नत मस्तक कर बोल उठे |
− | खूनी तलवार लिये निकला। | + | "अरि पड़े न हम सबके पाले॥38॥ |
− | कहता इस तरह कटक काटो | + | |
− | कर में अंगार लिये | + | हम राजपूत¸ हम राजपूत¸ |
− | रंग गया रक्त से प्राची–पट | + | मेवाड़–सिंह¸ हम राजपूत। |
− | शोणित का सागर लहर उठा। | + | तेरी पावन आज्ञा सिर पर¸ |
− | पीने के लिये मुगल–शोणित | + | क्या कर सकते यमराज–दूत॥39॥ |
− | भाला राणा का हहर | + | |
+ | लेना न चाहता अब विराम | ||
+ | देता रण हमको स्वर्ग–धाम। | ||
+ | छिड़ जाने दे अब महायुद्ध | ||
+ | करते तुझको शत–शत प्रणाम॥40॥ | ||
+ | |||
+ | अब देर न कर सज जाने दे | ||
+ | रण–भेरी भी बज जाने दे। | ||
+ | अरि–मस्तक पर चढ़ जाने दे | ||
+ | हमको आगे बढ़ जाने दे॥41॥ | ||
+ | |||
+ | लड़कर अरि–दल को दर दें हम¸ | ||
+ | दे दे आज्ञा ऋण भर दें हम¸ | ||
+ | अब महायज्ञ में आहुति बन | ||
+ | अपने को स्वाहा कर दें हम॥42॥ | ||
+ | |||
+ | मुरदे अरि तो पहले से थे | ||
+ | छिप गये कब्र में जिन्दे भी¸ | ||
+ | 'अब महायज्ञ में आहुति बन्'¸ | ||
+ | रटने लग गये परिन्दे भी॥43॥ | ||
+ | |||
+ | पौ फटी¸ गगन दीपावलियां | ||
+ | बुझ गई मलय के झोंकों से। | ||
+ | निशि पश्चिम विधु के साथ चली | ||
+ | डरकर भालों की नोकों से॥44॥ | ||
+ | |||
+ | दिनकर सिर काट दनुज–दल का | ||
+ | खूनी तलवार लिये निकला। | ||
+ | कहता इस तरह कटक काटो | ||
+ | कर में अंगार लिये निकला॥45॥ | ||
+ | |||
+ | रंग गया रक्त से प्राची–पट | ||
+ | शोणित का सागर लहर उठा। | ||
+ | पीने के लिये मुगल–शोणित | ||
+ | भाला राणा का हहर उठा॥46॥ | ||
+ | </poem> |
09:50, 12 अगस्त 2016 के समय का अवतरण
सप्तम सर्ग
अभिमानी मान–अवज्ञा से¸
थर–थर होने संसार लगा।
पर्वत की उन्नत चोटी पर¸
राणा का भी दरबार लगा॥1॥
अम्बर पर एक वितान तना¸
बलिहार अछूती आनों पर।
मखमली बिछौने बिछे अमल¸
चिकनी–चिकनी चट्टानों पर॥2॥
शुचि सजी शिला पर राणा भी
बैठा अहि सा फुंकार लिये।
फर–फर झण्डा था फहर रहा
भावी रण का हुंकार लिये॥3॥
भाला–बरछी–तलवार लिये
आये खरधार कटार लिये।
धीरे–धीरे झुक–झुक बैठे
सरदार सभी हथियार लिये॥4॥
तरकस में कस–कस तीर भरे
कन्धों पर कठिन कमान लिये।
सरदार भील भी बैठ गये
झुक–झुक रण के अरमान लिये॥5॥
जब एक–एक जन को समझा
जननी–पद पर मिटने वाला।
गम्भीर भाव से बोल उठा
वह वीर उठा अपना भाला॥6॥
तरू–तरू के मृदु संगीत रूके
मारूत ने गति को मंद किया।
सो गये सभी सोने वाले
खग–गण ने कलरव बन्द किया॥7॥
राणा की आज मदद करने
चढ़ चला इन्दु नभ–जीने पर¸
झिलमिल तारक–सेना भी आ
डट गई गगन के सीने पर॥8॥
गिरि पर थी बिछी रजत चादर¸
गह्वर के भीतर तम–विलास।
कुछ–कुछ करता था तिमिर दूर¸
जुग–जुग जुगनू का लघु प्रकाश॥9॥
गिरि अरावली के तरू के थे
पत्ते–पत्ते निष्कम्प अचल।
वन–वेलि–लता–लतिकाएं भी
सहसा कुछ सुनने को निश्चल॥10॥
था मौन गगन¸ नीरव रजनी¸
नीरव सरिता¸ नीरव तरंग।
केवल राणा का सदुपदेश¸
करता निशीथिनी–नींद भंग॥11॥
वह बोल रहा था गरज–गरज¸
रह–रह कर में असि चमक रही।
रव–वलित बरसते बादल में¸
मानों बिजली थी दमक रही॥12॥
"सरदारो¸ मान–अवज्ञा से
मां का गौरव बढ़ गया आज।
दबते न किसी से राजपूत
अब समझेगा बैरी–समाज।"॥13॥
वह मान महा अभिमानी है
बदला लेगा ले बल अपार।
कटि कस लो अब मेरे वीरो¸
मेरी भी उठती है कटार॥14॥
भूलो इन महलों के विलास
गिरि–गुहा बना लो निज–निवास।
अवसर न हाथ से जाने दो
रण–चण्डी करती अट्टहास॥15॥
लोहा लेने को तुला मान
तैयार रहो अब साभिमान।
वीरो¸ बतला दो उसे अभी
क्षत्रियपन की है बची आन॥16॥
साहस दिखलाकर दीक्षा दो
अरि को लड़ने की शिक्षा दो।
जननी को जीवन–भिक्षा दो
ले लो असि वीर–परिक्षा दो॥17॥
रख लो अपनी मुख–लाली को
मेवाड़–देश–हरियाली को।
दे दो नर–मुण्ड कपाली को
शिर काट–काटकर काली को॥18॥
विश्वास मुझे निज वाणी का
है राजपूत–कुल–प्राणी का।
वह हट सकता है वीर नहीं
यदि दूध पिया क्षत्राणी का॥19॥
नश्वर तनको डट जाने दो
अवयव–अवयव छट जाने दो।
परवाह नहीं¸ कटते हों तो
अपने को भी कट जाने दो॥20॥
अब उड़ जाओ तुम पाँखों में
तुम एक रहो अब लाखों में।
वीरो¸ हलचल सी मचा–मचा
तलवार घुसा दो आँखों में॥21॥
यदि सके शत्रु को मार नहीं
तुम क्षत्रिय वीर–कुमार नहीं।
मेवाड़–सिंह मरदानों का
कुछ कर सकती तलवार नहीं॥22॥
मेवाड़–देश¸ मेवाड़–देश¸
समझो यह है मेवाड़–देश।
जब तक दुख में मेवाड़–देश।
वीरो¸ तब तक के लिए क्लेश॥23॥
सन्देश यही¸ उपदेश यही
कहता है अपना देश यही।
वीरो दिखला दो आत्म–त्याग
राणा का है आदेश यही॥24॥
अब से मुझको भी हास शपथ¸
रमणी का वह मधुमास शपथ।
रति–केलि शपथ¸ भुजपाश शपथ¸
महलों के भोग–विलास शपथ॥25॥
सोने चांदी के पात्र शपथ¸
हीरा–मणियों के हार शपथ।
माणिक–मोति से कलित–ललित
अब से तन के श्रृंगार शपथ॥26॥
गायक के मधुमय गान शपथ
कवि की कविता की तान शपथ।
रस–रंग शपथ¸ मधुपान शपथ
अब से मुख पर मुसकान शपथ॥27॥
मोती–झालर से सजी हुई
वह सुकुमारी सी सेज शपथ।
यह निरपराध जग थहर रहा
जिससे वह राजस–तेज शपथ॥28॥
पद पर जग–वैभव लोट रहा
वह राज–भोग सुख–साज शपथ।
जगमग जगमग मणि–रत्न–जटित
अब से मुझको यह ताज शपथ॥29।
जब तक स्वतन्त्र यह देश नहीं
है कट सकता नख केश नहीं।
मरने कटने का क्लेश नहीं
कम हो सकता आवेश नहीं॥30॥
परवाह नहीं¸ परवाह नहीं
मैं हूं फकीर अब शाह नहीं।
मुझको दुनिया की चाह नहीं
सह सकता जन की आह नहीं॥31॥
अरि सागर¸ तो कुम्भज समझो
बैरी तरू¸ तो दिग्गज समझो।
आँखों में जो पट जाती वह
मुझको तूफानी रज समझो॥32॥
यह तो जननी की ममता है
जननी भी सिर पर हाथ न दे।
मुझको इसकी परवाह नहीं
चाहे कोई भी साथ न दे॥33॥
विष–बीज न मैं बोने दूंगा
अरि को न कभी सोने दूंगा।
पर दूध कलंकित माता का
मैं कभी नहीं होने दूंगा।्"॥34॥
प्रण थिरक उठा पक्षी–स्वर में
सूरज–मयंक–तारक–कर में।
प्रतिध्वनि ने उसको दुहराया
निज काय छिपाकर अम्बर में॥35॥
पहले राणा के अन्तर में
गिरि अरावली के गह्वर में।
फिर गूंज उठा वसुधा भर में
वैरी समाज के घर–घर में॥36॥
बिजली–सी गिरी जवानों में
हलचल–सी मची प्रधानों में।
वह भीष्म प्रतिज्ञा घहर पड़ी
तत्क्षण अकबर के कानों में॥37॥
प्रण सुनते ही रण–मतवाले
सब उछल पड़े ले–ले भाले।
उन्नत मस्तक कर बोल उठे
"अरि पड़े न हम सबके पाले॥38॥
हम राजपूत¸ हम राजपूत¸
मेवाड़–सिंह¸ हम राजपूत।
तेरी पावन आज्ञा सिर पर¸
क्या कर सकते यमराज–दूत॥39॥
लेना न चाहता अब विराम
देता रण हमको स्वर्ग–धाम।
छिड़ जाने दे अब महायुद्ध
करते तुझको शत–शत प्रणाम॥40॥
अब देर न कर सज जाने दे
रण–भेरी भी बज जाने दे।
अरि–मस्तक पर चढ़ जाने दे
हमको आगे बढ़ जाने दे॥41॥
लड़कर अरि–दल को दर दें हम¸
दे दे आज्ञा ऋण भर दें हम¸
अब महायज्ञ में आहुति बन
अपने को स्वाहा कर दें हम॥42॥
मुरदे अरि तो पहले से थे
छिप गये कब्र में जिन्दे भी¸
'अब महायज्ञ में आहुति बन्'¸
रटने लग गये परिन्दे भी॥43॥
पौ फटी¸ गगन दीपावलियां
बुझ गई मलय के झोंकों से।
निशि पश्चिम विधु के साथ चली
डरकर भालों की नोकों से॥44॥
दिनकर सिर काट दनुज–दल का
खूनी तलवार लिये निकला।
कहता इस तरह कटक काटो
कर में अंगार लिये निकला॥45॥
रंग गया रक्त से प्राची–पट
शोणित का सागर लहर उठा।
पीने के लिये मुगल–शोणित
भाला राणा का हहर उठा॥46॥