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"जन्मभूमि प्रेम / प्रेमघन" के अवतरणों में अंतर

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बसन, चहत मन वा सूनो गृह निरखन सादर॥५७॥
 
बसन, चहत मन वा सूनो गृह निरखन सादर॥५७॥
  
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रहे पुराने स्वजन इष्ट अरु मित्र न अब उत।
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पै वा थल दरसन हूँ मन मानत प्रमोद युत॥५८॥
  
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तदपि न वह तालुका रह्यो अपने अधिकारन।
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तऊ मचलि मन समुझत तिहि निज ही किहि कारन॥५९॥
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समाधान या शंका को पर नेक विचारत।
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सहजै मैं ह्वैं जात जगत गति ओर निहारत॥६०॥
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जन्म भूमि सों नेह और ममता जग जीवन।
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दियो प्रकृति जिहि कबहुँ न कोउ करि सकत उलंघन॥६१॥
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पसु, पच्छिन हूँ मैं यह नियम लखात सदा जब।
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मानव मन तब ताहि कौन विधि भूलि सकत कब॥६२॥
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वह मनुष्य कहिबे के योगन कबहुँ नीच नर।
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जन्म भूमि निज नेह नाहिं जाके उर अन्तर॥६३॥
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जन्म भूमि हित के हित चिन्ता जा हिय नाहीं।
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तिहि जानौ जड़ जीव, प्रकट मानव, मन माहीं॥६४॥
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जन्मभूमि दुर्दशा निरखि जाको हिय कातर।
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होय न अरु दुख मोचन मैं ताके निसि वासर॥६५॥
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रहत न तत्पर जो, ताको मुख देखेहुँ पातक।
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नर पिशाच सों जननी जन्मभूमि को घातक॥६६॥
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यदपि बस्यो संसार सुखद थल विविध लखाहीं।
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जन्म भूमि की पै छबि मन तें बिसरत नाहीं॥६७॥
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पाय यदपि परिवर्तन बहु बनि गयो और अब।
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तदपि अजब उभरत मन में सुधि वाकी जब जब॥६८॥
 
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22:08, 18 अगस्त 2016 के समय का अवतरण

या विधि सुख सुविधा समान सम्पन्न होय मन।
तऊ चाह सों चहत ताहि धौं क्यों अवलोकन॥५४॥

जन्म भूमि वह यदपि, तऊ सम्बन्ध न कछु अब।
अपनो वा सो रह्यो, टूटि सो गयो कबै सब॥५५॥

और औरही ठौर भयौ अब तो गृह अपनो।
तऊ लखत मन किह कारन वाही को सपनो॥५६॥

धवल धाम अभिराम, रम्य थल सकल सुखाकर।
बसन, चहत मन वा सूनो गृह निरखन सादर॥५७॥

रहे पुराने स्वजन इष्ट अरु मित्र न अब उत।
पै वा थल दरसन हूँ मन मानत प्रमोद युत॥५८॥

तदपि न वह तालुका रह्यो अपने अधिकारन।
तऊ मचलि मन समुझत तिहि निज ही किहि कारन॥५९॥

समाधान या शंका को पर नेक विचारत।
सहजै मैं ह्वैं जात जगत गति ओर निहारत॥६०॥

जन्म भूमि सों नेह और ममता जग जीवन।
दियो प्रकृति जिहि कबहुँ न कोउ करि सकत उलंघन॥६१॥

पसु, पच्छिन हूँ मैं यह नियम लखात सदा जब।
मानव मन तब ताहि कौन विधि भूलि सकत कब॥६२॥

वह मनुष्य कहिबे के योगन कबहुँ नीच नर।
जन्म भूमि निज नेह नाहिं जाके उर अन्तर॥६३॥

जन्म भूमि हित के हित चिन्ता जा हिय नाहीं।
तिहि जानौ जड़ जीव, प्रकट मानव, मन माहीं॥६४॥

जन्मभूमि दुर्दशा निरखि जाको हिय कातर।
होय न अरु दुख मोचन मैं ताके निसि वासर॥६५॥

रहत न तत्पर जो, ताको मुख देखेहुँ पातक।
नर पिशाच सों जननी जन्मभूमि को घातक॥६६॥

यदपि बस्यो संसार सुखद थल विविध लखाहीं।
जन्म भूमि की पै छबि मन तें बिसरत नाहीं॥६७॥

पाय यदपि परिवर्तन बहु बनि गयो और अब।
तदपि अजब उभरत मन में सुधि वाकी जब जब॥६८॥