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व्यजन करत जो तिनहिं बसन्त मन्द मारुत लै।
निज सहवासी तरु प्रसून सौरभ पराग दै॥९६॥
ग्रीषम आतप तपन, छाँह सन छाय बचावत।
खनधक जल कन लै समीर सुभ लूह बनावत॥९७॥
वर्षा मैं बनि सघन सदाघन घेरन की छवि।
राखत रुचिर बनाय देखि नहिं परन देत रवि॥९८॥
निसि मैं जापैं जुरि जमात जीगन की दमकत।
जनु कज्जल गिरि मैं चहुँधा चिनगारी चमकत॥९९॥
परि परिखा तट भूल सेन दादुर की भारी।
करत घोर अन्दोर दाँव हित मनहुँ जुवारी॥१००॥
झिल्लीगन को सारे रोर चातक चहुँ ओरन।
सुनि सखीन सँग सबै नवेली झूलन झूलत॥१०१॥
गावत झूलन सावन, कजरी, राग मलारहिं।
करहिं परस्पर चुहुल नवल चोंचले बघारहिं॥१०२॥
भौजाइन बैठाय, पेंग मारत देवर गन।
लाग डाँट दुहुँ ओरन सों बढ़ि अधिक वेग सन॥१०३॥
पौढ़त झूला, पाट उलटि कै सरकि परत जब।
गिरत सबै तर ऊपर चोट खाय, कोऊ तब॥१०४॥
सिसकत गारी देत कोउन कोऊ, अरु विहँसत।
कोउ, उपचार करत कछु कोउन कोऊ मनावत॥१०५॥
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