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"देह / भाग 2 / शरद कोकास" के अवतरणों में अंतर

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20:13, 4 सितम्बर 2016 के समय का अवतरण

अर्थ के भीतर छुपे अनेक अर्थों की तरह
अनगिनत अर्थ छुपे हैं देह के इस संसार में
यह वही आँखें है व्यथा के बयान से भर आने वाली
जो फिर जाती है यक ब यक स्वार्थ पूरा होते ही
जीवन भर ज़मीन पर जमने की कोशिश करते पाँव
ज़मीन पर ही नहीं पड़ते अपने अहंकार में
यही वे हाथ हैं उठ उठ कर दुआ करने वाले
जो अक्सर छूट जाते हैं किसी मज़लूम पर
खुद को काटकर देह को जिंदा रखने वाला पेट
अपने लिए शर्मनाक समझौते करने पर विवश कर देता है
ज़रा सी आहट के लिए खुले रहने वाले कान
उत्पीड़ितों की चीखों के लिए बंद हो जाते हैं
दुनिया की बेहतरी की चिंता करने वाला दिमाग़
उँचे आसमान पर पहुँच जाता है अपने ग़ुरुर में
अपनी पीठ में हरदम तनी रहने वाली रीढ़
झुक जाती है आततायियों की देहरी पर

सिर्फ इतना ही नहीं है देह में देह होने का अर्थ
अपने द्वंद्व में भी उपास्थित है हर अंग की स्वायत्तता
इसलिए कि देह इनसे अलग नहीं है अपनी सम्पूर्णता में
जैसे कि देह से अलग हाथ नहीं हैं देह
ना ही देह से जुदा पावों को हक़ है देह कहलाने का
अपनी सामुदायिक व्यवस्था में ही है देह की उपयोगिता
जहाँ पेट के लिए रोटी कमाते हैं हाथ
कान सुनते हैं कहीं कराह पाँव दौड़ जाते हैं
ग़ैरों के दुख में किनारे तोड़कर आँखों से बहते हैं आँसू
बेज़ुबाँ की ज़ुबाँ बनकर होंठों से बोल फूट जाते हैं
एक देह की ज़िम्मेदारी में शामिल होती हैं
अन्य देहों की ज़रुरतें
इस देह की उम्मीदों में उस देह के स्वप्न झिलमिलाते हैं
यह देह फूले फूले इसलिए वह देह मुरझाती है
अपनी और अपने आश्रितों की देह के संवर्धन के लिए
जिन्स की तरह एक देह बाज़ार में बिक जाती है
करुणा जब अपनी सीमा तोड़कर कर्तव्य में प्रवेश करती है
कहीं कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लगता देह की सार्थकता पर

पेड़ों सी झूमती है यह अपने होने की खुशी में
पहाड़ों पर चढ़ जाती अपनी क्षमता से परे
हवाओं सी लरजती नदियों सी उफनती
गरजती बादलों सी झरनों सी मचलती
आग सी दहकती महकती फूल सी मदिरा से बहकती
सुनती किसी कवि की कविता
और अपने भीतर जीवन का होना महसूसती
लजाती नहीं मधुर एकांत में कि सुख ना पहचाने
और लज्जाहीन भी नहीं इतनी
कि दुख के पहलू में रहकर सुख महसूस करे
इतनी भावुक भी नहीं
कि दुख से द्रवित होकर व्यर्थ पिघल जाए
भूल जाए अपना देह धर्म अपनी विलगता के बावज़ूद
अपनी जैविक इच्छाओं की पृष्टभूमि में
मूल रागों के साथ अर्जित सामाजिक सरोकार लिए
मनुष्य की देह है यह
जिसकी हज़ारों हज़ार कोशिकाओं में दर्ज है एक अकथ गाथा
जो हर घटना के अतीत में है उसका प्रभाव लिए

वो ठंड से लरजती देह थी जिसे पहली दफा
सूर्य की रश्मियों ने दुलार की उष्मा दी होगी
और देह ने सूर्य के प्रति ज्ञापित की होगी कृतज्ञता
सूर्य की तपिश से झुलसती देह को फिर
राहत पहुँचाई होगी शीतल हवाओं ने
देह ने हवाओं का शुक्रिया अदा किया होगा
अपनी अगन में बारिश के संग नाची होगी फिर देह
बूँदों के संग उछली होगी उल्लास के आंगन में
और बरखा से कहा होगा मैं तुम्हारी आभारी हूँ
पुलकित हुई होगी वह किसी कोमल स्पर्श से
रोम रोम खिला होगा जब अधरों पर अंकित हुआ होगा चुम्बन
देह के भीतर देह के प्रवेश करते ही फिर
बज उठे होंगे तंत्रिकाओं में बादलों के असंख्य नगाड़े
देहबोध से मुक्त होकर फिर
देह ने देह से कहा होगा धन्यवाद

यूँ सृजन के सुख से अभिभूत होती रही यह
खेत की तरह बीजों के लिए बिछती रही
उड़ती रही धुआँ बनकर कारखानों की चिमनियों से
धूप में जलती रही पलती रही दिमाग़ों में
जननी का दुलार जनक का प्यार लिए
मित्रों की शुभकामनाओं बुज़ुर्गों के आशीष की रोशनी में
अनवरत जारी रही उसकी यात्रा

जिसके हर पड़ाव पर अलग अलग आख्यानों में
इस देह की ही गाथा दर्ज है
नाना रुपों में घटनाओं में इतिहास के पन्नों पर
इसलिए कि जो कुछ भी घट चुका है दुनिया में
वह इस देह पर ही घटा है
सृजन से विनाश तक अनंत कथाएँ उत्कीर्ण हैं इसकी त्वचा पर
पत्थर की किसी आदिम कब्र के नीचे दबी है यह
उसकी पसलियों में भाले के निशान हैं
करोड़ों चीखें अटकी हैं इसके कंठ में
अपने असमय विनाश के विरोध में बाहर आने को व्यग्र
बेबीलोन के किले से कुरुश का सर पुकारता है
मुक्त करो मुझे रक्त से भरे चमड़े के इस थैले से
हवांगहो के तट पर खुदी कब्र से एक दास की आवाज़ आती है
ट्राय के जले खण्डहरों से बाहर आती है इसकी दुर्गंध
आल्प्स पर्वत की ढलानों से लुढ़कती है इसकी कराह
पानीपत हो करबला हो सिकंदरिया या समरकंद
दुनिया के तमाम युध्दक्षेत्रों में जब रात होती है
अंधकार की पृष्ठभूमि में दिखाई देता है इसका अक्स
जिसके हाथ पांव और सर कटे हुए होते हैं

जिस रास्ते से गुज़रती है अंतहीन साम्राज्य की भूख
उस रास्ते के पेड़ों पर लटकी हुई है यह
अपनी शहादत में राहगीरों की संवेदना समेटती हुई
विद्रोह की आवाज़ में झूल रही है फाँसी के फंदे पर
हिरोशिमा और नागासाकी के पूजनीय स्मारकों में
पीढ़ियों में विकिरण के अंदेशे से ग्रस्त
इसकी ही अकथ पीड़ा है
गैसचेम्बरों से निकलकर इसकी घुटन फैल रही है दुनिया में
उपनिवेशवादी गिध्दों की निगाह से बचती हुई
जालियाँवाला बाग के सूखे कुयें में मौज़ूद है यह

जाने कितनी तोपों के मुँह पर बंधी रस्सियों में
अभी चिपके हैं मांस के कुछ लोथडे
कितने हाथियों के पावों में इसका खून लगा है
जिसकी ताज़ी चमकती सतह पर
अन्याय का अक्स दिखाई देता है
वहीं तुर्कमान गेट पर पिचके हुए बर्तनों के बीच
धोखा छल फरेब और अधूरे वादों के ज़ख़्म लिए
एक देह पड़ी है बुलडोज़र से कुचली हुई
एक देह ज़हरीली हवाओं में सांस लेती
भागती हाँफती दम तोड़ चुकी है
यूनियन कार्बाईड के दरवाज़े पर

अपनी क्षत -विक्षत आँखों में आश्चर्य लिए
नरोड़ा पाटिया की नूरानी मस्जिद के सामने पड़ी है यह
इसकी बेबसी का सौंदर्य दिखाई देता है कश्मीर की वादियों में
मंदिर की घंटियों और अज़ानों में इसीका आर्तनाद सुनाई देता है

अब भी इस अग्निदग्धा की बू आती है
हवस के तंदूर पर सिंकी रोटियों में
जंगलों में पेड़ों पर लटक रही है यह
पड़ी है पटरियों के किनारे क्षत -विक्षत
फेंक दी गई है किसी चलती बस से नीचे
संवेदना का सर्वस्व लुट जाने की व्यथा लिए
किसी खूनी दरवाज़े के पास अपनी जड़ता में
कमोबेश निर्जीव सी पड़ी है एक सजीव देह
अपने पौरुष में अहंकार की बुलंदियाँ छूती एक देह
जिसे भोगकर कब की जा चुकी है

अपनी असीमित आकांक्षाओं में निर्बंध हो चुकी देह के लिए
कहीं कोई बाड़ नहीं नैतिकताओं की
चांद की धरती पर इसके पांवों के निशान हैं
मंगल की धूल अपने माथे पर लगाने को यह बेताब है
तमाम ग्रहों पर है इसकी साम्राज्यवादी नज़र
बेलगाम हवा सी विचरती है यह वायुमंडल में
अंतरिक्ष का कोना कोना इसकी निगाह में है
सूर्य से मुठभेड़ के लिए यह आतुर है
अपने सामर्थ्य के सर्वोच्च शिखर से गूंजता है इसका अट्टहास