"प्रिय चिरन्तन है / महादेवी वर्मा" के अवतरणों में अंतर
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प्रिय चिरंतन है सजनि, | प्रिय चिरंतन है सजनि, | ||
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क्षण-क्षण नवीन सुहासिनी मै! | क्षण-क्षण नवीन सुहासिनी मै! | ||
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श्वास में मुझको छिपाकर वह असीम विशाल चिर घन | श्वास में मुझको छिपाकर वह असीम विशाल चिर घन | ||
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शून्य में जब छा गया उसकी सजीली साध-सा बन, | शून्य में जब छा गया उसकी सजीली साध-सा बन, | ||
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छिप कहाँ उसमें सकी | छिप कहाँ उसमें सकी | ||
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बुझ-बुझ जली चल दामिनी मैं। | बुझ-बुझ जली चल दामिनी मैं। | ||
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छाँह को उसकी सजनि, नव आवरण अपना बनाकर | छाँह को उसकी सजनि, नव आवरण अपना बनाकर | ||
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धूलि में निज अश्रु बोने में पहर सूने बिताकर, | धूलि में निज अश्रु बोने में पहर सूने बिताकर, | ||
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प्रात में हँस छिप गई | प्रात में हँस छिप गई | ||
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ले छलकते दृग-यामिनी मै! | ले छलकते दृग-यामिनी मै! | ||
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मिलन-मन्दिर में उठा दूँ जो सुमुख से सजल गुण्ठन, | मिलन-मन्दिर में उठा दूँ जो सुमुख से सजल गुण्ठन, | ||
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मैं मिटूँ प्रिय में, मिटा ज्यों तप्त सिकता में सलिल कण, | मैं मिटूँ प्रिय में, मिटा ज्यों तप्त सिकता में सलिल कण, | ||
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सजनि! मधुर निजत्व दे | सजनि! मधुर निजत्व दे | ||
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कैसे मिलूँ अभिमानिनी मैं! | कैसे मिलूँ अभिमानिनी मैं! | ||
− | + | दीप-सी युग-युग जलूँ पर वह सुभग इतना बता दे | |
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− | दीप सी युग-युग जलूँ पर वह सुभग इतना बता दे | + | |
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फूँक से उसकी बुझूँ तब क्षार ही मेरा पता दे! | फूँक से उसकी बुझूँ तब क्षार ही मेरा पता दे! | ||
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वह रहे आराध्य चिन्मय | वह रहे आराध्य चिन्मय | ||
− | + | मृण्मयी अनुरागिनी मैं! | |
− | मृण्मयी अनुरागिनी मैं! | + | |
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सजल सीमित पुतलियाँ, पर चित्र अमिट असीम का वह | सजल सीमित पुतलियाँ, पर चित्र अमिट असीम का वह | ||
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चाह एक अनन्त बसती प्राण किन्तु असीम-सा वह! | चाह एक अनन्त बसती प्राण किन्तु असीम-सा वह! | ||
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रजकणों में खेलती किस | रजकणों में खेलती किस | ||
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विरज विधु की चाँदनी मैं? | विरज विधु की चाँदनी मैं? | ||
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07:10, 5 सितम्बर 2016 के समय का अवतरण
प्रिय चिरंतन है सजनि,
क्षण-क्षण नवीन सुहासिनी मै!
श्वास में मुझको छिपाकर वह असीम विशाल चिर घन
शून्य में जब छा गया उसकी सजीली साध-सा बन,
छिप कहाँ उसमें सकी
बुझ-बुझ जली चल दामिनी मैं।
छाँह को उसकी सजनि, नव आवरण अपना बनाकर
धूलि में निज अश्रु बोने में पहर सूने बिताकर,
प्रात में हँस छिप गई
ले छलकते दृग-यामिनी मै!
मिलन-मन्दिर में उठा दूँ जो सुमुख से सजल गुण्ठन,
मैं मिटूँ प्रिय में, मिटा ज्यों तप्त सिकता में सलिल कण,
सजनि! मधुर निजत्व दे
कैसे मिलूँ अभिमानिनी मैं!
दीप-सी युग-युग जलूँ पर वह सुभग इतना बता दे
फूँक से उसकी बुझूँ तब क्षार ही मेरा पता दे!
वह रहे आराध्य चिन्मय
मृण्मयी अनुरागिनी मैं!
सजल सीमित पुतलियाँ, पर चित्र अमिट असीम का वह
चाह एक अनन्त बसती प्राण किन्तु असीम-सा वह!
रजकणों में खेलती किस
विरज विधु की चाँदनी मैं?