"हवा जब किसी की कहानी कहे है / गौतम राजरिशी" के अवतरणों में अंतर
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− | + | बुरे तब भी नहीं लगते, | |
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+ | पूरी बिरादरी के वजन को | ||
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+ | दमक रही हो, | ||
+ | तुम्हारी पारखी नजरें | ||
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+ | तुम्हारे शब्दों को ही उधार लेकर | ||
+ | पूरी दिल्ली को ये विशेषण देना | ||
+ | फिर अनुचित तो नहीं...? | ||
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+ | कुछ मनोरमाओं, कुछ इरोम शर्मिलाओं संग | ||
+ | एक मुट्ठी भर नुमाइंदों द्वारा | ||
+ | की गयी नाइंसाफी का तोहमत | ||
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+ | ...तो क्या हुआ | ||
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+ | तुम्हें भान नहीं | ||
+ | मित्र मेरे, | ||
+ | कि | ||
+ | इन लाखों भाई-बंधु | ||
+ | इन हजारों संगी-साथी | ||
+ | की सजग ऊँगलियाँ | ||
+ | जमी रहती हैं राइफल के ट्रिगर पर | ||
+ | तो शब्द बने रहते हैं गुलाम तुम्हारे | ||
+ | तो बनी रहती है कनीज़ तुम्हारी कलम | ||
+ | तो हक़ बना रहता है तुम्हारा | ||
+ | खुद को बुद्धिजीवी कहलाने का | ||
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+ | सच कहता हूँ | ||
+ | जरा भी बुरे नहीं लगते तुम | ||
+ | हमसाये मेरे | ||
+ | कि | ||
+ | तुम्हारे गुलाम शब्दों का दोषारोपन | ||
+ | तुम्हारी कनीज़ कलम के लगाये इल्जाम | ||
+ | प्रेरक बनते हैं | ||
+ | मेरे कर्तव्य-पालन में | ||
+ | |||
+ | तुम्हीं कहो | ||
+ | कैसे नहीं अच्छे लगोगे | ||
+ | फिर तुम, | ||
+ | ऐ दोस्त मेरे... | ||
+ | |||
+ | (त्रैमासिक आलोचना, 2014) | ||
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06:04, 28 सितम्बर 2016 के समय का अवतरण
दोस्त मेरे !
अच्छे लगते हो
अपनी आवाज बुलंद करते हुये
मुल्क के हर दूसरे मुद्दे पर
जब-तब, अक्सर ही
कि
शब्द तुम्हारे गुलाम हैं
कि
कलम तुम्हारी है कनीज़
बहुत भाते हो तुम
ओ कामरेड मेरे !
कवायद करते हुये
सूरज को मिलते अतिरिक्त धूप के खिलाफ
बादल को हासिल अनावश्यक पानी के विरूद्ध
बुरे तब भी नहीं लगते,
यकीन जानो,
जब तौलते हो तुम
चंद गिने-चुनों की कारगुजारियों पर
पूरी बिरादरी के वजन को
और तब भी नहीं
इंगित करते हो अपनी ऊँगलियाँ जब
दमकती वर्दी की कलफ़ में लगे
कुछ अनचाहे धब्बों पर
बेशक
शेष वर्दी कितनी ही
दमक रही हो,
तुम्हारी पारखी नजरें
ढ़ूँढ़ ही निकालती हैं धब्बों को
पसंद आता है
ये पैनापन तुम्हारी
नजरों का
कि
प्रेरित होता हूँ मैं इनसे
इन्हीं की तर्ज पर
पूरे दिल्लीवालों को
बलात्कारी कहने के लिये
नहीं, मैं नहीं कहता,
आँकड़े कहते हैं
"मुल्क की राजधानी में होते हैं
सबसे अधिक बलात्कार"
तुम्हारे शब्दों को ही उधार लेकर
पूरी दिल्ली को ये विशेषण देना
फिर अनुचित तो नहीं...?
कुछ मनोरमाओं, कुछ इरोम शर्मिलाओं संग
एक मुट्ठी भर नुमाइंदों द्वारा
की गयी नाइंसाफी का तोहमत
तुम भी तो जड़ते हो
पूरे कुनबे पर
सफर में हुई चंद बदतमिजियों
की तोहमतें
तुम भी तो लगाते हो
तमाम तबके पर
...तो क्या हुआ
कि उन मुट्ठी भर नुमाइंदों के
लाखों अन्य भाई-बंधु
खड़े रहते हैं शून्य से नीचे
की कंपकपाती सर्दी में भी
मुस्तैद सतर्क चपल
चौबीसों घंटे
...तो क्या हुआ
कि उन चंद बदतमिजों के
हजारों अन्य संगी-साथी
तुम्हारे पसीने से ज्यादा
अपना खून बहाते हैं
हर रोज
तुम्हें भान नहीं
मित्र मेरे,
कि
इन लाखों भाई-बंधु
इन हजारों संगी-साथी
की सजग ऊँगलियाँ
जमी रहती हैं राइफल के ट्रिगर पर
तो शब्द बने रहते हैं गुलाम तुम्हारे
तो बनी रहती है कनीज़ तुम्हारी कलम
तो हक़ बना रहता है तुम्हारा
खुद को बुद्धिजीवी कहलाने का
सच कहता हूँ
जरा भी बुरे नहीं लगते तुम
हमसाये मेरे
कि
तुम्हारे गुलाम शब्दों का दोषारोपन
तुम्हारी कनीज़ कलम के लगाये इल्जाम
प्रेरक बनते हैं
मेरे कर्तव्य-पालन में
तुम्हीं कहो
कैसे नहीं अच्छे लगोगे
फिर तुम,
ऐ दोस्त मेरे...
(त्रैमासिक आलोचना, 2014)