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"फूलों ने अधर न खोले / हरि ठाकुर" के अवतरणों में अंतर

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शंख
मचाते रहे शोर पर
इन फूलों ने अधर न खोले।

होते रहे
समर्पित प्रति दिन
हँसते-हँसते
खिलकर, झरकर।
बसते रहे सुरभि ले कर वे
साँसों के पथ, ह्रदय उतर कर।।

कोई ऐसा
फूल नहीं जो
नयनों में कुछ रंग न घोले।

कर्कश ध्वनि
के सिवा शंख के
अंतर से
कुछ कभी न निकला
रंग, रूप, रस, गंध हीन वह
जीवन भर ही रहा खोखला।

आत्मप्रशंसा
लीन शंख ये
रहे जन्म से ही बड़-बोले।