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"अँधेरा जब मुक़द्दर बन के घर में बैठ जाता है / डी. एम. मिश्र" के अवतरणों में अंतर
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खिलौने का मुक़द्दर है यही तो क्या करे कोई | खिलौने का मुक़द्दर है यही तो क्या करे कोई | ||
नहीं खेलें तो सड़ जाये, जो खेलें टूट जाता है। | नहीं खेलें तो सड़ जाये, जो खेलें टूट जाता है। | ||
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ख़ुदा ने जो बनाया है ज़रूरी ही बनाया है | ख़ुदा ने जो बनाया है ज़रूरी ही बनाया है |
12:47, 2 जनवरी 2017 के समय का अवतरण
अँधेरा जब मुक़द्दर बन के घर में बैठ जाता है
मेरे कमरे का रोशनदान तब भी जगमगाता है।
किया जो फ़ैसला मुंसिफ़ ने वो बिल्कुल सही लेकिन
ख़ुदा का फ़ैसला हर फ़ैसले के बाद आता है।
अगर मर्ज़ी न हो उसकी तो कुछ हासिल नहीं होता
किनारे पर लगे कश्ती तो साहिल डूब जाता है।
खिलौने का मुक़द्दर है यही तो क्या करे कोई
नहीं खेलें तो सड़ जाये, जो खेलें टूट जाता है।
ख़ुदा ने जो बनाया है ज़रूरी ही बनाया है
कभी ज़र्रा, कभी पर्वत हमारे काम आता है।
यही विश्वास लेकर घर से अपने मैं निकल आया
अँधेरे जंगलों में रास्ता जुगनू दिखाता है।