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"बुझे न प्यास तो फिर सामने नदी क्यों है / डी. एम. मिश्र" के अवतरणों में अंतर

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बुझे न प्यास तो फिर सामने नदी क्यों है
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मिटे न धुंध तो फिर रोशनी हुई क्यों है।
  
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यही सवाल बार-बार मन में उठता है
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मरे हज़ार बार ज़िंदगी बची क्यों है।
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कहीं छलकते हैं सागर तो कहीं प्यास ही प्यास
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तेरे निज़ाम में इतनी बड़ी कमी क्यों है।
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तझे ग़ुरूर है हुस्नो जमाल पर अपने
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तुझे हमारी ज़रूरत मगर पड़ी क्यों है।
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अभी-अभी तो गये उड़ के इधर से बादल
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लगी है आग मगर आग ये लगी क्यों है।
 
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12:50, 2 जनवरी 2017 का अवतरण

बुझे न प्यास तो फिर सामने नदी क्यों है
मिटे न धुंध तो फिर रोशनी हुई क्यों है।

यही सवाल बार-बार मन में उठता है
मरे हज़ार बार ज़िंदगी बची क्यों है।

कहीं छलकते हैं सागर तो कहीं प्यास ही प्यास
तेरे निज़ाम में इतनी बड़ी कमी क्यों है।

तझे ग़ुरूर है हुस्नो जमाल पर अपने
तुझे हमारी ज़रूरत मगर पड़ी क्यों है।

अभी-अभी तो गये उड़ के इधर से बादल
लगी है आग मगर आग ये लगी क्यों है।