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"कोई बंधन हो छूट जाता है / डी. एम. मिश्र" के अवतरणों में अंतर

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जिसकी औलाद दग़ा देती है
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वो बुढ़ापे में टूट जाता है।
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देर लगती ज़रूर है लेकिन
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उस अदालत से कौन बच पाता
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इस अदालत से छूट जाता है।
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जिस में इन्सानियत नहीं होती
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उससे अल्लाह भी रूठ जाता है।
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वो कभी फिर से जुड़ नहीं पाता
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काँच का घर जो टूट जाता है।
 
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13:17, 2 जनवरी 2017 के समय का अवतरण

कोई बंधन हो छूट जाता है
आदमी विष भी घूट जाता है।

जिसकी औलाद दग़ा देती है
वो बुढ़ापे में टूट जाता है।

देर लगती ज़रूर है लेकिन
पाप का घट हो फूट जाता है।

उस अदालत से कौन बच पाता
इस अदालत से छूट जाता है।

जिस में इन्सानियत नहीं होती
उससे अल्लाह भी रूठ जाता है।

वो कभी फिर से जुड़ नहीं पाता
काँच का घर जो टूट जाता है।