भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"सभ्यता का आतंक / योगेंद्र कृष्णा" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=योगेंद्र कृष्णा |संग्रह=कविता के...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
12:33, 30 जनवरी 2017 के समय का अवतरण
विस्तर पर बिछे सिलवटहीन
सफेद चादर की तरह
सपाट तुम्हारे इस चेहरे में
मुझे अकसर
अपनी सभ्यता का आतंक
और बंजर दिखाई देता है
यह आतंक मुझे
अपने आंगन में उतरी
उस चिड़िया में भी दिखाई देता है
जो मेरे सामने आते ही
डर कर उड़ जाती है
बाग में उगे उस पौधे में भी
जिसकी पत्तियां
मेरे छूने भर से
सिकुड़ जाती हैं
दिन भर की परवाज से
अपने आंगन उतर आई
चहकती उस चिड़िया के साथ
मैं खेलना चाहता हूं
बेमौसम सिकुड़ रही पत्तियों को
प्यार से सहलाना चाहता हूं
तुम्हारे सिलवटहीन सपाट चेहरे पर
बच्चों-सी सहज मुस्कान चाहता हूं
अपने ही आतंक से
बंजर होती इस सभ्यता का
बस अवसान चाहता हूं