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अब तो मैं नहीं रहा हूँ प्रकाश का कवि,
और न ही हूँ अन्धकार का कवि;
अब तो हूँ मैं, वर्षा-होते में चमक उठती
सजल-चम्पई धूप का कवि!
अब मैं नहीं रहा हूँ मुसकान का कवि,
और न ही हूँ मैं अश्रु-उच्छ्वास का कवि;
अब तो हूँ मैं साश्रु-मुसकान का कवि!
अब मैं नहीं रहा हूँ प्रभात का कवि,
और न ही हूँ मैं बसन्ती रात का कवि;
अब तो हँू मैं-
तहों-जमे सिलहटी बादलों से छनते-
शिशिर के अवसाद-करुण सूर्यास्त का कवि!
1969