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"मिलन / कर्मानंद आर्य" के अवतरणों में अंतर

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लड़कियां जो सस्ता सामान बेचकर
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पैरों की धूल चढ़कर बैठ जाती है माथे पर
लोगों को लुभाती हैं
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उसे उतारता नहीं हूँ
लड़कियां जो जहाजी बेड़े पर चढ़ने से पहले
+
तुमसे प्यार है तो तुम्हारी धूल भी पसंद है मुझे
लड़कपन का शिकार हो जाती हैं
+
यानी प्यार में सुखी होने के लिए
उन्हीं को कहते हैं काठमांडू का दिल
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वह सब करता हूँ जो पसंद भी नहीं
पहाड़ तो एक बहाना है
+
पुरुष का अहंकार नहीं
उससे भी कई गुना शक्त है वहां की देह
+
यह प्यार है
उससे भी कहीं अधिक सुन्दर हैं
+
जिसमें बन जाना होता है छोटा
देहों के पठार
+
झुक जाना होता है जमीन तक
और अबकी बार जब भी जाना नेपाल
+
चलना होता है लंगड़ाकर
उसका बचपन जरुर देख आना
+
गिरकर, और गिरना होता है
होटल में बर्तन धोते किसी बच्चे से ज्यादा चमकदार हैं उनकी आँखें
+
यह प्यार ही है
नेपाल में आँखे देखना
+
झुकता हूँ, चलता हूँ, दौड़ता, हांफता हूँ
थाईलैंड नहीं
+
फिर गिर पड़ता हूँ
जो आवश्यकता से अधिक गहरी और बेचैन हैं
+
गिरकर होता हूँ सुखी
फिर दिल्ली के एक ऐसे इलाके में घूमने जाना
+
इसी क्रम में चढ़ती है धूल, थकती हैं साँसें
जिसे गौतम बुद्ध रोड कहते हैं
+
कोई पड़ाव नहीं आता
जो कई हजार लोगों को मुक्त करता है
+
प्यार के लिए
उनके तनाव और बेचैनी से
+
जाने कितने बरस, जाने कितनी सदियाँ
वहां ढूँढना वह लड़की जो सस्ता सामान बेचकर
+
बीत चुकी हैं
जहाज ले जाती है अपने गाँव
+
दौड़ रहा हूँ, भाग रहा हूँ
 +
मिलन की चाह है
 +
अभी तक आधा अधूरा है मिलन
 
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11:07, 30 मार्च 2017 के समय का अवतरण

पैरों की धूल चढ़कर बैठ जाती है माथे पर
उसे उतारता नहीं हूँ
तुमसे प्यार है तो तुम्हारी धूल भी पसंद है मुझे
यानी प्यार में सुखी होने के लिए
वह सब करता हूँ जो पसंद भी नहीं
पुरुष का अहंकार नहीं
यह प्यार है
जिसमें बन जाना होता है छोटा
झुक जाना होता है जमीन तक
चलना होता है लंगड़ाकर
गिरकर, और गिरना होता है
यह प्यार ही है
झुकता हूँ, चलता हूँ, दौड़ता, हांफता हूँ
फिर गिर पड़ता हूँ
गिरकर होता हूँ सुखी
इसी क्रम में चढ़ती है धूल, थकती हैं साँसें
कोई पड़ाव नहीं आता
प्यार के लिए
जाने कितने बरस, जाने कितनी सदियाँ
बीत चुकी हैं
दौड़ रहा हूँ, भाग रहा हूँ
मिलन की चाह है
अभी तक आधा अधूरा है मिलन