भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"उधर रहज़न इधर रहबर ज़ियादा / सुरेश चन्द्र शौक़" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 4: पंक्ति 4:
 
|संग्रह = आँच / सुरेश चन्द्र शौक़  
 
|संग्रह = आँच / सुरेश चन्द्र शौक़  
 
}}
 
}}
[[Category:ग़ज़ल]]
+
{{KKCatGhazal}}
 
+
<poem>
 
उधर रहज़न इधर रहबर ज़ियादा
 
उधर रहज़न इधर रहबर ज़ियादा
 
+
भरोसा कीजिये किस पर ज़ियादा
भरोसा कीजिये किस पर ज़ियादा  
+
 
+
  
 
घरों की पासबानी फ़र्ज़ जिनका
 
घरों की पासबानी फ़र्ज़ जिनका
 
+
वही अब लूटते हैं घर ज़ियादा
वही अब लूटते हैं घर ज़ियादा  
+
 
+
  
 
सफ़र का देखिये अंजाम क्या हो
 
सफ़र का देखिये अंजाम क्या हो
 
+
मुसाफ़िर कम हैं और रहबर ज़ियादा
मुसाफ़िर कम हैं और रहबर ज़ियादा  
+
 
+
  
 
हया से भी सजाये रखना ख़ुद को
 
हया से भी सजाये रखना ख़ुद को
 
+
दमकता है यही ज़ेवर ज़ियादा
दमकता है यही ज़ेवर ज़ियादा  
+
 
+
  
 
हरीफ़ों से नहीं मैं इतना ख़ाइफ़
 
हरीफ़ों से नहीं मैं इतना ख़ाइफ़
 
+
मुझे लगता है ख़ुद से डर ज़ियादा
मुझे लगता है ख़ुद से डर ज़ियादा  
+
 
+
  
 
मिलेगी फ़त्ह किस को देखना है
 
मिलेगी फ़त्ह किस को देखना है
 
+
उधर नेज़े इधर है सर ज़ियादा
उधर नेज़े इधर है सर ज़ियादा  
+
 
+
  
 
वहाँ शीशे की है मेरी तिजारत
 
वहाँ शीशे की है मेरी तिजारत
 
+
बरसते हैं जहाँ पत्थर ज़ियादा
बरसते हैं जहाँ पत्थर ज़ियादा  
+
 
+
  
 
उसी ने पुश्त से घोंपा है ख़ंजर
 
उसी ने पुश्त से घोंपा है ख़ंजर
 
+
भरोसा था मुझे जिस पर ज़ियादा
भरोसा था मुझे जिस पर ज़ियादा  
+
 
+
  
 
जहाँ बहुतात है पहले ही ज़र की
 
जहाँ बहुतात है पहले ही ज़र की
 
+
बरसता है वहाँ ही ज़र ज़ियादा
बरसता है वहाँ ही ज़र ज़ियादा  
+
 
+
  
 
वहाँ ऐ ‘शौक़’! ख़ुश्बू ढूँढता हूँ
 
वहाँ ऐ ‘शौक़’! ख़ुश्बू ढूँढता हूँ
 
 
जहाँ कागज़ के हैं पैकर ज़ियादा
 
जहाँ कागज़ के हैं पैकर ज़ियादा
  
  
 
+
हरीफ़=शत्रु, ख़ाइफ़=भयभीत; तिजारत=व्यापार; पुश्त=पीठ; ज़र=धन; बहुतात= भरमार; पैकर=जिस्म</poem>
हरीफ़=शत्रु; ख़ाइफ़=भयभीत; तिजारत=व्यापार; पुश्त=पीठ; ज़र=धन; बहुतात= भरमार; पैकर=जिस्म
+

16:03, 6 अप्रैल 2017 के समय का अवतरण

उधर रहज़न इधर रहबर ज़ियादा
भरोसा कीजिये किस पर ज़ियादा

घरों की पासबानी फ़र्ज़ जिनका
वही अब लूटते हैं घर ज़ियादा

सफ़र का देखिये अंजाम क्या हो
मुसाफ़िर कम हैं और रहबर ज़ियादा

हया से भी सजाये रखना ख़ुद को
दमकता है यही ज़ेवर ज़ियादा

हरीफ़ों से नहीं मैं इतना ख़ाइफ़
मुझे लगता है ख़ुद से डर ज़ियादा

मिलेगी फ़त्ह किस को देखना है
उधर नेज़े इधर है सर ज़ियादा

वहाँ शीशे की है मेरी तिजारत
बरसते हैं जहाँ पत्थर ज़ियादा

उसी ने पुश्त से घोंपा है ख़ंजर
भरोसा था मुझे जिस पर ज़ियादा

जहाँ बहुतात है पहले ही ज़र की
बरसता है वहाँ ही ज़र ज़ियादा

वहाँ ऐ ‘शौक़’! ख़ुश्बू ढूँढता हूँ
जहाँ कागज़ के हैं पैकर ज़ियादा


हरीफ़=शत्रु, ख़ाइफ़=भयभीत; तिजारत=व्यापार; पुश्त=पीठ; ज़र=धन; बहुतात= भरमार; पैकर=जिस्म