भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"बाल काण्ड / भाग ३ / रामचरितमानस / तुलसीदास" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
छो
 
(5 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 12 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
कवि: [[तुलसीदास]]
+
{{KKGlobal}}
[[Category:तुलसीदास]]
+
{{KKRachna
[[Category:कविताएँ]]
+
|रचनाकार=तुलसीदास
 +
|संग्रह=रामचरितमानस / तुलसीदास
 +
}}
 +
{{KKPageNavigation
 +
|पीछे=बाल काण्ड / भाग २ / रामचरितमानस / तुलसीदास
 +
|आगे=बाल काण्ड / भाग ४ / रामचरितमानस / तुलसीदास
 +
|सारणी=रामचरितमानस / तुलसीदास
 +
}}
 +
{{KKCatAwadhiRachna}}
 +
<poem>
 +
जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई। महामुनिन्ह सो सब करवाई॥
 +
गहि गिरीस कुस कन्या पानी। भवहि समरपीं जानि भवानी॥
 +
पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा। हिंयँ हरषे तब सकल सुरेसा॥
 +
बेद मंत्र मुनिबर उच्चरहीं। जय जय जय संकर सुर करहीं॥
 +
बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना। सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना॥
 +
हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू। सकल भुवन भरि रहा उछाहू॥
 +
दासीं दास तुरग रथ नागा। धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा॥
 +
अन्न कनकभाजन भरि जाना। दाइज दीन्ह न जाइ बखाना॥
 +
छं0-दाइज दियो बहु भाँति पुनि कर जोरि हिमभूधर कह्यो।
 +
का देउँ पूरनकाम संकर चरन पंकज गहि रह्यो॥
 +
सिवँ कृपासागर ससुर कर संतोषु सब भाँतिहिं कियो।
 +
पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो॥
 +
दो0-नाथ उमा मन प्रान सम गृहकिंकरी करेहु।
 +
छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु॥101॥
  
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
+
बहु बिधि संभु सास समुझाई। गवनी भवन चरन सिरु नाई॥
 +
जननीं उमा बोलि तब लीन्ही। लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही॥
 +
करेहु सदा संकर पद पूजा। नारिधरमु पति देउ न दूजा॥
 +
बचन कहत भरे लोचन बारी। बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी॥
 +
कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं॥
 +
भै अति प्रेम बिकल महतारी। धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी॥
 +
पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना। परम प्रेम कछु जाइ न बरना॥
 +
सब नारिन्ह मिलि भेटि भवानी। जाइ जननि उर पुनि लपटानी॥
 +
छं0-जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दईं।
 +
फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गई॥
 +
जाचक सकल संतोषि संकरु उमा सहित भवन चले।
 +
सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले॥
 +
दो0-चले संग हिमवंतु तब पहुँचावन अति हेतु।
 +
बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह बृषकेतु॥102॥
  
<br>चौ०-सोभा सीवँ सुभग दोउ बीरा। नील पीत जलजाभ सरीरा॥
+
तुरत भवन आए गिरिराई। सकल सैल सर लिए बोलाई॥
<br>मोरपंख सिर सोहत नीके। गुच्छ बीच बिच कुसुम कली के॥
+
आदर दान बिनय बहुमाना। सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना॥
<br>भाल तिलक श्रमबिंदु सुहाए। श्रवन सुभग भूषन छबि छाए॥
+
जबहिं संभु कैलासहिं आए। सुर सब निज निज लोक सिधाए॥
<br>बिकट भृकुटि कच घूघरवारे। नव सरोज लोचन रतनारे॥
+
जगत मातु पितु संभु भवानी। तेही सिंगारु कहउँ बखानी॥
<br>चारु चिबुक नासिका कपोला। हास बिलास लेत मनु मोला॥
+
करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा। गनन्ह समेत बसहिं कैलासा॥
<br>मुखछबि कहि जाइ मोहि पाहीं। जो बिलोकि बहु काम लजाहीं॥
+
हर गिरिजा बिहार नित नयऊ। एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ॥
<br>उर मनि माल कंबु कल गीवा। काम कलभ कर भुज बलसींवा॥
+
तब जनमेउ षटबदन कुमारा। तारकु असुर समर जेहिं मारा॥
<br>सुमन समेत बाम कर दोना। सावँर कुअँर सखी सुठि लोना॥
+
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। षन्मुख जन्मु सकल जग जाना॥
<br>दो०-केहरि कटि पट पीत धर सुषमा सील निधान।
+
छं0-जगु जान षन्मुख जन्मु कर्मु प्रतापु पुरुषारथु महा।
<br>देखि भानुकुलभूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान॥२३३॥
+
तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर चरित संछेपहिं कहा॥
<br>
+
यह उमा संगु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं।
<br>चौ०-धरि धीरजु एक आलि सयानी। सीता सन बोली गहि पानी॥
+
कल्यान काज बिबाह मंगल सर्बदा सुखु पावहीं॥
<br>बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू। भूपकिसोर देखि किन लेहू॥
+
दो0-चरित सिंधु गिरिजा रमन बेद पावहिं पारु।
<br>सकुचि सीयँ तब नयन उघारे। सनमुख दोउ रघुसिंघ निहारे॥
+
बरनै तुलसीदासु किमि अति मतिमंद गवाँरु॥103॥
<br>नख सिख देखि राम कै सोभा। सुमिरि पिता पनु मनु अति छोभा॥
+
 
<br>परबस सखिन्ह लखी जब सीता। भयउ गहरु सब कहहि सभीता॥
+
संभु चरित सुनि सरस सुहावा। भरद्वाज मुनि अति सुख पावा॥
<br>पुनि आउब एहि बेरिआँ काली। अस कहि मन बिहसी एक आली॥
+
बहु लालसा कथा पर बाढ़ी। नयनन्हि नीरु रोमावलि ठाढ़ी॥
<br>गूढ़ गिरा सुनि सिय सकुचानी। भयउ बिलंबु मातु भय मानी॥
+
प्रेम बिबस मुख आव न बानी। दसा देखि हरषे मुनि ग्यानी॥
<br>धरि बड़ि धीर रामु उर आने। फिरि अपनपउ पितुबस जाने॥
+
अहो धन्य तव जन्मु मुनीसा। तुम्हहि प्रान सम प्रिय गौरीसा॥
<br>दो०-देखन मिस मृग बिहग तरु फिरइ बहोरि बहोरि।
+
सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं। रामहि ते सपनेहुँ सोहाहीं॥
<br>निरखि निरखि रघुबीर छबि बाढ़इ प्रीति थोरि॥२३४॥
+
बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू। राम भगत कर लच्छन एहू॥
<br>
+
सिव सम को रघुपति ब्रतधारी। बिनु अघ तजी सती असि नारी॥
<br>चौ०-जानि कठिन सिवचाप बिसूरति। चली राखि उर स्यामल मूरति॥
+
पनु करि रघुपति भगति देखाई। को सिव सम रामहि प्रिय भाई॥
<br>प्रभु जब जात जानकी जानी। सुख सनेह सोभा गुन खानी॥
+
दो0-प्रथमहिं मै कहि सिव चरित बूझा मरमु तुम्हार।
<br>परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही। चारु चित भीतीं लिख लीन्ही॥
+
सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार॥104॥
<br>गई भवानी भवन बहोरी। बंदि चरन बोली कर जोरी॥
+
 
<br>जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी॥
+
मैं जाना तुम्हार गुन सीला। कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला॥
<br>जय गज बदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता॥
+
सुनु मुनि आजु समागम तोरें। कहि न जाइ जस सुखु मन मोरें॥
<br>नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना॥
+
राम चरित अति अमित मुनिसा। कहि न सकहिं सत कोटि अहीसा॥
<br>भव भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि॥
+
तदपि जथाश्रुत कहउँ बखानी। सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी॥
<br>दो०-पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख।
+
सारद दारुनारि सम स्वामी। रामु सूत्रधर अंतरजामी॥
<br>महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष॥२३५॥
+
जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥
<br>
+
प्रनवउँ सोइ कृपाल रघुनाथा। बरनउँ बिसद तासु गुन गाथा॥
<br>चौ०-सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायनी पुरारि पिआरी॥
+
परम रम्य गिरिबरु कैलासू। सदा जहाँ सिव उमा निवासू॥
<br>देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे॥
+
दो0-सिद्ध तपोधन जोगिजन सूर किंनर मुनिबृंद।
<br>मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबही कें॥
+
बसहिं तहाँ सुकृती सकल सेवहिं सिब सुखकंद॥105॥
<br>कीन्हेउँ प्रगट कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं॥
+
 
<br>बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी॥
+
हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं। ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं॥
<br>सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ॥
+
तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला। नित नूतन सुंदर सब काला॥
<br>सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी॥
+
त्रिबिध समीर सुसीतलि छाया। सिव बिश्राम बिटप श्रुति गाया॥
<br>नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा॥
+
एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ। तरु बिलोकि उर अति सुखु भयऊ॥
<br>छं०-मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो।
+
निज कर डासि नागरिपु छाला। बैठै सहजहिं संभु कृपाला॥
<br>करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो॥
+
कुंद इंदु दर गौर सरीरा। भुज प्रलंब परिधन मुनिचीरा॥
<br>एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली।
+
तरुन अरुन अंबुज सम चरना। नख दुति भगत हृदय तम हरना॥
<br>तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली॥
+
भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी। आननु सरद चंद छबि हारी॥
<br>सो०-जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।
+
दो0-जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन नलिन बिसाल।
<br>मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे॥२३६॥
+
नीलकंठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल॥106॥
<br>
+
 
<br>चौ०-हृदयँ सराहत सीय लोनाई। गुर समीप गवने दोउ भाई॥
+
बैठे सोह कामरिपु कैसें। धरें सरीरु सांतरसु जैसें॥
<br>राम कहा सबु कौसिक पाहीं। सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं॥
+
पारबती भल अवसरु जानी। गई संभु पहिं मातु भवानी॥
<br>सुमन पाइ मुनि पूजा कीन्ही। पुनि असीस दुहु भाइन्ह दीन्ही॥
+
जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा। बाम भाग आसनु हर दीन्हा॥
<br>सुफल मनोरथ होहुँ तुम्हारे। रामु लखनु सुनि भए सुखारे॥
+
बैठीं सिव समीप हरषाई। पूरुब जन्म कथा चित आई॥
<br>करि भोजनु मुनिबर बिग्यानी। लगे कहन कछु कथा पुरानी॥
+
पति हियँ हेतु अधिक अनुमानी। बिहसि उमा बोलीं प्रिय बानी॥
<br>बिगत दिवसु गुरु आयसु पाई। संध्या करन चले दोउ भाई॥
+
कथा जो सकल लोक हितकारी। सोइ पूछन चह सैलकुमारी॥
<br>प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा। सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा॥
+
बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी। त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी॥
<br>बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं। सीय बदन सम हिमकर नाहीं॥
+
चर अरु अचर नाग नर देवा। सकल करहिं पद पंकज सेवा॥
<br>दो०-जनमु सिंधु पुनि बंधु बिषु दिन मलीन सकलंक।
+
दो0-प्रभु समरथ सर्बग्य सिव सकल कला गुन धाम॥
<br>सिय मुख समता पाव किमि चंदु बापुरो रंक॥२३७॥
+
जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम॥107॥
<br>
+
 
<br>चौ०-घटइ बढ़इ बिरहनि दुखदाई। ग्रसइ राहु निज संधिहिं पाई॥
+
जौं मो पर प्रसन्न सुखरासी। जानिअ सत्य मोहि निज दासी॥
<br>कोक सिकप्रद पंकज द्रोही। अवगुन बहुत चंद्रमा तोही॥
+
तौं प्रभु हरहु मोर अग्याना। कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना॥
<br>बैदेही मुख पटतर दीन्हे। होइ दोष बड़ अनुचित कीन्हे॥
+
जासु भवनु सुरतरु तर होई। सहि कि दरिद्र जनित दुखु सोई॥
<br>सिय मुख छबि बिधु ब्याज बखानी। गुरु पहिं चले निसा बड़ि जानी॥
+
ससिभूषन अस हृदयँ बिचारी। हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी॥
<br>करि मुनि चरन सरोज प्रनामा। आयसु पाइ कीन्ह बिश्रामा॥
+
प्रभु जे मुनि परमारथबादी। कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादी॥
<br>बिगत निसा रघुनायक जागे। बंधु बिलोकि कहन अस लागे॥
+
सेस सारदा बेद पुराना। सकल करहिं रघुपति गुन गाना॥
<br>उदउ अरुन अवलोकहु ताता। पंकज कोक लोक सुखदाता॥
+
तुम्ह पुनि राम राम दिन राती। सादर जपहु अनँग आराती॥
<br>बोले लखनु जोरि जुग पानी। प्रभु प्रभाउ सूचक मृदु बानी॥
+
रामु सो अवध नृपति सुत सोई। की अज अगुन अलखगति कोई॥
<br>दो०-अरुनोदयँ सकुचे कुमुद उडगन जोति मलीन।
+
दो0-जौं नृप तनय त ब्रह्म किमि नारि बिरहँ मति भोरि।
<br>जिमि तुम्हार आगमन सुनि भए नृपति बलहीन॥२३८॥
+
देख चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि अति मोरि॥108॥
<br>
+
 
<br>चौ०-नृप सब नखत करहिं उजिआरी। टारि न सकहिं चाप तम भारी॥
+
जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ। कबहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ॥
<br>कमल कोक मधुकर खग नाना। हरषे सकल निसा अवसाना॥
+
अग्य जानि रिस उर जनि धरहू। जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू॥
<br>ऐसेहिं प्रभु सब भगत तुम्हारे। होइहहिं टूटें धनुष सुखारे॥
+
मै बन दीखि राम प्रभुताई। अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई॥
<br>उयउ भानु बिनु श्रम तम नासा। दुरे नखत जग तेजु प्रकासा॥
+
तदपि मलिन मन बोधु आवा। सो फलु भली भाँति हम पावा॥
<br>रबि निज उदय ब्याज रघुराया। प्रभु प्रतापु सब नृपन्ह दिखाया॥
+
अजहूँ कछु संसउ मन मोरे। करहु कृपा बिनवउँ कर जोरें॥
<br>तव भुज बल महिमा उदघाटी। प्रगटी धनु बिघटन परिपाटी॥
+
प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा। नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा॥
<br>बंधु बचन सुनि प्रभु मुसुकाने। होइ सुचि सहज पुनीत नहाने॥
+
तब कर अस बिमोह अब नाहीं। रामकथा पर रुचि मन माहीं॥
<br>नित्यक्रिया करि गुरु पहिं आए। चरन सरोज सुभग सिर नाए॥
+
कहहु पुनीत राम गुन गाथा। भुजगराज भूषन सुरनाथा॥
<br>सतानंदु तब जनक बोलाए। कौसिक मुनि पहिं तुरत पठाए॥
+
दो0-बंदउ पद धरि धरनि सिरु बिनय करउँ कर जोरि।
<br>जनक बिनय तिन्ह आइ सुनाई। हरषे बोलि लिए दोउ भाई॥
+
बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धांत निचोरि॥109॥
<br>दो०-सतानंद पद बंदि प्रभु बैठे गुर पहिं जाइ।
+
 
<br>चलहु तात मुनि कहेउ तब पठवा जनक बोलाइ॥२३९॥
+
जदपि जोषिता नहिं अधिकारी। दासी मन क्रम बचन तुम्हारी॥
<br>
+
गूढ़उ तत्व न साधु दुरावहिं। आरत अधिकारी जहँ पावहिं॥
<br>मासपारायण, आठवाँ विश्राम
+
अति आरति पूछउँ सुरराया। रघुपति कथा कहहु करि दाया॥
<br>नवान्हपारायण, दूसरा विश्राम
+
प्रथम सो कारन कहहु बिचारी। निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी॥
<br>
+
पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा। बालचरित पुनि कहहु उदारा॥
<br>चौ०-सीय स्वयंबरु देखिअ जाई। ईसु काहि धौं देइ बड़ाई॥
+
कहहु जथा जानकी बिबाहीं। राज तजा सो दूषन काहीं॥
<br>लखन कहा जस भाजनु सोई। नाथ कृपा तव जापर होई॥
+
बन बसि कीन्हे चरित अपारा। कहहु नाथ जिमि रावन मारा॥
<br>हरषे मुनि सब सुनि बर बानी। दीन्हि असीस सबहिं सुखु मानी॥
+
राज बैठि कीन्हीं बहु लीला। सकल कहहु संकर सुखलीला॥
<br>पुनि मुनिबृंद समेत कृपाला। देखन चले धनुषमख साला॥
+
दो0-बहुरि कहहु करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम।
<br>रंगभूमि आए दोउ भाई। असि सुधि सब पुरबासिन्ह पाई॥
+
प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज धाम॥110॥
<br>चले सकल गृह काज बिसारी। बाल जुबान जरठ नर नारी॥
+
 
<br>देखी जनक भीर भै भारी। सुचि सेवक सब लिए हँकारी॥
+
पुनि प्रभु कहहु सो तत्व बखानी। जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी॥
<br>तुरत सकल लोगन्ह पहिं जाहू। आसन उचित देहु सब काहू॥
+
भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। पुनि सब बरनहु सहित बिभागा॥
<br>दो०-कहि मृदु बचन बिनीत तिन्ह बैठारे नर नारि।
+
औरउ राम रहस्य अनेका। कहहु नाथ अति बिमल बिबेका॥
<br>उत्तम मध्यम नीच लघु निज निज थल अनुहारि॥२४०॥
+
जो प्रभु मैं पूछा नहि होई। सोउ दयाल राखहु जनि गोई॥
<br>
+
तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना। आन जीव पाँवर का जाना॥
<br>चौ०-राजकुअँर तेहि अवसर आए। मनहुँ मनोहरता तन छाए॥
+
प्रस्न उमा कै सहज सुहाई। छल बिहीन सुनि सिव मन भाई॥
<br>गुन सागर नागर बर बीरा। सुंदर स्यामल गौर सरीरा॥
+
हर हियँ रामचरित सब आए। प्रेम पुलक लोचन जल छाए॥
<br>राज समाज बिराजत रूरे। उडगन महुँ जनु जुग बिधु पूरे॥
+
श्रीरघुनाथ रूप उर आवा। परमानंद अमित सुख पावा॥
<br>जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी॥
+
दो0-मगन ध्यानरस दंड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह।
<br>देखहिं रूप महा रनधीरा। मनहुँ बीर रसु धरें सरीरा॥
+
रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह॥111॥
<br>डरे कुटिल नृप प्रभुहि निहारी। मनहुँ भयानक मूरति भारी॥
+
 
<br>रहे असुर छल छोनिप बेषा। तिन्ह प्रभु प्रगट कालसम देखा॥
+
झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें॥
<br>पुरबासिन्ह देखे दोउ भाई। नरभूषन लोचन सुखदाई॥
+
जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई॥
<br>दो०-नारि बिलोकहिं हरषि हियँ निज निज रुचि अनुरूप।
+
बंदउँ बालरूप सोई रामू। सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू॥
<br>जनु सोहत सिंगार धरि मूरति परम अनूप॥२४१॥
+
मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी॥
<br>
+
करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी। हरषि सुधा सम गिरा उचारी॥
<br>चौ०-बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा। बहु मुख कर पग लोचन सीसा॥
+
धन्य धन्य गिरिराजकुमारी। तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी॥
<br>जनक जाति अवलोकहिं कैसैं। सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें॥
+
पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा। सकल लोक जग पावनि गंगा॥
<br>सहित बिदेह बिलोकहिं रानी। सिसु सम प्रीति न जाति बखानी॥
+
तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हहु प्रस्न जगत हित लागी॥
<br>जोगिन्ह परम तत्वमय भासा। सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा॥
+
दो0-रामकृपा तें पारबति सपनेहुँ तव मन माहिं।
<br>हरिभगतन्ह देखे दोउ भ्राता। इष्टदेव इव सब सुख दाता॥
+
सोक मोह संदेह भ्रम मम बिचार कछु नाहिं॥112॥
<br>रामहि चितव भायँ जेहि सीया। सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया॥
+
 
<br>उर अनुभवति न कहि सक सोऊ। कवन प्रकार कहै कबि कोऊ॥
+
तदपि असंका कीन्हिहु सोई। कहत सुनत सब कर हित होई॥
<br>एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ। तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ॥
+
जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना। श्रवन रंध्र अहिभवन समाना॥
<br>दो०-राजत राज समाज महुँ कोसलराज किसोर।
+
नयनन्हि संत दरस नहिं देखा। लोचन मोरपंख कर लेखा॥
<br>सुंदर स्यामल गौर तन बिस्व बिलोचन चोर॥२४२॥
+
ते सिर कटु तुंबरि समतूला। जे न नमत हरि गुर पद मूला॥
<br>
+
जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी। जीवत सव समान तेइ प्रानी॥
<br>चौ०-सहज मनोहर मूरति दोऊ। कोटि काम उपमा लघु सोऊ॥
+
जो नहिं करइ राम गुन गाना। जीह सो दादुर जीह समाना॥
<br>सरद चंद निंदक मुख नीके। नीरज नयन भावते जी के॥
+
कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती। सुनि हरिचरित जो हरषाती॥
<br>चितवत चारु मार मनु हरनी। भावति हृदय जाति नहीं बरनी॥
+
गिरिजा सुनहु राम कै लीला। सुर हित दनुज बिमोहनसीला॥
<br>कल कपोल श्रुति कुंडल लोला। चिबुक अधर सुंदर मृदु बोला॥
+
दो0-रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दानि।
<br>कुमुदबंधु कर निंदक हाँसा। भृकुटी बिकट मनोहर नासा॥
+
सतसमाज सुरलोक सब को सुनै अस जानि॥113॥
<br>भाल बिसाल तिलक झलकाहीं। कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं॥
+
 
<br>पीत चौतनीं सिरन्हि सुहाई। कुसुम कलीं बिच बीच बनाईं॥
+
रामकथा सुंदर कर तारी। संसय बिहग उडावनिहारी॥
<br>रेखें रुचिर कंबु कल गीवाँ। जनु त्रिभुवन सुषमा की सीवाँ॥
+
रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥
<br>दो०-कुंजर मनि कंठा कलित उरन्हि तुलसिका माल।
+
राम नाम गुन चरित सुहाए। जनम करम अगनित श्रुति गाए॥
<br>बृषभ कंध केहरि ठवनि बल निधि बाहु बिसाल॥२४३॥
+
जथा अनंत राम भगवाना। तथा कथा कीरति गुन नाना॥
<br>
+
तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी। कहिहउँ देखि प्रीति अति तोरी॥
<br>चौ०-कटि तूनीर पीत पट बाँधे। कर सर धनुष बाम बर काँधे॥
+
उमा प्रस्न तव सहज सुहाई। सुखद संतसंमत मोहि भाई॥
<br>पीत जग्य उपबीत सुहाए। नख सिख मंजु महाछबि छाए॥
+
एक बात नहि मोहि सोहानी। जदपि मोह बस कहेहु भवानी॥
<br>देखि लोग सब भए सुखारे। एकटक लोचन चलत न तारे॥
+
तुम जो कहा राम कोउ आना। जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना॥
<br>हरषे जनकु देखि दोउ भाई। मुनि पद कमल गहे तब जाई॥
+
दो0-कहहि सुनहि अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच।
<br>करि बिनती निज कथा सुनाई। रंग अवनि सब मुनिहि देखाई॥
+
पाषंडी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच॥114॥
<br>जहँ जहँ जाहि कुअँर बर दोऊ। तहँ तहँ चकित चितव सबु कोऊ॥
+
 
<br>निज निज रुख रामहि सबु देखा। कोउ न जान कछु मरमु बिसेषा॥
+
अग्य अकोबिद अंध अभागी। काई बिषय मुकर मन लागी॥
<br>भलि रचना मुनि नृप सन कहेऊ। राजाँ मुदित महासुख लहेऊ॥
+
लंपट कपटी कुटिल बिसेषी। सपनेहुँ संतसभा नहिं देखी॥
<br>दो०-सब मंचन्ह ते मंचु एक सुंदर बिसद बिसाल।
+
कहहिं ते बेद असंमत बानी। जिन्ह कें सूझ लाभु नहिं हानी॥
<br>मुनि समेत दोउ बंधु तहँ बैठारे महिपाल॥२४४॥
+
मुकर मलिन अरु नयन बिहीना। राम रूप देखहिं किमि दीना॥
<br>
+
जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका। जल्पहिं कल्पित बचन अनेका॥
<br>चौ०-प्रभुहि देखि सब नृप हिँयँ हारे। जनु राकेस उदय भएँ तारे॥
+
हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं। तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं॥
<br>असि प्रतीति सब के मन माहीं। राम चाप तोरब सक नाहीं॥
+
बातुल भूत बिबस मतवारे। ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे॥
<br>बिनु भंजेहुँ भव धनुषु बिसाला। मेलिहि सीय राम उर माला॥
+
जिन्ह कृत महामोह मद पाना। तिन् कर कहा करिअ नहिं काना॥
<br>अस बिचारि गवनहु घर भाई। जसु प्रतापु बलु तेजु गवाँई॥
+
सो0-अस निज हृदयँ बिचारि तजु संसय भजु राम पद।
<br>बिहसे अपर भूप सुनि बानी। जे अबिबेक अंध अभिमानी॥
+
सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन मम॥115॥
<br>तोरेहुँ धनुषु ब्याहु अवगाहा। बिनु तोरें को कुअँरि बिआहा॥
+
 
<br>एक बार कालउ किन होऊ। सिय हित समर जितब हम सोऊ॥
+
सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥
<br>यह सुनि अवर महिप मुसकाने। धरमसील हरिभगत सयाने॥
+
अगुन अरुप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥
<br>सो०-सीय बिआहबि राम गरब दूरि करि नृपन्ह के॥
+
जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें॥
<br>जीति को सक संग्राम दसरथ के रन बाँकुरे॥२४५॥
+
जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा। तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा॥
<br>
+
राम सच्चिदानंद दिनेसा। नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा॥
<br>चौ०-ब्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई। मन मोदकन्हि कि भूख बुताई॥
+
सहज प्रकासरुप भगवाना। नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना॥
<br>सिख हमारि सुनि परम पुनीता। जगदंबा जानहु जियँ सीता॥
+
हरष बिषाद ग्यान अग्याना। जीव धर्म अहमिति अभिमाना॥
<br>जगत पिता रघुपतिहि बिचारी। भरि लोचन छबि लेहु निहारी॥
+
राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानन्द परेस पुराना॥
<br>सुंदर सुखद सकल गुन रासी। ए दोउ बंधु संभु उर बासी॥
+
दो0-पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि प्रगट परावर नाथ॥
<br>सुधा समुद्र समीप बिहाई। मृगजलु निरखि मरहु कत धाई॥
+
रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिवँ नायउ माथ॥116॥
<br>करहु जाइ जा कहुँ जोई भावा। हम तौ आजु जनम फलु पावा॥
+
 
<br>अस कहि भले भूप अनुरागे। रूप अनूप बिलोकन लागे॥
+
निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी। प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी॥
<br>देखहिं सुर नभ चढ़े बिमाना। बरषहिं सुमन करहिं कल गाना॥
+
जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ मानु कहहिं कुबिचारी॥
<br>दो०-जानि सुअवसरु सीय तब पठई जनक बोलाई।
+
चितव जो लोचन अंगुलि लाएँ। प्रगट जुगल ससि तेहि के भाएँ॥
<br>चतुर सखीं सुंदर सकल सादर चलीं लवाईं॥२४६॥
+
उमा राम बिषइक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा॥
<br>
+
बिषय करन सुर जीव समेता। सकल एक तें एक सचेता॥
<br>चौ०-सिय सोभा नहिं जाइ बखानी। जगदंबिका रूप गुन खानी॥
+
सब कर परम प्रकासक जोई। राम अनादि अवधपति सोई॥
<br>उपमा सकल मोहि लघु लागीं। प्राकृत नारि अंग अनुरागीं॥
+
जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू॥
<br>सिय बरनिअ तेइ उपमा देई। कुकबि कहाइ अजसु को लेई॥
+
जासु सत्यता तें जड माया। भास सत्य इव मोह सहाया॥
<br>जौ पटतरिअ तीय सम सीया। जग असि जुबति कहाँ कमनीया॥
+
दो0-रजत सीप महुँ मास जिमि जथा भानु कर बारि।
<br>गिरा मुखर तन अरध भवानी। रति अति दुखित अतनु पति जानी॥
+
जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम सकइ कोउ टारि॥117॥
<br>बिष बारुनी बंधु प्रिय जेही। कहिअ रमासम किमि बैदेही॥
+
 
<br>जौ छबि सुधा पयोनिधि होई। परम रूपमय कच्छपु सोई॥
+
एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई॥
<br>सोभा रजु मंदरु सिंगारू। मथै पानि पंकज निज मारू॥
+
जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई॥
<br>दो०-एहि बिधि उपजै लच्छि जब सुंदरता सुख मूल।
+
जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई। गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई॥
<br>तदपि सकोच समेत कबि कहहिं सीय समतूल॥२४७॥
+
आदि अंत कोउ जासु न पावा। मति अनुमानि निगम अस गावा॥
<br>
+
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥
<br>चौ०-चलीं संग लै सखीं सयानी। गावत गीत मनोहर बानी॥
+
आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥
<br>सोह नवल तनु सुंदर सारी। जगत जननि अतुलित छबि भारी॥
+
तनु बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा॥
<br>भूषन सकल सुदेस सुहाए। अंग अंग रचि सखिन्ह बनाए॥
+
असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी॥
<br>रंगभूमि जब सिय पगु धारी। देखि रूप मोहे नर नारी॥
+
दो0-जेहि इमि गावहि बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान॥
<br>हरषि सुरन्ह दुंदुभीं बजाई। बरषि प्रसून अपछरा गाई॥
+
सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान॥118॥
<br>पानि सरोज सोह जयमाला। अवचट चितए सकल भुआला॥
+
 
<br>सीय चकित चित रामहि चाहा। भए मोहबस सब नरनाहा॥
+
कासीं मरत जंतु अवलोकी। जासु नाम बल करउँ बिसोकी॥
<br>मुनि समीप देखे दोउ भाई। लगे ललकि लोचन निधि पाई॥
+
सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी। रघुबर सब उर अंतरजामी॥
<br>दो०-गुरजन लाज समाजु बड़ देखि सीय सकुचानि॥
+
बिबसहुँ जासु नाम नर कहहीं। जनम अनेक रचित अघ दहहीं॥
<br>लागि बिलोकन सखिन्ह तन रघुबीरहि उर आनि॥२४८॥
+
सादर सुमिरन जे नर करहीं। भव बारिधि गोपद इव तरहीं॥
<br>
+
राम सो परमातमा भवानी। तहँ भ्रम अति अबिहित तव बानी॥
<br>चौ०-राम रूपु अरु सिय छबि देखें। नर नारिन्ह परिहरीं निमेषें॥
+
अस संसय आनत उर माहीं। ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं॥
<br>सोचहिं सकल कहत सकुचाहीं। बिधि सन बिनय करहिं मन माहीं॥
+
सुनि सिव के भ्रम भंजन बचना। मिटि गै सब कुतरक कै रचना॥
<br>हरु बिधि बेगि जनक जड़ताई। मति हमारि असि देहि सुहाई॥
+
भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती। दारुन असंभावना बीती॥
<br>बिनु बिचार पनु तजि नरनाहु। सीय राम कर करै बिबाहू॥
+
दो0-पुनि पुनि प्रभु पद कमल गहि जोरि पंकरुह पानि।
<br>जग भल कहहि भाव सब काहू। हठ कीन्हे अंतहुँ उर दाहू॥
+
बोली गिरिजा बचन बर मनहुँ प्रेम रस सानि॥119॥
<br>एहिं लालसाँ मगन सब लोगू। बरु साँवरो जानकी जोगू॥
+
 
<br>तब बंदीजन जनक बोलाए। बिरिदावली कहत चलि आए॥
+
ससि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी। मिटा मोह सरदातप भारी॥
<br>कह नृप जाइ कहहु पन मोरा। चले भाट हियँ हरषु न थोरा॥
+
तुम्ह कृपाल सबु संसउ हरेऊ। राम स्वरुप जानि मोहि परेऊ॥
<br>दो०-बोले बंदी बचन बर सुनहु सकल महिपाल।
+
नाथ कृपाँ अब गयउ बिषादा। सुखी भयउँ प्रभु चरन प्रसादा॥
<br>पन बिदेह कर कहहिं हम भुजा उठाइ बिसाल॥२४९॥
+
अब मोहि आपनि किंकरि जानी। जदपि सहज जड नारि अयानी॥
<br>
+
प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू। जौं मो पर प्रसन्न प्रभु अहहू॥
<br>चौ०-नृप भुजबल बिधु सिवधनु राहू। गरुअ कठोर बिदित सब काहू॥
+
राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी। सर्ब रहित सब उर पुर बासी॥
<br>रावनु बानु महाभट भारे। देखि सरासन गवँहिं सिधारे॥
+
नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू। मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू॥
<br>सोइ पुरारि कोदंडु कठोरा। राज समाज आजु जोइ तोरा॥
+
उमा बचन सुनि परम बिनीता। रामकथा पर प्रीति पुनीता॥
<br>त्रिभुवन जय समेत बैदेही॥बिनहिं बिचार बरइ हठि तेही॥
+
दो0-हिँयँ हरषे कामारि तब संकर सहज सुजान
<br>सुनि पन सकल भूप अभिलाषे। भटमानी अतिसय मन माखे॥
+
बहु बिधि उमहि प्रसंसि पुनि बोले कृपानिधान॥120(क)॥
<br>परिकर बाँधि उठे अकुलाई। चले इष्टदेवन्ह सिर नाई॥
+
सो0-सुनु सुभ कथा भवानि रामचरितमानस बिमल।
<br>तमकि ताकि तकि सिवधनु धरहीं। उठइ कोटि भाँति बलु करहीं॥
+
कहा भुसुंडि बखानि सुना बिहग नायक गरुड॥120(ख)॥
<br>जिन्ह के कछु बिचारु मन माहीं। चाप समीप महीप न जाहीं॥
+
सो संबाद उदार जेहि बिधि भा आगें कहब।
<br>दो०-तमकि धरहिं धनु मूढ़ नृप उठइ न चलहिं लजाइ।
+
सुनहु राम अवतार चरित परम सुंदर अनघ॥120(ग)॥
<br>मनहुँ पाइ भट बाहुबलु अधिकु अधिकु गरुआइ॥२५०॥
+
हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित।
<br>
+
मैं निज मति अनुसार कहउँ उमा सादर सुनहु॥120(घ॥
<br>चौ०-भूप सहस दस एकहि बारा। लगे उठावन टरइ न टारा॥
+
 
<br>डगइ न संभु सरासन कैसें। कामी बचन सती मनु जैसें॥
+
नवान्हपारायन,पहला विश्राम
<br>सब नृप भए जोगु उपहासी। जैसें बिनु बिराग संन्यासी॥
+
 
<br>कीरति बिजय बीरता भारी। चले चाप कर बरबस हारी॥
+
मासपारायण, चौथा विश्राम
<br>श्रीहत भए हारि हियँ राजा। बैठे निज निज जाइ समाजा॥
+
 
<br>नृपन्ह बिलोकि जनकु अकुलाने। बोले बचन रोष जनु साने॥
+
सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए। बिपुल बिसद निगमागम गाए॥
<br>दीप दीप के भूपति नाना। आए सुनि हम जो पनु ठाना॥
+
हरि अवतार हेतु जेहि होई। इदमित्थं कहि जाइ न सोई॥
<br>देव दनुज धरि मनुज सरीरा। बिपुल बीर आए रनधीरा॥
+
राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी। मत हमार अस सुनहि सयानी॥
<br>दो०-कुअँरि मनोहर बिजय बड़ि कीरति अति कमनीय।
+
तदपि संत मुनि बेद पुराना। जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना॥
<br>पावनिहार बिरंचि जनु रचेउ न धनु दमनीय॥२५१॥
+
तस मैं सुमुखि सुनावउँ तोही। समुझि परइ जस कारन मोही॥
<br>
+
जब जब होइ धरम कै हानी। बाढहिं असुर अधम अभिमानी॥
<br>चौ०-कहहु काहि यहु लाभु न भावा। काहुँ न संकर चाप चढ़ावा॥
+
करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी॥
<br>रहउ चढ़ाउब तोरब भाई। तिलु भरि भूमि न सके छड़ाई॥
+
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा॥
<br>अब जनि कोउ माखै भट मानी। बीर बिहीन मही मैं जानी॥
+
दो0-असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु।
<br>तजहु आस निज निज गृह जाहू। लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू॥
+
जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु॥121॥
<br>सुकृत जाइ जौं पनु परिहरऊँ। कुअँरि कुआरि रहउ का करऊँ॥
+
 
<br>जौं जनतेउँ बिनु भट भुबि भाई। तौ पनु करि होतेउँ न हँसाई॥
+
सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं। कृपासिंधु जन हित तनु धरहीं॥
<br>जनक बचन सुनि सब नर नारी। देखि जानकिहि भए दुखारी॥
+
राम जनम के हेतु अनेका। परम बिचित्र एक तें एका॥
<br>माखे लखनु कुटिल भइँ भौंहें। रदपट फरकत नयन रिसौंहें॥
+
जनम एक दुइ कहउँ बखानी। सावधान सुनु सुमति भवानी॥
<br>दो०-कहि न सकत रघुबीर डर लगे बचन जनु बान।
+
द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ। जय अरु बिजय जान सब कोऊ॥
<br>नाइ राम पद कमल सिरु बोले गिरा प्रमान॥२५२॥
+
बिप्र श्राप तें दूनउ भाई। तामस असुर देह तिन्ह पाई॥
<br>
+
कनककसिपु अरु हाटक लोचन। जगत बिदित सुरपति मद मोचन॥
<br>चौ०-रघुबंसिन्ह महुँ जहँ कोउ होई। तेहिं समाज अस कहइ न कोई॥
+
बिजई समर बीर बिख्याता। धरि बराह बपु एक निपाता॥
<br>कही जनक जसि अनुचित बानी। बिद्यमान रघुकुल मनि जानी॥
+
होइ नरहरि दूसर पुनि मारा। जन प्रहलाद सुजस बिस्तारा॥
<br>सुनहु भानुकुल पंकज भानू। कहउँ सुभाउ न कछु अभिमानू॥
+
दो0-भए निसाचर जाइ तेइ महाबीर बलवान।
<br>जौं तुम्हारि अनुसासन पावौं। कंदुक इव ब्रह्मांड उठावौं॥
+
कुंभकरन रावण सुभट सुर बिजई जग जान॥122॥
<br>काचे घट जिमि डारौं फोरी। सकउँ मेरु मूलक जिमि तोरी॥
+
 
<br>तव प्रताप महिमा भगवाना। को बापुरो पिनाक पुराना॥
+
मुकुत न भए हते भगवाना। तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना॥
<br>नाथ जानि अस आयसु होऊ। कौतुकु करौं बिलोकिअ सोऊ॥
+
एक बार तिन्ह के हित लागी। धरेउ सरीर भगत अनुरागी॥
<br>कमल नाल जिमि चाप चढ़ावौं। जोजन सत प्रमान लै धावौं॥
+
कस्यप अदिति तहाँ पितु माता। दसरथ कौसल्या बिख्याता॥
<br>दो०-तोरौं छत्रक दंड जिमि तव प्रताप बल नाथ।
+
एक कलप एहि बिधि अवतारा। चरित्र पवित्र किए संसारा॥
<br>जौं न करौं प्रभु पद सपथ कर न धरौं धनु भाथ॥२५३॥
+
एक कलप सुर देखि दुखारे। समर जलंधर सन सब हारे॥
<br>
+
संभु कीन्ह संग्राम अपारा। दनुज महाबल मरइ मारा॥
<br>चौ०-लखन सकोप बचन जे बोले। डगमगानि महि दिग्गज डोले॥
+
परम सती असुराधिप नारी। तेहि बल ताहि न जितहिं पुरारी॥
<br>सकल लोक सब भूप डेराने। सिय हियँ हरषु जनकु सकुचाने॥
+
दो0-छल करि टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह॥
<br>गुर रघुपति सब मुनि मन माहीं। मुदित भए पुनि पुनि पुलकाहीं॥
+
जब तेहि जानेउ मरम तब श्राप कोप करि दीन्ह॥123॥
<br>सयनहिं रघुपति लखनु नेवारे। प्रेम समेत निकट बैठारे॥
+
 
<br>बिस्वामित्र समय सुभ जानी। बोले अति सनेहमय बानी॥
+
तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना। कौतुकनिधि कृपाल भगवाना॥
<br>उठहु राम भंजहु भवचापा। मेटहु तात जनक परितापा॥
+
तहाँ जलंधर रावन भयऊ। रन हति राम परम पद दयऊ॥
<br>सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा। हरषु बिषादु न कछु उर आवा॥
+
एक जनम कर कारन एहा। जेहि लागि राम धरी नरदेहा॥
<br>ठाढ़े भए उठि सहज सुभाएँ। ठवनि जुबा मृगराजु लजाएँ॥
+
प्रति अवतार कथा प्रभु केरी। सुनु मुनि बरनी कबिन्ह घनेरी॥
<br>दो०-उदित उदयगिरि मंच पर रघुबर बालपतंग।
+
नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा॥
<br>बिकसे संत सरोज सब हरषे लोचन भृंग॥२५४॥
+
गिरिजा चकित भई सुनि बानी। नारद बिष्नुभगत पुनि ग्यानि॥
<br>
+
कारन कवन श्राप मुनि दीन्हा। का अपराध रमापति कीन्हा॥
<br>चौ०-नृपन्ह केरि आसा निसि नासी। बचन नखत अवली न प्रकासी॥
+
यह प्रसंग मोहि कहहु पुरारी। मुनि मन मोह आचरज भारी॥
<br>मानी महिप कुमुद सकुचाने। कपटी भूप उलूक लुकाने॥
+
दो0- बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ कोइ।
<br>भए बिसोक कोक मुनि देवा। बरिसहिं सुमन जनावहिं सेवा॥
+
जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ॥124(क)॥
<br>गुर पद बंदि सहित अनुरागा। राम मुनिन्ह सन आयसु मागा॥
+
सो0-कहउँ राम गुन गाथ भरद्वाज सादर सुनहु।
<br>सहजहिं चले सकल जग स्वामी। मत्त मंजु बर कुंजर गामी॥
+
भव भंजन रघुनाथ भजु तुलसी तजि मान मद॥124(ख)॥
<br>चलत राम सब पुर नर नारी। पुलक पूरि तन भए सुखारी॥
+
 
<br>बंदि पितर सुर सुकृत सँभारे। जौं कछु पुन्य प्रभाउ हमारे॥
+
हिमगिरि गुहा एक अति पावनि। बह समीप सुरसरी सुहावनि॥
<br>तौ सिवधनु मृनाल की नाईं। तोरहुँ राम गनेस गोसाईं॥
+
आश्रम परम पुनीत सुहावा। देखि देवरिषि मन अति भावा॥
<br>दो०-रामहि प्रेम समेत लखि सखिन्ह समीप बोलाइ।
+
निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा। भयउ रमापति पद अनुरागा॥
<br>सीता मातु सनेह बस बचन कहइ बिलखाइ॥२५५॥
+
सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी॥
<br>
+
मुनि गति देखि सुरेस डेराना। कामहि बोलि कीन्ह समाना॥
<br>चौ०-सखि सब कौतुक देखनिहारे। जेउ कहावत हितू हमारे॥
+
सहित सहाय जाहु मम हेतू। चकेउ हरषि हियँ जलचरकेतू॥
<br>कोउ न बुझाइ कहइ गुर पाहीं। ए बालक असि हठ भलि नाहीं॥
+
सुनासीर मन महुँ असि त्रासा। चहत देवरिषि मम पुर बासा॥
<br>रावन बान छुआ नहिं चापा। हारे सकल भूप करि दापा॥
+
जे कामी लोलुप जग माहीं। कुटिल काक इव सबहि डेराहीं॥
<br>सो धनु राजकुअँर कर देहीं। बाल मराल कि मंदर लेहीं॥
+
दो0-सुख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज।
<br>भूप सयानप सकल सिरानी। सखि बिधि गति कछु जाति न जानी॥
+
छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि लाज॥125॥
<br>बोली चतुर सखी मृदु बानी। तेजवंत लघु गनिअ न रानी॥
+
 
<br>कहँ कुंभज कहँ सिंधु अपारा। सोषेउ सुजसु सकल संसारा॥
+
तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ। निज मायाँ बसंत निरमयऊ॥
<br>रबि मंडल देखत लघु लागा। उदयँ तासु तिभुवन तम भागा॥
+
कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा। कूजहिं कोकिल गुंजहि भृंगा॥
<br>दो०-मंत्र परम लघु जासु बस बिधि हरि हर सुर सर्ब।
+
चली सुहावनि त्रिबिध बयारी। काम कृसानु बढ़ावनिहारी॥
<br>महामत्त गजराज कहुँ बस कर अंकुस खर्ब॥२५६॥
+
रंभादिक सुरनारि नबीना । सकल असमसर कला प्रबीना॥
<br>–*–*–
+
करहिं गान बहु तान तरंगा। बहुबिधि क्रीड़हि पानि पतंगा॥
<br>काम कुसुम धनु सायक लीन्हे। सकल भुवन अपने बस कीन्हे॥
+
देखि सहाय मदन हरषाना। कीन्हेसि पुनि प्रपंच बिधि नाना॥
<br>देबि तजिअ संसउ अस जानी। भंजब धनुष रामु सुनु रानी॥
+
काम कला कछु मुनिहि ब्यापी। निज भयँ डरेउ मनोभव पापी॥
<br>सखी बचन सुनि भै परतीती। मिटा बिषादु बढ़ी अति प्रीती॥
+
सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासु। बड़ रखवार रमापति जासू॥
<br>तब रामहि बिलोकि बैदेही। सभय हृदयँ बिनवति जेहि तेही॥
+
दो0- सहित सहाय सभीत अति मानि हारि मन मैन।
<br>मनहीं मन मनाव अकुलानी। होहु प्रसन्न महेस भवानी॥
+
गहेसि जाइ मुनि चरन तब कहि सुठि आरत बैन॥126॥
<br>करहु सफल आपनि सेवकाई। करि हितु हरहु चाप गरुआई॥
+
 
<br>गननायक बरदायक देवा। आजु लगें कीन्हिउँ तुअ सेवा॥
+
भयउ न नारद मन कछु रोषा। कहि प्रिय बचन काम परितोषा॥
<br>बार बार बिनती सुनि मोरी। करहु चाप गुरुता अति थोरी॥
+
नाइ चरन सिरु आयसु पाई। गयउ मदन तब सहित सहाई॥
<br>दो०-देखि देखि रघुबीर तन सुर मनाव धरि धीर॥
+
मुनि सुसीलता आपनि करनी। सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी॥
<br>भरे बिलोचन प्रेम जल पुलकावली सरीर॥२५७॥
+
सुनि सब कें मन अचरजु आवा। मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा॥
<br>–*–*–
+
तब नारद गवने सिव पाहीं। जिता काम अहमिति मन माहीं॥
<br>नीकें निरखि नयन भरि सोभा। पितु पनु सुमिरि बहुरि मनु छोभा॥
+
मार चरित संकरहिं सुनाए। अतिप्रिय जानि महेस सिखाए॥
<br>अहह तात दारुनि हठ ठानी। समुझत नहिं कछु लाभु न हानी॥
+
बार बार बिनवउँ मुनि तोहीं। जिमि यह कथा सुनायहु मोहीं॥
<br>सचिव सभय सिख देइ न कोई। बुध समाज बड़ अनुचित होई॥
+
तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ। चलेहुँ प्रसंग दुराएडु तबहूँ॥
<br>कहँ धनु कुलिसहु चाहि कठोरा। कहँ स्यामल मृदुगात किसोरा॥
+
दो0-संभु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान।
<br>बिधि केहि भाँति धरौं उर धीरा। सिरस सुमन कन बेधिअ हीरा॥
+
भारद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान॥127॥
<br>सकल सभा कै मति भै भोरी। अब मोहि संभुचाप गति तोरी॥
+
 
<br>निज जड़ता लोगन्ह पर डारी। होहि हरुअ रघुपतिहि निहारी॥
+
राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई॥
<br>अति परिताप सीय मन माही। लव निमेष जुग सब सय जाहीं॥
+
संभु बचन मुनि मन नहिं भाए। तब बिरंचि के लोक सिधाए॥
<br>दो०-प्रभुहि चितइ पुनि चितव महि राजत लोचन लोल।
+
एक बार करतल बर बीना। गावत हरि गुन गान प्रबीना॥
<br>खेलत मनसिज मीन जुग जनु बिधु मंडल डोल॥२५८॥
+
छीरसिंधु गवने मुनिनाथा। जहँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा॥
<br>–*–*–
+
हरषि मिले उठि रमानिकेता। बैठे आसन रिषिहि समेता॥
<br>गिरा अलिनि मुख पंकज रोकी। प्रगट न लाज निसा अवलोकी॥
+
बोले बिहसि चराचर राया। बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया॥
<br>लोचन जलु रह लोचन कोना। जैसे परम कृपन कर सोना॥
+
काम चरित नारद सब भाषे। जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे॥
<br>सकुची ब्याकुलता बड़ि जानी। धरि धीरजु प्रतीति उर आनी॥
+
अति प्रचंड रघुपति कै माया। जेहि मोह अस को जग जाया॥
<br>तन मन बचन मोर पनु साचा। रघुपति पद सरोज चितु राचा॥
+
दो0-रूख बदन करि बचन मृदु बोले श्रीभगवान ।
<br>तौ भगवानु सकल उर बासी। करिहिं मोहि रघुबर कै दासी॥
+
तुम्हरे सुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान॥128॥
<br>जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ कछु संहेहू॥
+
 
<br>प्रभु तन चितइ प्रेम तन ठाना। कृपानिधान राम सबु जाना॥
+
सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें। ग्यान बिराग हृदय नहिं जाके॥
<br>सियहि बिलोकि तकेउ धनु कैसे। चितव गरुरु लघु ब्यालहि जैसे॥
+
ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा। तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा॥
<br>दो०-लखन लखेउ रघुबंसमनि ताकेउ हर कोदंडु।
+
नारद कहेउ सहित अभिमाना। कृपा तुम्हारि सकल भगवाना॥
<br>पुलकि गात बोले बचन चरन चापि ब्रह्मांडु॥२५९॥
+
करुनानिधि मन दीख बिचारी। उर अंकुरेउ गरब तरु भारी॥
<br>–*–*–
+
बेगि सो मै डारिहउँ उखारी। पन हमार सेवक हितकारी॥
<br>दिसकुंजरहु कमठ अहि कोला। धरहु धरनि धरि धीर डोला॥
+
मुनि कर हित मम कौतुक होई। अवसि उपाय करबि मै सोई॥
<br>रामु चहहिं संकर धनु तोरा। होहु सजग सुनि आयसु मोरा॥
+
तब नारद हरि पद सिर नाई। चले हृदयँ अहमिति अधिकाई॥
<br>चाप सपीप रामु जब आए। नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए॥
+
श्रीपति निज माया तब प्रेरी। सुनहु कठिन करनी तेहि केरी॥
<br>सब कर संसउ अरु अग्यानू। मंद महीपन्ह कर अभिमानू॥
+
दो0-बिरचेउ मग महुँ नगर तेहिं सत जोजन बिस्तार।
<br>भृगुपति केरि गरब गरुआई। सुर मुनिबरन्ह केरि कदराई॥
+
श्रीनिवासपुर तें अधिक रचना बिबिध प्रकार॥129॥
<br>सिय कर सोचु जनक पछितावा। रानिन्ह कर दारुन दुख दावा॥
+
 
<br>संभुचाप बड बोहितु पाई। चढे जाइ सब संगु बनाई॥
+
बसहिं नगर सुंदर नर नारी। जनु बहु मनसिज रति तनुधारी॥
<br>राम बाहुबल सिंधु अपारू। चहत पारु नहि कोउ कड़हारू॥
+
तेहिं पुर बसइ सीलनिधि राजा। अगनित हय गय सेन समाजा॥
<br>दो०-राम बिलोके लोग सब चित्र लिखे से देखि।
+
सत सुरेस सम बिभव बिलासा। रूप तेज बल नीति निवासा॥
<br>चितई सीय कृपायतन जानी बिकल बिसेषि॥२६०॥
+
बिस्वमोहनी तासु कुमारी। श्री बिमोह जिसु रूपु निहारी॥
<br>–*–*–
+
सोइ हरिमाया सब गुन खानी। सोभा तासु कि जाइ बखानी॥
<br>देखी बिपुल बिकल बैदेही। निमिष बिहात कलप सम तेही॥
+
करइ स्वयंबर सो नृपबाला। आए तहँ अगनित महिपाला॥
<br>तृषित बारि बिनु जो तनु त्यागा। मुएँ करइ का सुधा तड़ागा॥
+
मुनि कौतुकी नगर तेहिं गयऊ। पुरबासिन्ह सब पूछत भयऊ॥
<br>का बरषा सब कृषी सुखानें। समय चुकें पुनि का पछितानें॥
+
सुनि सब चरित भूपगृहँ आए। करि पूजा नृप मुनि बैठाए॥
<br>अस जियँ जानि जानकी देखी। प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी॥
+
दो0-आनि देखाई नारदहि भूपति राजकुमारि।
<br>गुरहि प्रनामु मनहि मन कीन्हा। अति लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा॥
+
कहहु नाथ गुन दोष सब एहि के हृदयँ बिचारि॥130॥
<br>दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ। पुनि नभ धनु मंडल सम भयऊ॥
+
 
<br>लेत चढ़ावत खैंचत गाढ़ें। काहुँ न लखा देख सबु ठाढ़ें॥
+
देखि रूप मुनि बिरति बिसारी। बड़ी बार लगि रहे निहारी॥
<br>तेहि छन राम मध्य धनु तोरा। भरे भुवन धुनि घोर कठोरा॥
+
लच्छन तासु बिलोकि भुलाने। हृदयँ हरष नहिं प्रगट बखाने॥
<br>छं०-भरे भुवन घोर कठोर रव रबि बाजि तजि मारगु चले।
+
जो एहि बरइ अमर सोइ होई। समरभूमि तेहि जीत न कोई॥
<br>चिक्करहिं दिग्गज डोल महि अहि कोल कूरुम कलमले॥
+
सेवहिं सकल चराचर ताही। बरइ सीलनिधि कन्या जाही॥
<br>सुर असुर मुनि कर कान दीन्हें सकल बिकल बिचारहीं।
+
लच्छन सब बिचारि उर राखे। कछुक बनाइ भूप सन भाषे॥
<br>कोदंड खंडेउ राम तुलसी जयति बचन उचारही॥
+
सुता सुलच्छन कहि नृप पाहीं। नारद चले सोच मन माहीं॥
<br>सो०-संकर चापु जहाजु सागरु रघुबर बाहुबलु।
+
करौं जाइ सोइ जतन बिचारी। जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी॥
<br>बूड़ सो सकल समाजु चढ़ा जो प्रथमहिं मोह बस॥२६१॥
+
जप तप कछु होइ तेहि काला। हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला॥
<br>प्रभु दोउ चापखंड महि डारे। देखि लोग सब भए सुखारे॥
+
दो0-एहि अवसर चाहिअ परम सोभा रूप बिसाल।
<br>
+
जो बिलोकि रीझै कुअँरि तब मेलै जयमाल॥131॥
<br>कोसिकरुप पयोनिधि पावन। प्रेम बारि अवगाहु सुहावन॥
+
 
<br>रामरूप राकेसु निहारी। बढ़त बीचि पुलकावलि भारी॥
+
हरि सन मागौं सुंदरताई। होइहि जात गहरु अति भाई॥
<br>बाजे नभ गहगहे निसाना। देवबधू नाचहिं करि गाना॥
+
मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ। एहि अवसर सहाय सोइ होऊ॥
<br>ब्रह्मादिक सुर सिद्ध मुनीसा। प्रभुहि प्रसंसहि देहिं असीसा॥
+
बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि काला। प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला॥
<br>बरिसहिं सुमन रंग बहु माला। गावहिं किंनर गीत रसाला॥
+
प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुड़ाने। होइहि काजु हिएँ हरषाने॥
<br>रही भुवन भरि जय जय बानी। धनुषभंग धुनि जात न जानी॥
+
अति आरति कहि कथा सुनाई। करहु कृपा करि होहु सहाई॥
<br>मुदित कहहिं जहँ तहँ नर नारी। भंजेउ राम संभुधनु भारी॥
+
आपन रूप देहु प्रभु मोही। आन भाँति नहिं पावौं ओही॥
<br>दो०-बंदी मागध सूतगन बिरुद बदहिं मतिधीर।
+
जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा। करहु सो बेगि दास मैं तोरा॥
<br>करहिं निछावरि लोग सब हय गय धन मनि चीर॥२६२॥
+
निज माया बल देखि बिसाला। हियँ हँसि बोले दीनदयाला॥
<br>–*–*–
+
दो0-जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार।
<br>झाँझि मृदंग संख सहनाई। भेरि ढोल दुंदुभी सुहाई॥
+
सोइ हम करब आन कछु बचन न मृषा हमार॥132॥
<br>बाजहिं बहु बाजने सुहाए। जहँ तहँ जुबतिन्ह मंगल गाए॥
+
 
<br>सखिन्ह सहित हरषी अति रानी। सूखत धान परा जनु पानी॥
+
कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी। बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी॥
<br>जनक लहेउ सुखु सोचु बिहाई। पैरत थकें थाह जनु पाई॥
+
एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ। कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ॥
<br>श्रीहत भए भूप धनु टूटे। जैसें दिवस दीप छबि छूटे॥
+
माया बिबस भए मुनि मूढ़ा। समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा॥
<br>सीय सुखहि बरनिअ केहि भाँती। जनु चातकी पाइ जलु स्वाती॥
+
गवने तुरत तहाँ रिषिराई। जहाँ स्वयंबर भूमि बनाई॥
<br>रामहि लखनु बिलोकत कैसें। ससिहि चकोर किसोरकु जैसें॥
+
निज निज आसन बैठे राजा। बहु बनाव करि सहित समाजा॥
<br>सतानंद तब आयसु दीन्हा। सीताँ गमनु राम पहिं कीन्हा॥
+
मुनि मन हरष रूप अति मोरें। मोहि तजि आनहि बारिहि भोरें॥
<br>दो०-संग सखीं सुदंर चतुर गावहिं मंगलचार।
+
मुनि हित कारन कृपानिधाना। दीन्ह कुरूप जाइ बखाना॥
<br>गवनी बाल मराल गति सुषमा अंग अपार॥२६३॥
+
सो चरित्र लखि काहुँ पावा। नारद जानि सबहिं सिर नावा॥
<br>–*–*–
+
दो0-रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब भेउ।
<br>सखिन्ह मध्य सिय सोहति कैसे। छबिगन मध्य महाछबि जैसें॥
+
बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेउ॥133॥
<br>कर सरोज जयमाल सुहाई। बिस्व बिजय सोभा जेहिं छाई॥
+
 
<br>तन सकोचु मन परम उछाहू। गूढ़ प्रेमु लखि परइ न काहू॥
+
जेंहि समाज बैंठे मुनि जाई। हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई॥
<br>जाइ समीप राम छबि देखी। रहि जनु कुँअरि चित्र अवरेखी॥
+
तहँ बैठ महेस गन दोऊ। बिप्रबेष गति लखइ कोऊ॥
<br>चतुर सखीं लखि कहा बुझाई। पहिरावहु जयमाल सुहाई॥
+
करहिं कूटि नारदहि सुनाई। नीकि दीन्हि हरि सुंदरताई॥
<br>सुनत जुगल कर माल उठाई। प्रेम बिबस पहिराइ न जाई॥
+
रीझहि राजकुअँरि छबि देखी। इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी॥
<br>सोहत जनु जुग जलज सनाला। ससिहि सभीत देत जयमाला॥
+
मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ। हँसहिं संभु गन अति सचु पाएँ॥
<br>गावहिं छबि अवलोकि सहेली। सियँ जयमाल राम उर मेली॥
+
जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी। समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी॥
<br>सो०-रघुबर उर जयमाल देखि देव बरिसहिं सुमन।
+
काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा। सो सरूप नृपकन्याँ देखा॥
<br>सकुचे सकल भुआल जनु बिलोकि रबि कुमुदगन॥२६४॥
+
मर्कट बदन भयंकर देही। देखत हृदयँ क्रोध भा तेही॥
<br>पुर अरु ब्योम बाजने बाजे। खल भए मलिन साधु सब राजे॥
+
दो0-सखीं संग लै कुअँरि तब चलि जनु राजमराल।
<br>सुर किंनर नर नाग मुनीसा। जय जय जय कहि देहिं असीसा॥
+
देखत फिरइ महीप सब कर सरोज जयमाल॥134॥
<br>नाचहिं गावहिं बिबुध बधूटीं। बार बार कुसुमांजलि छूटीं॥
+
 
<br>जहँ तहँ बिप्र बेदधुनि करहीं। बंदी बिरदावलि उच्चरहीं॥
+
जेहि दिसि बैठे नारद फूली। सो दिसि देहि बिलोकी भूली॥
<br>महि पाताल नाक जसु ब्यापा। राम बरी सिय भंजेउ चापा॥
+
पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं। देखि दसा हर गन मुसकाहीं॥
<br>करहिं आरती पुर नर नारी। देहिं निछावरि बित्त बिसारी॥
+
धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला। कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला॥
<br>सोहति सीय राम कै जौरी। छबि सिंगारु मनहुँ एक ठोरी॥
+
दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा। नृपसमाज सब भयउ निरासा॥
<br>सखीं कहहिं प्रभुपद गहु सीता। करति न चरन परस अति भीता॥
+
मुनि अति बिकल मोंहँ मति नाठी। मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी॥
<br>दो०-गौतम तिय गति सुरति करि नहिं परसति पग पानि।
+
तब हर गन बोले मुसुकाई। निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई॥
<br>मन बिहसे रघुबंसमनि प्रीति अलौकिक जानि॥२६५॥
+
अस कहि दोउ भागे भयँ भारी। बदन दीख मुनि बारि निहारी॥
<br>–*–*–
+
बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा। तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा॥
<br>तब सिय देखि भूप अभिलाषे। कूर कपूत मूढ़ मन माखे॥
+
दो0-होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ।
<br>उठि उठि पहिरि सनाह अभागे। जहँ तहँ गाल बजावन लागे॥
+
हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ॥135॥
<br>लेहु छड़ाइ सीय कह कोऊ। धरि बाँधहु नृप बालक दोऊ॥
+
 
<br>तोरें धनुषु चाड़ नहिं सरई। जीवत हमहि कुअँरि को बरई॥
+
पुनि जल दीख रूप निज पावा। तदपि हृदयँ संतोष न आवा॥
<br>जौं बिदेहु कछु करै सहाई। जीतहु समर सहित दोउ भाई॥
+
फरकत अधर कोप मन माहीं। सपदी चले कमलापति पाहीं॥
<br>साधु भूप बोले सुनि बानी। राजसमाजहि लाज लजानी॥
+
देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई। जगत मोर उपहास कराई॥
<br>बलु प्रतापु बीरता बड़ाई। नाक पिनाकहि संग सिधाई॥
+
बीचहिं पंथ मिले दनुजारी। संग रमा सोइ राजकुमारी॥
<br>सोइ सूरता कि अब कहुँ पाई। असि बुधि तौ बिधि मुहँ मसि लाई॥
+
बोले मधुर बचन सुरसाईं। मुनि कहँ चले बिकल की नाईं॥
<br>दो०-देखहु रामहि नयन भरि तजि इरिषा मदु कोहु।
+
सुनत बचन उपजा अति क्रोधा। माया बस न रहा मन बोधा॥
<br>लखन रोषु पावकु प्रबल जानि सलभ जनि होहु॥२६६॥
+
पर संपदा सकहु नहिं देखी। तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी॥
<br>–*–*–
+
मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु। सुरन्ह प्रेरी बिष पान करायहु॥
<br>बैनतेय बलि जिमि चह कागू। जिमि ससु चहै नाग अरि भागू॥
+
दो0-असुर सुरा बिष संकरहि आपु रमा मनि चारु।
<br>जिमि चह कुसल अकारन कोही। सब संपदा चहै सिवद्रोही॥
+
स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु॥136॥
<br>लोभी लोलुप कल कीरति चहई। अकलंकता कि कामी लहई॥
+
 
<br>हरि पद बिमुख परम गति चाहा। तस तुम्हार लालचु नरनाहा॥
+
परम स्वतंत्र न सिर पर कोई। भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई॥
<br>कोलाहलु सुनि सीय सकानी। सखीं लवाइ गईं जहँ रानी॥
+
भलेहि मंद मंदेहि भल करहू। बिसमय हरष हियँ कछु धरहू॥
<br>रामु सुभायँ चले गुरु पाहीं। सिय सनेहु बरनत मन माहीं॥
+
डहकि डहकि परिचेहु सब काहू। अति असंक मन सदा उछाहू॥
<br>रानिन्ह सहित सोचबस सीया। अब धौं बिधिहि काह करनीया॥
+
करम सुभासुभ तुम्हहि बाधा। अब लगि तुम्हहि न काहूँ साधा॥
<br>भूप बचन सुनि इत उत तकहीं। लखनु राम डर बोलि सकहीं॥
+
भले भवन अब बायन दीन्हा। पावहुगे फल आपन कीन्हा॥
<br>दो०-अरुन नयन भृकुटी कुटिल चितवत नृपन्ह सकोप।
+
बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा। सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा॥
<br>मनहुँ मत्त गजगन निरखि सिंघकिसोरहि चोप॥२६७॥
+
कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी। करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी॥
<br>–*–*–
+
मम अपकार कीन्ही तुम्ह भारी। नारी बिरहँ तुम्ह होब दुखारी॥
<br>खरभरु देखि बिकल पुर नारीं। सब मिलि देहिं महीपन्ह गारीं॥
+
दो0-श्राप सीस धरी हरषि हियँ प्रभु बहु बिनती कीन्हि।
<br>तेहिं अवसर सुनि सिव धनु भंगा। आयसु भृगुकुल कमल पतंगा॥
+
निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि॥137॥
<br>देखि महीप सकल सकुचाने। बाज झपट जनु लवा लुकाने॥
+
 
<br>गौरि सरीर भूति भल भ्राजा। भाल बिसाल त्रिपुंड बिराजा॥
+
जब हरि माया दूरि निवारी। नहिं तहँ रमा न राजकुमारी॥
<br>सीस जटा ससिबदनु सुहावा। रिसबस कछुक अरुन होइ आवा॥
+
तब मुनि अति सभीत हरि चरना। गहे पाहि प्रनतारति हरना॥
<br>भृकुटी कुटिल नयन रिस राते। सहजहुँ चितवत मनहुँ रिसाते॥
+
मृषा होउ मम श्राप कृपाला। मम इच्छा कह दीनदयाला॥
<br>बृषभ कंध उर बाहु बिसाला। चारु जनेउ माल मृगछाला॥
+
मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे। कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे॥
<br>कटि मुनि बसन तून दुइ बाँधें। धनु सर कर कुठारु कल काँधें॥
+
जपहु जाइ संकर सत नामा। होइहि हृदयँ तुरंत बिश्रामा॥
<br>दो०-सांत बेषु करनी कठिन बरनि न जाइ सरुप।
+
कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें। असि परतीति तजहु जनि भोरें॥
<br>धरि मुनितनु जनु बीर रसु आयउ जहँ सब भूप॥२६८॥
+
जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी। सो न पाव मुनि भगति हमारी॥
<br>–*–*–
+
अस उर धरि महि बिचरहु जाई। अब न तुम्हहि माया निअराई॥
<br>देखत भृगुपति बेषु कराला। उठे सकल भय बिकल भुआला॥
+
दो0-बहुबिधि मुनिहि प्रबोधि प्रभु तब भए अंतरधान॥
<br>पितु समेत कहि कहि निज नामा। लगे करन सब दंड प्रनामा॥
+
सत्यलोक नारद चले करत राम गुन गान॥138॥
<br>जेहि सुभायँ चितवहिं हितु जानी। सो जानइ जनु आइ खुटानी॥
+
 
<br>जनक बहोरि आइ सिरु नावा। सीय बोलाइ प्रनामु करावा॥
+
हर गन मुनिहि जात पथ देखी। बिगतमोह मन हरष बिसेषी॥
<br>आसिष दीन्हि सखीं हरषानीं। निज समाज लै गई सयानीं॥
+
अति सभीत नारद पहिं आए। गहि पद आरत बचन सुनाए॥
<br>बिस्वामित्रु मिले पुनि आई। पद सरोज मेले दोउ भाई॥
+
हर गन हम बिप्र मुनिराया। बड़ अपराध कीन्ह फल पाया॥
<br>रामु लखनु दसरथ के ढोटा। दीन्हि असीस देखि भल जोटा॥
+
श्राप अनुग्रह करहु कृपाला। बोले नारद दीनदयाला॥
<br>रामहि चितइ रहे थकि लोचन। रूप अपार मार मद मोचन॥
+
निसिचर जाइ होहु तुम्ह दोऊ। बैभव बिपुल तेज बल होऊ॥
<br>दो०-बहुरि बिलोकि बिदेह सन कहहु काह अति भीर॥
+
भुजबल बिस्व जितब तुम्ह जहिआ। धरिहहिं बिष्नु मनुज तनु तहिआ।
<br>पूछत जानि अजान जिमि ब्यापेउ कोपु सरीर॥२६९॥
+
समर मरन हरि हाथ तुम्हारा। होइहहु मुकुत न पुनि संसारा॥
<br>–*–*–
+
चले जुगल मुनि पद सिर नाई। भए निसाचर कालहि पाई॥
<br>समाचार कहि जनक सुनाए। जेहि कारन महीप सब आए॥
+
दो0-एक कलप एहि हेतु प्रभु लीन्ह मनुज अवतार।
<br>सुनत बचन फिरि अनत निहारे। देखे चापखंड महि डारे॥
+
सुर रंजन सज्जन सुखद हरि भंजन भुबि भार॥139॥
<br>अति रिस बोले बचन कठोरा। कहु जड़ जनक धनुष कै तोरा॥
+
 
<br>बेगि देखाउ मूढ़ न त आजू। उलटउँ महि जहँ लहि तव राजू॥
+
एहि बिधि जनम करम हरि केरे। सुंदर सुखद बिचित्र घनेरे॥
<br>अति डरु उतरु देत नृपु नाहीं। कुटिल भूप हरषे मन माहीं॥
+
कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं। चारु चरित नानाबिधि करहीं॥
<br>सुर मुनि नाग नगर नर नारी॥सोचहिं सकल त्रास उर भारी॥
+
तब तब कथा मुनीसन्ह गाई। परम पुनीत प्रबंध बनाई॥
<br>मन पछिताति सीय महतारी। बिधि अब सँवरी बात बिगारी॥
+
बिबिध प्रसंग अनूप बखाने। करहिं न सुनि आचरजु सयाने॥
<br>भृगुपति कर सुभाउ सुनि सीता। अरध निमेष कलप सम बीता॥
+
हरि अनंत हरिकथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥
<br>दो०-सभय बिलोके लोग सब जानि जानकी भीरु।
+
रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥
<br>हृदयँ न हरषु बिषादु कछु बोले श्रीरघुबीरु॥२७०॥
+
यह प्रसंग मैं कहा भवानी। हरिमायाँ मोहहिं मुनि ग्यानी॥
<br>मासपारायण, नवाँ विश्राम
+
प्रभु कौतुकी प्रनत हितकारी॥सेवत सुलभ सकल दुख हारी॥
<br>–*–*–
+
सो0-सुर नर मुनि कोउ नाहिं जेहि मोह माया प्रबल॥
<br>नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा॥
+
अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया पतिहि॥140॥
<br>आयसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही॥
+
 
<br>सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरि करनी करि करिअ लराई॥
+
अपर हेतु सुनु सैलकुमारी। कहउँ बिचित्र कथा बिस्तारी॥
<br>सुनहु राम जेहिं सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा॥
+
जेहि कारन अज अगुन अरूपा। ब्रह्म भयउ कोसलपुर भूपा॥
<br>सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा॥
+
जो प्रभु बिपिन फिरत तुम्ह देखा। बंधु समेत धरें मुनिबेषा॥
<br>सुनि मुनि बचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अपमाने॥
+
जासु चरित अवलोकि भवानी। सती सरीर रहिहु बौरानी॥
<br>बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं॥
+
अजहुँ न छाया मिटति तुम्हारी। तासु चरित सुनु भ्रम रुज हारी॥
<br>एहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू॥
+
लीला कीन्हि जो तेहिं अवतारा। सो सब कहिहउँ मति अनुसारा॥
<br>दो०-रे नृप बालक कालबस बोलत तोहि न सँमार॥
+
भरद्वाज सुनि संकर बानी। सकुचि सप्रेम उमा मुसकानी॥
<br>धनुही सम तिपुरारि धनु बिदित सकल संसार॥२७१॥
+
लगे बहुरि बरने बृषकेतू। सो अवतार भयउ जेहि हेतू॥
<br>–*–*–
+
दो0-सो मैं तुम्ह सन कहउँ सबु सुनु मुनीस मन लाई॥
<br>लखन कहा हँसि हमरें जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना॥
+
राम कथा कलि मल हरनि मंगल करनि सुहाइ॥141॥
<br>का छति लाभु जून धनु तौरें। देखा राम नयन के भोरें॥
+
 
<br>छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू ।
+
स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा॥
<br>बोले चितइ परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा॥
+
दंपति धरम आचरन नीका। अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका॥
<br>बालकु बोलि बधउँ नहिं तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही॥
+
नृप उत्तानपाद सुत तासू। ध्रुव हरि भगत भयउ सुत जासू॥
<br>बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्व बिदित छत्रियकुल द्रोही॥
+
लघु सुत नाम प्रिय्रब्रत ताही। बेद पुरान प्रसंसहि जाही॥
<br>भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही॥
+
देवहूति पुनि तासु कुमारी। जो मुनि कर्दम कै प्रिय नारी॥
<br>सहसबाहु भुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा॥
+
आदिदेव प्रभु दीनदयाला। जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला॥
<br>दो०-मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।
+
सांख्य सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना। तत्व बिचार निपुन भगवाना॥
<br>गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर॥२७२॥
+
तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला। प्रभु आयसु सब बिधि प्रतिपाला॥
<br>–*–*–
+
सो0-होइ बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन।
<br>बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महा भटमानी॥
+
हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु॥142॥
<br>पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू। चहत उड़ावन फूँकि पहारू॥
+
 
<br>इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं॥
+
बरबस राज सुतहि तब दीन्हा। नारि समेत गवन बन कीन्हा॥
<br>देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना॥
+
तीरथ बर नैमिष बिख्याता। अति पुनीत साधक सिधि दाता॥
<br>भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहउँ रिस रोकी॥
+
बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा। तहँ हियँ हरषि चलेउ मनु राजा॥
<br>सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरें कुल इन्ह पर न सुराई॥
+
पंथ जात सोहहिं मतिधीरा। ग्यान भगति जनु धरें सरीरा॥
<br>बधें पापु अपकीरति हारें। मारतहूँ पा परिअ तुम्हारें॥
+
पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा। हरषि नहाने निरमल नीरा॥
<br>कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा। ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा॥
+
आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी। धरम धुरंधर नृपरिषि जानी॥
<br>दो०-जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर।
+
जहँ जँह तीरथ रहे सुहाए। मुनिन्ह सकल सादर करवाए॥
<br>सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गभीर॥२७३॥
+
कृस सरीर मुनिपट परिधाना। सत समाज नित सुनहिं पुराना ।
<br>–*–*–
+
दो0-द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग।
<br>कौसिक सुनहु मंद यहु बालकु। कुटिल कालबस निज कुल घालकु॥
+
बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग॥143॥
<br>भानु बंस राकेस कलंकू। निपट निरंकुस अबुध असंकू॥
+
 
<br>काल कवलु होइहि छन माहीं। कहउँ पुकारि खोरि मोहि नाहीं॥
+
करहिं अहार साक फल कंदा। सुमिरहिं ब्रह्म सच्चिदानंदा॥
<br>तुम्ह हटकउ जौं चहहु उबारा। कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा॥
+
पुनि हरि हेतु करन तप लागे। बारि अधार मूल फल त्यागे॥
<br>लखन कहेउ मुनि सुजस तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा॥
+
उर अभिलाष निंरंतर होई। देखअ नयन परम प्रभु सोई॥
<br>अपने मुँह तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी॥
+
अगुन अखंड अनंत अनादी। जेहि चिंतहिं परमारथबादी॥
<br>नहिं संतोषु त पुनि कछु कहहू। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू॥
+
नेति नेति जेहि बेद निरूपा। निजानंद निरुपाधि अनूपा॥
<br>बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा॥
+
संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें नाना॥
<br>दो०-सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।
+
ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई। भगत हेतु लीलातनु गहई॥
<br>बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु॥२७४॥
+
जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा। तौ हमार पूजहि अभिलाषा॥
<br>–*–*–
+
दो0-एहि बिधि बीतें बरष षट सहस बारि आहार।
<br>तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागि बोलावा॥
+
संबत सप्त सहस्त्र पुनि रहे समीर अधार॥144॥
<br>सुनत लखन के बचन कठोरा। परसु सुधारि धरेउ कर घोरा॥
+
 
<br>अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू। कटुबादी बालकु बधजोगू॥
+
बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ। ठाढ़े रहे एक पद दोऊ॥
<br>बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा। अब यहु मरनिहार भा साँचा॥
+
बिधि हरि तप देखि अपारा। मनु समीप आए बहु बारा॥
<br>कौसिक कहा छमिअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिं न साधू॥
+
मागहु बर बहु भाँति लोभाए। परम धीर नहिं चलहिं चलाए॥
<br>खर कुठार मैं अकरुन कोही। आगें अपराधी गुरुद्रोही॥
+
अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा। तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा॥
<br>उतर देत छोड़उँ बिनु मारें। केवल कौसिक सील तुम्हारें॥
+
प्रभु सर्बग्य दास निज जानी। गति अनन्य तापस नृप रानी॥
<br>न त एहि काटि कुठार कठोरें। गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरें॥
+
मागु मागु बरु भै नभ बानी। परम गभीर कृपामृत सानी॥
<br>दो०-गाधिसूनु कह हृदयँ हँसि मुनिहि हरिअरइ सूझ।
+
मृतक जिआवनि गिरा सुहाई। श्रबन रंध्र होइ उर जब आई॥
<br>अयमय खाँड न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ॥२७५॥
+
ह्रष्टपुष्ट तन भए सुहाए। मानहुँ अबहिं भवन ते आए॥
<br>–*–*–
+
दो0-श्रवन सुधा सम बचन सुनि पुलक प्रफुल्लित गात।
<br>कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहि जान बिदित संसारा॥
+
बोले मनु करि दंडवत प्रेम न हृदयँ समात॥145॥
<br>माता पितहि उरिन भए नीकें। गुर रिनु रहा सोचु बड़ जीकें॥
+
 
<br>सो जनु हमरेहि माथे काढ़ा। दिन चलि गए ब्याज बड़ बाढ़ा॥
+
सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनु। बिधि हरि हर बंदित पद रेनू॥
<br>अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली॥
+
सेवत सुलभ सकल सुख दायक। प्रनतपाल सचराचर नायक॥
<br>सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा॥
+
जौं अनाथ हित हम पर नेहू। तौ प्रसन्न होइ यह बर देहू॥
<br>भृगुबर परसु देखावहु मोही। बिप्र बिचारि बचउँ नृपद्रोही॥
+
जो सरूप बस सिव मन माहीं। जेहि कारन मुनि जतन कराहीं॥
<br>मिले न कबहुँ सुभट रन गाढ़े। द्विज देवता घरहि के बाढ़े॥
+
जो भुसुंडि मन मानस हंसा। सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा॥
<br>अनुचित कहि सब लोग पुकारे। रघुपति सयनहिं लखनु नेवारे॥
+
देखहिं हम सो रूप भरि लोचन। कृपा करहु प्रनतारति मोचन॥
<br>दो०-लखन उतर आहुति सरिस भृगुबर कोपु कृसानु।
+
दंपति बचन परम प्रिय लागे। मुदुल बिनीत प्रेम रस पागे॥
<br>बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु॥२७६॥
+
भगत बछल प्रभु कृपानिधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना॥
<br>–*–*–
+
दो0-नील सरोरुह नील मनि नील नीरधर स्याम।
<br>नाथ करहु बालक पर छोहू। सूध दूधमुख करिअ न कोहू॥
+
लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम॥146॥
<br>जौं पै प्रभु प्रभाउ कछु जाना। तौ कि बराबरि करत अयाना॥
+
 
<br>जौं लरिका कछु अचगरि करहीं। गुर पितु मातु मोद मन भरहीं॥
+
सरद मयंक बदन छबि सींवा। चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवा॥
<br>करिअ कृपा सिसु सेवक जानी। तुम्ह सम सील धीर मुनि ग्यानी॥
+
अधर अरुन रद सुंदर नासा। बिधु कर निकर बिनिंदक हासा॥
<br>राम बचन सुनि कछुक जुड़ाने। कहि कछु लखनु बहुरि मुसकाने॥
+
नव अबुंज अंबक छबि नीकी। चितवनि ललित भावँती जी की॥
<br>हँसत देखि नख सिख रिस ब्यापी। राम तोर भ्राता बड़ पापी॥
+
भुकुटि मनोज चाप छबि हारी। तिलक ललाट पटल दुतिकारी॥
<br>गौर सरीर स्याम मन माहीं। कालकूटमुख पयमुख नाहीं॥
+
कुंडल मकर मुकुट सिर भ्राजा। कुटिल केस जनु मधुप समाजा॥
<br>सहज टेढ़ अनुहरइ न तोही। नीचु मीचु सम देख न मौहीं॥
+
उर श्रीबत्स रुचिर बनमाला। पदिक हार भूषन मनिजाला॥
<br>दो०-लखन कहेउ हँसि सुनहु मुनि क्रोधु पाप कर मूल।
+
केहरि कंधर चारु जनेउ। बाहु बिभूषन सुंदर तेऊ॥
<br>जेहि बस जन अनुचित करहिं चरहिं बिस्व प्रतिकूल॥२७७॥
+
करि कर सरि सुभग भुजदंडा। कटि निषंग कर सर कोदंडा॥
<br>–*–*–
+
दो0-तडित बिनिंदक पीत पट उदर रेख बर तीनि॥
<br>मैं तुम्हार अनुचर मुनिराया। परिहरि कोपु करिअ अब दाया॥
+
नाभि मनोहर लेति जनु जमुन भवँर छबि छीनि॥147॥
<br>टूट चाप नहिं जुरहि रिसाने। बैठिअ होइहिं पाय पिराने॥
+
 
<br>जौ अति प्रिय तौ करिअ उपाई। जोरिअ कोउ बड़ गुनी बोलाई॥
+
पद राजीव बरनि नहि जाहीं। मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह माहीं॥
<br>बोलत लखनहिं जनकु डेराहीं। मष्ट करहु अनुचित भल नाहीं॥
+
बाम भाग सोभति अनुकूला। आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला॥
<br>थर थर कापहिं पुर नर नारी। छोट कुमार खोट बड़ भारी॥
+
जासु अंस उपजहिं गुनखानी। अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी॥
<br>भृगुपति सुनि सुनि निरभय बानी। रिस तन जरइ होइ बल हानी॥
+
भृकुटि बिलास जासु जग होई। राम बाम दिसि सीता सोई॥
<br>बोले रामहि देइ निहोरा। बचउँ बिचारि बंधु लघु तोरा॥
+
छबिसमुद्र हरि रूप बिलोकी। एकटक रहे नयन पट रोकी॥
<br>मनु मलीन तनु सुंदर कैसें। बिष रस भरा कनक घटु जैसैं॥
+
चितवहिं सादर रूप अनूपा। तृप्ति न मानहिं मनु सतरूपा॥
<br>दो०- सुनि लछिमन बिहसे बहुरि नयन तरेरे राम।
+
हरष बिबस तन दसा भुलानी। परे दंड इव गहि पद पानी॥
<br>गुर समीप गवने सकुचि परिहरि बानी बाम॥२७८॥
+
सिर परसे प्रभु निज कर कंजा। तुरत उठाए करुनापुंजा॥
<br>–*–*–
+
दो0-बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहि जानि।
<br>अति बिनीत मृदु सीतल बानी। बोले रामु जोरि जुग पानी॥
+
मागहु बर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि॥148॥
<br>सुनहु नाथ तुम्ह सहज सुजाना। बालक बचनु करिअ नहिं काना॥
+
 
<br>बररै बालक एकु सुभाऊ। इन्हहि न संत बिदूषहिं काऊ॥
+
सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी। धरि धीरजु बोली मृदु बानी॥
<br>तेहिं नाहीं कछु काज बिगारा। अपराधी में नाथ तुम्हारा॥
+
नाथ देखि पद कमल तुम्हारे। अब पूरे सब काम हमारे॥
<br>कृपा कोपु बधु बँधब गोसाईं। मो पर करिअ दास की नाई॥
+
एक लालसा बड़ि उर माही। सुगम अगम कहि जात सो नाहीं॥
<br>कहिअ बेगि जेहि बिधि रिस जाई। मुनिनायक सोइ करौं उपाई॥
+
तुम्हहि देत अति सुगम गोसाईं। अगम लाग मोहि निज कृपनाईं॥
<br>कह मुनि राम जाइ रिस कैसें। अजहुँ अनुज तव चितव अनैसें॥
+
जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई। बहु संपति मागत सकुचाई॥
<br>एहि के कंठ कुठारु न दीन्हा। तौ मैं काह कोपु करि कीन्हा॥
+
तासु प्रभा जान नहिं सोई। तथा हृदयँ मम संसय होई॥
<br>दो०-गर्भ स्त्रवहिं अवनिप रवनि सुनि कुठार गति घोर।
+
सो तुम्ह जानहु अंतरजामी। पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी॥
<br>परसु अछत देखउँ जिअत बैरी भूपकिसोर॥२७९॥
+
सकुच बिहाइ मागु नृप मोहि। मोरें नहिं अदेय कछु तोही॥
<br>–*–*–
+
दो0-दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ॥
<br>बहइ न हाथु दहइ रिस छाती। भा कुठारु कुंठित नृपघाती॥
+
चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ॥149॥
<br>भयउ बाम बिधि फिरेउ सुभाऊ। मोरे हृदयँ कृपा कसि काऊ॥
+
 
<br>आजु दया दुखु दुसह सहावा। सुनि सौमित्र बिहसि सिरु नावा॥
+
देखि प्रीति सुनि बचन अमोले। एवमस्तु करुनानिधि बोले॥
<br>बाउ कृपा मूरति अनुकूला। बोलत बचन झरत जनु फूला॥
+
आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होब मैं आई॥
<br>जौं पै कृपाँ जरिहिं मुनि गाता। क्रोध भएँ तनु राख बिधाता॥
+
सतरूपहि बिलोकि कर जोरें। देबि मागु बरु जो रुचि तोरे॥
<br>देखु जनक हठि बालक एहू। कीन्ह चहत जड़ जमपुर गेहू॥
+
जो बरु नाथ चतुर नृप मागा। सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा॥
<br>बेगि करहु किन आँखिन्ह ओटा। देखत छोट खोट नृप ढोटा॥
+
प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई। जदपि भगत हित तुम्हहि सोहाई॥
<br>बिहसे लखनु कहा मन माहीं। मूदें आँखि कतहुँ कोउ नाहीं॥
+
तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी। ब्रह्म सकल उर अंतरजामी॥
<br>दो०-परसुरामु तब राम प्रति बोले उर अति क्रोधु।
+
अस समुझत मन संसय होई। कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई॥
<br>संभु सरासनु तोरि सठ करसि हमार प्रबोधु॥२८०॥
+
जे निज भगत नाथ तव अहहीं। जो सुख पावहिं जो गति लहहीं॥
<br>–*–*–
+
दो0-सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोइ निज चरन सनेहु॥
<br>बंधु कहइ कटु संमत तोरें। तू छल बिनय करसि कर जोरें॥
+
सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु॥150॥
<br>करु परितोषु मोर संग्रामा। नाहिं त छाड़ कहाउब रामा॥
+
</poem>
<br>छलु तजि करहि समरु सिवद्रोही। बंधु सहित न त मारउँ तोही॥
+
<br>भृगुपति बकहिं कुठार उठाएँ। मन मुसकाहिं रामु सिर नाएँ॥
+
<br>गुनह लखन कर हम पर रोषू। कतहुँ सुधाइहु ते बड़ दोषू॥
+
<br>टेढ़ जानि सब बंदइ काहू। बक्र चंद्रमहि ग्रसइ न राहू॥
+
<br>राम कहेउ रिस तजिअ मुनीसा। कर कुठारु आगें यह सीसा॥
+
<br>जेंहिं रिस जाइ करिअ सोइ स्वामी। मोहि जानि आपन अनुगामी॥
+
<br>दो०-प्रभुहि सेवकहि समरु कस तजहु बिप्रबर रोसु।
+
<br>बेषु बिलोकें कहेसि कछु बालकहू नहिं दोसु॥२८१॥
+
<br>–*–*–
+
<br>देखि कुठार बान धनु धारी। भै लरिकहि रिस बीरु बिचारी॥
+
<br>नामु जान पै तुम्हहि चीन्हा। बंस सुभायँ उतरु तेंहिं दीन्हा॥
+
<br>जौं तुम्ह औतेहु मुनि की नाईं। पद रज सिर सिसु धरत गोसाईं॥
+
<br>छमहु चूक अनजानत केरी। चहिअ बिप्र उर कृपा घनेरी॥
+
<br>हमहि तुम्हहि सरिबरि कसि नाथा॥कहहु न कहाँ चरन कहँ माथा॥
+
<br>राम मात्र लघु नाम हमारा। परसु सहित बड़ नाम तोहारा॥
+
<br>देव एकु गुनु धनुष हमारें। नव गुन परम पुनीत तुम्हारें॥
+
<br>सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे। छमहु बिप्र अपराध हमारे॥
+
<br>दो०-बार बार मुनि बिप्रबर कहा राम सन राम।
+
<br>बोले भृगुपति सरुष हसि तहूँ बंधु सम बाम॥२८२॥
+
<br>–*–*–
+
<br>निपटहिं द्विज करि जानहि मोही। मैं जस बिप्र सुनावउँ तोही॥
+
<br>चाप स्त्रुवा सर आहुति जानू। कोप मोर अति घोर कृसानु॥
+
<br>समिधि सेन चतुरंग सुहाई। महा महीप भए पसु आई॥
+
<br>मै एहि परसु काटि बलि दीन्हे। समर जग्य जप कोटिन्ह कीन्हे॥
+
<br>मोर प्रभाउ बिदित नहिं तोरें। बोलसि निदरि बिप्र के भोरें॥
+
<br>भंजेउ चापु दापु बड़ बाढ़ा। अहमिति मनहुँ जीति जगु ठाढ़ा॥
+
<br>राम कहा मुनि कहहु बिचारी। रिस अति बड़ि लघु चूक हमारी॥
+
<br>छुअतहिं टूट पिनाक पुराना। मैं कहि हेतु करौं अभिमाना॥
+
<br>दो०-जौं हम निदरहिं बिप्र बदि सत्य सुनहु भृगुनाथ।
+
<br>तौ अस को जग सुभटु जेहि भय बस नावहिं माथ॥२८३॥
+
<br>–*–*–
+
<br>देव दनुज भूपति भट नाना। समबल अधिक होउ बलवाना॥
+
<br>जौं रन हमहि पचारै कोऊ। लरहिं सुखेन कालु किन होऊ॥
+
<br>छत्रिय तनु धरि समर सकाना। कुल कलंकु तेहिं पावँर आना॥
+
<br>कहउँ सुभाउ न कुलहि प्रसंसी। कालहु डरहिं न रन रघुबंसी॥
+
<br>बिप्रबंस कै असि प्रभुताई। अभय होइ जो तुम्हहि डेराई॥
+
<br>सुनु मृदु गूढ़ बचन रघुपति के। उघरे पटल परसुधर मति के॥
+
<br>राम रमापति कर धनु लेहू। खैंचहु मिटै मोर संदेहू॥
+
<br>देत चापु आपुहिं चलि गयऊ। परसुराम मन बिसमय भयऊ॥
+
<br>दो०-जाना राम प्रभाउ तब पुलक प्रफुल्लित गात।
+
<br>जोरि पानि बोले बचन ह्दयँ न प्रेमु अमात॥२८४॥
+
<br>–*–*–
+
<br>जय रघुबंस बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृसानु॥
+
<br>जय सुर बिप्र धेनु हितकारी। जय मद मोह कोह भ्रम हारी॥
+
<br>बिनय सील करुना गुन सागर। जयति बचन रचना अति नागर॥
+
<br>सेवक सुखद सुभग सब अंगा। जय सरीर छबि कोटि अनंगा॥
+
<br>करौं काह मुख एक प्रसंसा। जय महेस मन मानस हंसा॥
+
<br>अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता। छमहु छमामंदिर दोउ भ्राता॥
+
<br>कहि जय जय जय रघुकुलकेतू। भृगुपति गए बनहि तप हेतू॥
+
<br>अपभयँ कुटिल महीप डेराने। जहँ तहँ कायर गवँहिं पराने॥
+
<br>दो०-देवन्ह दीन्हीं दुंदुभीं प्रभु पर बरषहिं फूल।
+
<br>हरषे पुर नर नारि सब मिटी मोहमय सूल॥२८५॥
+
<br>–*–*–
+
<br>अति गहगहे बाजने बाजे। सबहिं मनोहर मंगल साजे॥
+
<br>जूथ जूथ मिलि सुमुख सुनयनीं। करहिं गान कल कोकिलबयनी॥
+
<br>सुखु बिदेह कर बरनि न जाई। जन्मदरिद्र मनहुँ निधि पाई॥
+
<br>गत त्रास भइ सीय सुखारी। जनु बिधु उदयँ चकोरकुमारी॥
+
<br>जनक कीन्ह कौसिकहि प्रनामा। प्रभु प्रसाद धनु भंजेउ रामा॥
+
<br>मोहि कृतकृत्य कीन्ह दुहुँ भाईं। अब जो उचित सो कहिअ गोसाई॥
+
<br>कह मुनि सुनु नरनाथ प्रबीना। रहा बिबाहु चाप आधीना॥
+
<br>टूटतहीं धनु भयउ बिबाहू। सुर नर नाग बिदित सब काहु॥
+
<br>दो०-तदपि जाइ तुम्ह करहु अब जथा बंस ब्यवहारु।
+
<br>बूझि बिप्र कुलबृद्ध गुर बेद बिदित आचारु॥२८६॥
+
<br>–*–*–
+
<br>दूत अवधपुर पठवहु जाई। आनहिं नृप दसरथहि बोलाई॥
+
<br>मुदित राउ कहि भलेहिं कृपाला। पठए दूत बोलि तेहि काला॥
+
<br>बहुरि महाजन सकल बोलाए। आइ सबन्हि सादर सिर नाए॥
+
<br>हाट बाट मंदिर सुरबासा। नगरु सँवारहु चारिहुँ पासा॥
+
<br>हरषि चले निज निज गृह आए। पुनि परिचारक बोलि पठाए॥
+
<br>रचहु बिचित्र बितान बनाई। सिर धरि बचन चले सचु पाई॥
+
<br>पठए बोलि गुनी तिन्ह नाना। जे बितान बिधि कुसल सुजाना॥
+
<br>बिधिहि बंदि तिन्ह कीन्ह अरंभा। बिरचे कनक कदलि के खंभा॥
+
<br>दो०-हरित मनिन्ह के पत्र फल पदुमराग के फूल।
+
<br>रचना देखि बिचित्र अति मनु बिरंचि कर भूल॥२८७॥
+
<br>–*–*–
+
<br>बेनि हरित मनिमय सब कीन्हे। सरल सपरब परहिं नहिं चीन्हे॥
+
<br>कनक कलित अहिबेल बनाई। लखि नहि परइ सपरन सुहाई॥
+
<br>तेहि के रचि पचि बंध बनाए। बिच बिच मुकता दाम सुहाए॥
+
<br>मानिक मरकत कुलिस पिरोजा। चीरि कोरि पचि रचे सरोजा॥
+
<br>किए भृंग बहुरंग बिहंगा। गुंजहिं कूजहिं पवन प्रसंगा॥
+
<br>सुर प्रतिमा खंभन गढ़ी काढ़ी। मंगल द्रब्य लिएँ सब ठाढ़ी॥
+
<br>चौंकें भाँति अनेक पुराईं। सिंधुर मनिमय सहज सुहाई॥
+
<br>दो०-सौरभ पल्लव सुभग सुठि किए नीलमनि कोरि॥
+
<br>हेम बौर मरकत घवरि लसत पाटमय डोरि॥२८८॥
+
<br>–*–*–
+
<br>रचे रुचिर बर बंदनिबारे। मनहुँ मनोभवँ फंद सँवारे॥
+
<br>मंगल कलस अनेक बनाए। ध्वज पताक पट चमर सुहाए॥
+
<br>दीप मनोहर मनिमय नाना। जाइ बरनि बिचित्र बिताना॥
+
<br>जेहिं मंडप दुलहिनि बैदेही। सो बरनै असि मति कबि केही॥
+
<br>दूलहु रामु रूप गुन सागर। सो बितानु तिहुँ लोक उजागर॥
+
<br>जनक भवन कै सौभा जैसी। गृह गृह प्रति पुर देखिअ तैसी॥
+
<br>जेहिं तेरहुति तेहि समय निहारी। तेहि लघु लगहिं भुवन दस चारी॥
+
<br>जो संपदा नीच गृह सोहा। सो बिलोकि सुरनायक मोहा॥
+
<br>दो०-बसइ नगर जेहि लच्छ करि कपट नारि बर बेषु॥
+
<br>तेहि पुर कै सोभा कहत सकुचहिं सारद सेषु॥२८९॥
+
<br>–*–*–
+
<br>पहुँचे दूत राम पुर पावन। हरषे नगर बिलोकि सुहावन॥
+
<br>भूप द्वार तिन्ह खबरि जनाई। दसरथ नृप सुनि लिए बोलाई॥
+
<br>करि प्रनामु तिन्ह पाती दीन्ही। मुदित महीप आपु उठि लीन्ही॥
+
<br>बारि बिलोचन बाचत पाँती। पुलक गात आई भरि छाती॥
+
<br>रामु लखनु उर कर बर चीठी। रहि गए कहत न खाटी मीठी॥
+
<br>पुनि धरि धीर पत्रिका बाँची। हरषी सभा बात सुनि साँची॥
+
<br>खेलत रहे तहाँ सुधि पाई। आए भरतु सहित हित भाई॥
+
<br>पूछत अति सनेहँ सकुचाई। तात कहाँ तें पाती आई॥
+
<br>दो०-कुसल प्रानप्रिय बंधु दोउ अहहिं कहहु केहिं देस।
+
<br>सुनि सनेह साने बचन बाची बहुरि नरेस॥२९०॥
+
<br>–*–*–
+
<br>सुनि पाती पुलके दोउ भ्राता। अधिक सनेहु समात न गाता॥
+
<br>प्रीति पुनीत भरत कै देखी। सकल सभाँ सुखु लहेउ बिसेषी॥
+
<br>तब नृप दूत निकट बैठारे। मधुर मनोहर बचन उचारे॥
+
<br>भैया कहहु कुसल दोउ बारे। तुम्ह नीकें निज नयन निहारे॥
+
<br>स्यामल गौर धरें धनु भाथा। बय किसोर कौसिक मुनि साथा॥
+
<br>पहिचानहु तुम्ह कहहु सुभाऊ। प्रेम बिबस पुनि पुनि कह राऊ॥
+
<br>जा दिन तें मुनि गए लवाई। तब तें आजु साँचि सुधि पाई॥
+
<br>कहहु बिदेह कवन बिधि जाने। सुनि प्रिय बचन दूत मुसकाने॥
+
<br>दो०-सुनहु महीपति मुकुट मनि तुम्ह सम धन्य कोउ।
+
<br>रामु लखनु जिन्ह के तनय बिस्व बिभूषन दोउ॥२९१॥
+
<br>–*–*–
+
<br>पूछन जोगु न तनय तुम्हारे। पुरुषसिंघ तिहु पुर उजिआरे॥
+
<br>जिन्ह के जस प्रताप कें आगे। ससि मलीन रबि सीतल लागे॥
+
<br>तिन्ह कहँ कहिअ नाथ किमि चीन्हे। देखिअ रबि कि दीप कर लीन्हे॥
+
<br>सीय स्वयंबर भूप अनेका। समिटे सुभट एक तें एका॥
+
<br>संभु सरासनु काहुँ न टारा। हारे सकल बीर बरिआरा॥
+
<br>तीनि लोक महँ जे भटमानी। सभ कै सकति संभु धनु भानी॥
+
<br>सकइ उठाइ सरासुर मेरू। सोउ हियँ हारि गयउ करि फेरू॥
+
<br>जेहि कौतुक सिवसैलु उठावा। सोउ तेहि सभाँ पराभउ पावा॥
+
<br>दो०-तहाँ राम रघुबंस मनि सुनिअ महा महिपाल।
+
<br>भंजेउ चाप प्रयास बिनु जिमि गज पंकज नाल॥२९२॥
+
<br>–*–*–
+
<br>सुनि सरोष भृगुनायकु आए। बहुत भाँति तिन्ह आँखि देखाए॥
+
<br>देखि राम बलु निज धनु दीन्हा। करि बहु बिनय गवनु बन कीन्हा॥
+
<br>राजन रामु अतुलबल जैसें। तेज निधान लखनु पुनि तैसें॥
+
<br>कंपहि भूप बिलोकत जाकें। जिमि गज हरि किसोर के ताकें॥
+
<br>देव देखि तव बालक दोऊ। अब न आँखि तर आवत कोऊ॥
+
<br>दूत बचन रचना प्रिय लागी। प्रेम प्रताप बीर रस पागी॥
+
<br>सभा समेत राउ अनुरागे। दूतन्ह देन निछावरि लागे॥
+
<br>कहि अनीति ते मूदहिं काना। धरमु बिचारि सबहिं सुख माना॥
+
<br>दो०-तब उठि भूप बसिष्ठ कहुँ दीन्हि पत्रिका जाइ।
+
<br>कथा सुनाई गुरहि सब सादर दूत बोलाइ॥२९३॥
+
<br>–*–*–
+
<br>सुनि बोले गुर अति सुखु पाई। पुन्य पुरुष कहुँ महि सुख छाई॥
+
<br>जिमि सरिता सागर महुँ जाहीं। जद्यपि ताहि कामना नाहीं॥
+
<br>तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाएँ। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ॥
+
<br>तुम्ह गुर बिप्र धेनु सुर सेबी। तसि पुनीत कौसल्या देबी॥
+
<br>सुकृती तुम्ह समान जग माहीं। भयउ न है कोउ होनेउ नाहीं॥
+
<br>तुम्ह ते अधिक पुन्य बड़ काकें। राजन राम सरिस सुत जाकें॥
+
<br>बीर बिनीत धरम ब्रत धारी। गुन सागर बर बालक चारी॥
+
<br>तुम्ह कहुँ सर्ब काल कल्याना। सजहु बरात बजाइ निसाना॥
+
<br>दो०-चलहु बेगि सुनि गुर बचन भलेहिं नाथ सिरु नाइ।
+
<br>भूपति गवने भवन तब दूतन्ह बासु देवाइ॥२९४॥
+
<br>–*–*–
+
<br>राजा सबु रनिवास बोलाई। जनक पत्रिका बाचि सुनाई॥
+
<br>सुनि संदेसु सकल हरषानीं। अपर कथा सब भूप बखानीं॥
+
<br>प्रेम प्रफुल्लित राजहिं रानी। मनहुँ सिखिनि सुनि बारिद बनी॥
+
<br>मुदित असीस देहिं गुरु नारीं। अति आनंद मगन महतारीं॥
+
<br>लेहिं परस्पर अति प्रिय पाती। हृदयँ लगाइ जुड़ावहिं छाती॥
+
<br>राम लखन कै कीरति करनी। बारहिं बार भूपबर बरनी॥
+
<br>मुनि प्रसादु कहि द्वार सिधाए। रानिन्ह तब महिदेव बोलाए॥
+
<br>दिए दान आनंद समेता। चले बिप्रबर आसिष देता॥
+
<br>सो०-जाचक लिए हँकारि दीन्हि निछावरि कोटि बिधि।
+
<br>चिरु जीवहुँ सुत चारि चक्रबर्ति दसरत्थ के॥२९५॥
+
<br>कहत चले पहिरें पट नाना। हरषि हने गहगहे निसाना॥
+
<br>समाचार सब लोगन्ह पाए। लागे घर घर होने बधाए॥
+
<br>भुवन चारि दस भरा उछाहू। जनकसुता रघुबीर बिआहू॥
+
<br>सुनि सुभ कथा लोग अनुरागे। मग गृह गलीं सँवारन लागे॥
+
<br>जद्यपि अवध सदैव सुहावनि। राम पुरी मंगलमय पावनि॥
+
<br>तदपि प्रीति कै प्रीति सुहाई। मंगल रचना रची बनाई॥
+
<br>ध्वज पताक पट चामर चारु। छावा परम बिचित्र बजारू॥
+
<br>कनक कलस तोरन मनि जाला। हरद दूब दधि अच्छत माला॥
+
<br>दो०-मंगलमय निज निज भवन लोगन्ह रचे बनाइ।
+
<br>बीथीं सीचीं चतुरसम चौकें चारु पुराइ॥२९६॥
+
<br>–*–*–
+
<br>जहँ तहँ जूथ जूथ मिलि भामिनि। सजि नव सप्त सकल दुति दामिनि॥
+
<br>बिधुबदनीं मृग सावक लोचनि। निज सरुप रति मानु बिमोचनि॥
+
<br>गावहिं मंगल मंजुल बानीं। सुनिकल रव कलकंठि लजानीं॥
+
<br>भूप भवन किमि जाइ बखाना। बिस्व बिमोहन रचेउ बिताना॥
+
<br>मंगल द्रब्य मनोहर नाना। राजत बाजत बिपुल निसाना॥
+
<br>कतहुँ बिरिद बंदी उच्चरहीं। कतहुँ बेद धुनि भूसुर करहीं॥
+
<br>गावहिं सुंदरि मंगल गीता। लै लै नामु रामु अरु सीता॥
+
<br>बहुत उछाहु भवनु अति थोरा। मानहुँ उमगि चला चहु ओरा॥
+
<br>दो०-सोभा दसरथ भवन कइ को कबि बरनै पार।
+
<br>जहाँ सकल सुर सीस मनि राम लीन्ह अवतार॥२९७॥
+
<br>–*–*–
+
<br>भूप भरत पुनि लिए बोलाई। हय गय स्यंदन साजहु जाई॥
+
<br>चलहु बेगि रघुबीर बराता। सुनत पुलक पूरे दोउ भ्राता॥
+
<br>भरत सकल साहनी बोलाए। आयसु दीन्ह मुदित उठि धाए॥
+
<br>रचि रुचि जीन तुरग तिन्ह साजे। बरन बरन बर बाजि बिराजे॥
+
<br>सुभग सकल सुठि चंचल करनी। अय इव जरत धरत पग धरनी॥
+
<br>नाना जाति न जाहिं बखाने। निदरि पवनु जनु चहत उड़ाने॥
+
<br>तिन्ह सब छयल भए असवारा। भरत सरिस बय राजकुमारा॥
+
<br>सब सुंदर सब भूषनधारी। कर सर चाप तून कटि भारी॥
+
<br>दो०- छरे छबीले छयल सब सूर सुजान नबीन।
+
<br>जुग पदचर असवार प्रति जे असिकला प्रबीन॥२९८॥
+
<br>–*–*–
+
<br>बाँधे बिरद बीर रन गाढ़े। निकसि भए पुर बाहेर ठाढ़े॥
+
<br>फेरहिं चतुर तुरग गति नाना। हरषहिं सुनि सुनि पवन निसाना॥
+
<br>रथ सारथिन्ह बिचित्र बनाए। ध्वज पताक मनि भूषन लाए॥
+
<br>चवँर चारु किंकिन धुनि करही। भानु जान सोभा अपहरहीं॥
+
<br>सावँकरन अगनित हय होते। ते तिन्ह रथन्ह सारथिन्ह जोते॥
+
<br>सुंदर सकल अलंकृत सोहे। जिन्हहि बिलोकत मुनि मन मोहे॥
+
<br>जे जल चलहिं थलहि की नाई। टाप बूड़ बेग अधिकाई॥
+
<br>अस्त्र सस्त्र सबु साजु बनाई। रथी सारथिन्ह लिए बोलाई॥
+
<br>दो०-चढ़ि चढ़ि रथ बाहेर नगर लागी जुरन बरात।
+
<br>होत सगुन सुन्दर सबहि जो जेहि कारज जात॥२९९॥
+
<br>–*–*–
+
<br>कलित करिबरन्हि परीं अँबारीं। कहि न जाहिं जेहि भाँति सँवारीं॥
+
<br>चले मत्तगज घंट बिराजी। मनहुँ सुभग सावन घन राजी॥
+
<br>बाहन अपर अनेक बिधाना। सिबिका सुभग सुखासन जाना॥
+
<br>तिन्ह चढ़ि चले बिप्रबर बृन्दा। जनु तनु धरें सकल श्रुति छंदा॥
+
<br>मागध सूत बंदि गुनगायक। चले जान चढ़ि जो जेहि लायक॥
+
<br>बेसर ऊँट बृषभ बहु जाती। चले बस्तु भरि अगनित भाँती॥
+
<br>कोटिन्ह काँवरि चले कहारा। बिबिध बस्तु को बरनै पारा॥
+
<br>चले सकल सेवक समुदाई। निज निज साजु समाजु बनाई॥
+
<br>दो०-सब कें उर निर्भर हरषु पूरित पुलक सरीर।
+
<br>कबहिं देखिबे नयन भरि रामु लखनू दोउ बीर॥३००॥
+
<br>–*–*–
+
<br>गरजहिं गज घंटा धुनि घोरा। रथ रव बाजि हिंस चहु ओरा॥
+
<br>निदरि घनहि घुर्म्मरहिं निसाना। निज पराइ कछु सुनिअ काना॥
+
<br>महा भीर भूपति के द्वारें। रज होइ जाइ पषान पबारें॥
+
<br>चढ़ी अटारिन्ह देखहिं नारीं। लिँएँ आरती मंगल थारी॥
+
<br>गावहिं गीत मनोहर नाना। अति आनंदु न जाइ बखाना॥
+
<br>तब सुमंत्र दुइ स्पंदन साजी। जोते रबि हय निंदक बाजी॥
+
<br>दोउ रथ रुचिर भूप पहिं आने। नहिं सारद पहिं जाहिं बखाने॥
+
<br>राज समाजु एक रथ साजा। दूसर तेज पुंज अति भ्राजा॥
+
<br>दो०-तेहिं रथ रुचिर बसिष्ठ कहुँ हरषि चढ़ाइ नरेसु।
+
<br>आपु चढ़ेउ स्पंदन सुमिरि हर गुर गौरि गनेसु॥३०१॥
+
<br>–*–*–
+
<br>सहित बसिष्ठ सोह नृप कैसें। सुर गुर संग पुरंदर जैसें॥
+
<br>करि कुल रीति बेद बिधि राऊ। देखि सबहि सब भाँति बनाऊ॥
+
<br>सुमिरि रामु गुर आयसु पाई। चले महीपति संख बजाई॥
+
<br>हरषे बिबुध बिलोकि बराता। बरषहिं सुमन सुमंगल दाता॥
+
<br>भयउ कोलाहल हय गय गाजे। ब्योम बरात बाजने बाजे॥
+
<br>सुर नर नारि सुमंगल गाई। सरस राग बाजहिं सहनाई॥
+
<br>घंट घंटि धुनि बरनि जाहीं। सरव करहिं पाइक फहराहीं॥
+
<br>करहिं बिदूषक कौतुक नाना। हास कुसल कल गान सुजाना ।
+
<br>दो०-तुरग नचावहिं कुँअर बर अकनि मृदंग निसान॥
+
<br>नागर नट चितवहिं चकित डगहिं न ताल बँधान॥३०२॥
+
<br>–*–*–
+
<br>बनइ न बरनत बनी बराता। होहिं सगुन सुंदर सुभदाता॥
+
<br>चारा चाषु बाम दिसि लेई। मनहुँ सकल मंगल कहि देई॥
+
<br>दाहिन काग सुखेत सुहावा। नकुल दरसु सब काहूँ पावा॥
+
<br>सानुकूल बह त्रिबिध बयारी। सघट सवाल आव बर नारी॥
+
<br>लोवा फिरि फिरि दरसु देखावा। सुरभी सनमुख सिसुहि पिआवा॥
+
<br>मृगमाला फिरि दाहिनि आई। मंगल गन जनु दीन्हि देखाई॥
+
<br>छेमकरी कह छेम बिसेषी। स्यामा बाम सुतरु पर देखी॥
+
<br>सनमुख आयउ दधि अरु मीना। कर पुस्तक दुइ बिप्र प्रबीना॥
+
<br>दो०-मंगलमय कल्यानमय अभिमत फल दातार।
+
<br>जनु सब साचे होन हित भए सगुन एक बार॥३०३॥
+
<br>–*–*–
+
<br>मंगल सगुन सुगम सब ताकें। सगुन ब्रह्म सुंदर सुत जाकें॥
+
<br>राम सरिस बरु दुलहिनि सीता। समधी दसरथु जनकु पुनीता॥
+
<br>सुनि अस ब्याहु सगुन सब नाचे। अब कीन्हे बिरंचि हम साँचे॥
+
<br>एहि बिधि कीन्ह बरात पयाना। हय गय गाजहिं हने निसाना॥
+
<br>आवत जानि भानुकुल केतू। सरितन्हि जनक बँधाए सेतू॥
+
<br>बीच बीच बर बास बनाए। सुरपुर सरिस संपदा छाए॥
+
<br>असन सयन बर बसन सुहाए। पावहिं सब निज निज मन भाए॥
+
<br>नित नूतन सुख लखि अनुकूले। सकल बरातिन्ह मंदिर भूले॥
+
<br>दो०-आवत जानि बरात बर सुनि गहगहे निसान।
+
<br>सजि गज रथ पदचर तुरग लेन चले अगवान॥३०४॥
+
<br>मासपारायण,दसवाँ विश्राम
+
<br>–*–*–
+
<br>कनक कलस भरि कोपर थारा। भाजन ललित अनेक प्रकारा॥
+
<br>भरे सुधासम सब पकवाने। नाना भाँति न जाहिं बखाने॥
+
<br>फल अनेक बर बस्तु सुहाईं। हरषि भेंट हित भूप पठाईं॥
+
<br>भूषन बसन महामनि नाना। खग मृग हय गय बहुबिधि जाना॥
+
<br>मंगल सगुन सुगंध सुहाए। बहुत भाँति महिपाल पठाए॥
+
<br>दधि चिउरा उपहार अपारा। भरि भरि काँवरि चले कहारा॥
+
<br>अगवानन्ह जब दीखि बराता।उर आनंदु पुलक भर गाता॥
+
<br>देखि बनाव सहित अगवाना। मुदित बरातिन्ह हने निसाना॥
+
<br>दो०-हरषि परसपर मिलन हित कछुक चले बगमेल।
+
<br>जनु आनंद समुद्र दुइ मिलत बिहाइ सुबेल॥३०५॥
+
<br>–*–*–
+
<br>बरषि सुमन सुर सुंदरि गावहिं। मुदित देव दुंदुभीं बजावहिं॥
+
<br>बस्तु सकल राखीं नृप आगें। बिनय कीन्ह तिन्ह अति अनुरागें॥
+
<br>प्रेम समेत रायँ सबु लीन्हा। भै बकसीस जाचकन्हि दीन्हा॥
+
<br>करि पूजा मान्यता बड़ाई। जनवासे कहुँ चले लवाई॥
+
<br>बसन बिचित्र पाँवड़े परहीं। देखि धनहु धन मदु परिहरहीं॥
+
<br>अति सुंदर दीन्हेउ जनवासा। जहँ सब कहुँ सब भाँति सुपासा॥
+
<br>जानी सियँ बरात पुर आई। कछु निज महिमा प्रगटि जनाई॥
+
<br>हृदयँ सुमिरि सब सिद्धि बोलाई। भूप पहुनई करन पठाई॥
+
<br>दो०-सिधि सब सिय आयसु अकनि गईं जहाँ जनवास।
+
<br>लिएँ संपदा सकल सुख सुरपुर भोग बिलास॥३०६॥
+
<br>–*–*–
+
<br>निज निज बास बिलोकि बराती। सुर सुख सकल सुलभ सब भाँती॥
+
<br>बिभव भेद कछु कोउ न जाना। सकल जनक कर करहिं बखाना॥
+
<br>सिय महिमा रघुनायक जानी। हरषे हृदयँ हेतु पहिचानी॥
+
<br>पितु आगमनु सुनत दोउ भाई। हृदयँ न अति आनंदु अमाई॥
+
<br>सकुचन्ह कहि सकत गुरु पाहीं। पितु दरसन लालचु मन माहीं॥
+
<br>बिस्वामित्र बिनय बड़ि देखी। उपजा उर संतोषु बिसेषी॥
+
<br>हरषि बंधु दोउ हृदयँ लगाए। पुलक अंग अंबक जल छाए॥
+
<br>चले जहाँ दसरथु जनवासे। मनहुँ सरोबर तकेउ पिआसे॥
+
<br>दो०- भूप बिलोके जबहिं मुनि आवत सुतन्ह समेत।
+
<br>उठे हरषि सुखसिंधु महुँ चले थाह सी लेत॥३०७॥
+
<br>–*–*–
+
<br>मुनिहि दंडवत कीन्ह महीसा। बार बार पद रज धरि सीसा॥
+
<br>कौसिक राउ लिये उर लाई। कहि असीस पूछी कुसलाई॥
+
<br>पुनि दंडवत करत दोउ भाई। देखि नृपति उर सुखु न समाई॥
+
<br>सुत हियँ लाइ दुसह दुख मेटे। मृतक सरीर प्रान जनु भेंटे॥
+
<br>पुनि बसिष्ठ पद सिर तिन्ह नाए। प्रेम मुदित मुनिबर उर लाए॥
+
<br>बिप्र बृंद बंदे दुहुँ भाईं। मन भावती असीसें पाईं॥
+
<br>भरत सहानुज कीन्ह प्रनामा। लिए उठाइ लाइ उर रामा॥
+
<br>हरषे लखन देखि दोउ भ्राता। मिले प्रेम परिपूरित गाता॥
+
<br>दो०-पुरजन परिजन जातिजन जाचक मंत्री मीत।
+
<br>मिले जथाबिधि सबहि प्रभु परम कृपाल बिनीत॥३०८॥
+
<br>–*–*–
+
<br>रामहि देखि बरात जुड़ानी। प्रीति कि रीति न जाति बखानी॥
+
<br>नृप समीप सोहहिं सुत चारी। जनु धन धरमादिक तनुधारी॥
+
<br>सुतन्ह समेत दसरथहि देखी। मुदित नगर नर नारि बिसेषी॥
+
<br>सुमन बरिसि सुर हनहिं निसाना। नाकनटीं नाचहिं करि गाना॥
+
<br>सतानंद अरु बिप्र सचिव गन। मागध सूत बिदुष बंदीजन॥
+
<br>सहित बरात राउ सनमाना। आयसु मागि फिरे अगवाना॥
+
<br>प्रथम बरात लगन तें आई। तातें पुर प्रमोदु अधिकाई॥
+
<br>ब्रह्मानंदु लोग सब लहहीं। बढ़हुँ दिवस निसि बिधि सन कहहीं॥
+
<br>दो०-रामु सीय सोभा अवधि सुकृत अवधि दोउ राज।
+
<br>जहँ जहँ पुरजन कहहिं अस मिलि नर नारि समाज॥।३०९॥
+
<br>–*–*–
+
<br>जनक सुकृत मूरति बैदेही। दसरथ सुकृत रामु धरें देही॥
+
<br>इन्ह सम काँहु न सिव अवराधे। काहिँ न इन्ह समान फल लाधे॥
+
<br>इन्ह सम कोउ न भयउ जग माहीं। है नहिं कतहूँ होनेउ नाहीं॥
+
<br>हम सब सकल सुकृत कै रासी। भए जग जनमि जनकपुर बासी॥
+
<br>जिन्ह जानकी राम छबि देखी। को सुकृती हम सरिस बिसेषी॥
+
<br>पुनि देखब रघुबीर बिआहू। लेब भली बिधि लोचन लाहू॥
+
<br>कहहिं परसपर कोकिलबयनीं। एहि बिआहँ बड़ लाभु सुनयनीं॥
+
<br>बड़ें भाग बिधि बात बनाई। नयन अतिथि होइहहिं दोउ भाई॥
+
<br>दो०-बारहिं बार सनेह बस जनक बोलाउब सीय।
+
<br>लेन आइहहिं बंधु दोउ कोटि काम कमनीय॥३१०॥
+
<br>–*–*–
+
<br>बिबिध भाँति होइहि पहुनाई। प्रिय न काहि अस सासुर माई॥
+
<br>तब तब राम लखनहि निहारी। होइहहिं सब पुर लोग सुखारी॥
+
<br>सखि जस राम लखनकर जोटा। तैसेइ भूप संग दुइ ढोटा॥
+
<br>स्याम गौर सब अंग सुहाए। ते सब कहहिं देखि जे आए॥
+
<br>कहा एक मैं आजु निहारे। जनु बिरंचि निज हाथ सँवारे॥
+
<br>भरतु रामही की अनुहारी। सहसा लखि न सकहिं नर नारी॥
+
<br>लखनु सत्रुसूदनु एकरूपा। नख सिख ते सब अंग अनूपा॥
+
<br>मन भावहिं मुख बरनि न जाहीं। उपमा कहुँ त्रिभुवन कोउ नाहीं॥
+
<br>छं०-उपमा न कोउ कह दास तुलसी कतहुँ कबि कोबिद कहैं।
+
<br>बल बिनय बिद्या सील सोभा सिंधु इन्ह से एइ अहैं॥
+
<br>पुर नारि सकल पसारि अंचल बिधिहि बचन सुनावहीं॥
+
<br>ब्याहिअहुँ चारिउ भाइ एहिं पुर हम सुमंगल गावहीं॥
+
<br>सो०-कहहिं परस्पर नारि बारि बिलोचन पुलक तन।
+
<br>सखि सबु करब पुरारि पुन्य पयोनिधि भूप दोउ॥३११॥
+
<br>एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं। आनँद उमगि उमगि उर भरहीं॥
+
<br>जे नृप सीय स्वयंबर आए। देखि बंधु सब तिन्ह सुख पाए॥
+
<br>कहत राम जसु बिसद बिसाला। निज निज भवन गए महिपाला॥
+
<br>गए बीति कुछ दिन एहि भाँती। प्रमुदित पुरजन सकल बराती॥
+
<br>मंगल मूल लगन दिनु आवा। हिम रितु अगहनु मासु सुहावा॥
+
<br>ग्रह तिथि नखतु जोगु बर बारू। लगन सोधि बिधि कीन्ह बिचारू॥
+
<br>पठै दीन्हि नारद सन सोई। गनी जनक के गनकन्ह जोई॥
+
<br>सुनी सकल लोगन्ह यह बाता। कहहिं जोतिषी आहिं बिधाता॥
+
<br>दो०-धेनुधूरि बेला बिमल सकल सुमंगल मूल।
+
<br>बिप्रन्ह कहेउ बिदेह सन जानि सगुन अनुकुल॥३१२॥
+
<br>–*–*–
+
<br>उपरोहितहि कहेउ नरनाहा। अब बिलंब कर कारनु काहा॥
+
<br>सतानंद तब सचिव बोलाए। मंगल सकल साजि सब ल्याए॥
+
<br>संख निसान पनव बहु बाजे। मंगल कलस सगुन सुभ साजे॥
+
<br>सुभग सुआसिनि गावहिं गीता। करहिं बेद धुनि बिप्र पुनीता॥
+
<br>लेन चले सादर एहि भाँती। गए जहाँ जनवास बराती॥
+
<br>कोसलपति कर देखि समाजू। अति लघु लाग तिन्हहि सुरराजू॥
+
<br>भयउ समउ अब धारिअ पाऊ। यह सुनि परा निसानहिं घाऊ॥
+
<br>गुरहि पूछि करि कुल बिधि राजा। चले संग मुनि साधु समाजा॥
+
<br>दो०-भाग्य बिभव अवधेस कर देखि देव ब्रह्मादि।
+
<br>लगे सराहन सहस मुख जानि जनम निज बादि॥३१३॥
+
<br>–*–*–
+
<br>सुरन्ह सुमंगल अवसरु जाना। बरषहिं सुमन बजाइ निसाना॥
+
<br>सिव ब्रह्मादिक बिबुध बरूथा। चढ़े बिमानन्हि नाना जूथा॥
+
<br>प्रेम पुलक तन हृदयँ उछाहू। चले बिलोकन राम बिआहू॥
+
<br>देखि जनकपुरु सुर अनुरागे। निज निज लोक सबहिं लघु लागे॥
+
<br>चितवहिं चकित बिचित्र बिताना। रचना सकल अलौकिक नाना॥
+
<br>नगर नारि नर रूप निधाना। सुघर सुधरम सुसील सुजाना॥
+
<br>तिन्हहि देखि सब सुर सुरनारीं। भए नखत जनु बिधु उजिआरीं॥
+
<br>बिधिहि भयह आचरजु बिसेषी। निज करनी कछु कतहुँ न देखी॥
+
<br>दो०-सिवँ समुझाए देव सब जनि आचरज भुलाहु।
+
<br>हृदयँ बिचारहु धीर धरि सिय रघुबीर बिआहु॥३१४॥
+
<br>–*–*–
+
<br>जिन्ह कर नामु लेत जग माहीं। सकल अमंगल मूल नसाहीं॥
+
<br>करतल होहिं पदारथ चारी। तेइ सिय रामु कहेउ कामारी॥
+
<br>एहि बिधि संभु सुरन्ह समुझावा। पुनि आगें बर बसह चलावा॥
+
<br>देवन्ह देखे दसरथु जाता। महामोद मन पुलकित गाता॥
+
<br>साधु समाज संग महिदेवा। जनु तनु धरें करहिं सुख सेवा॥
+
<br>सोहत साथ सुभग सुत चारी। जनु अपबरग सकल तनुधारी॥
+
<br>मरकत कनक बरन बर जोरी। देखि सुरन्ह भै प्रीति न थोरी॥
+
<br>पुनि रामहि बिलोकि हियँ हरषे। नृपहि सराहि सुमन तिन्ह बरषे॥
+
<br>दो०-राम रूपु नख सिख सुभग बारहिं बार निहारि।
+
<br>पुलक गात लोचन सजल उमा समेत पुरारि॥३१५॥
+
<br>–*–*–
+
<br>केकि कंठ दुति स्यामल अंगा। तड़ित बिनिंदक बसन सुरंगा॥
+
<br>ब्याह बिभूषन बिबिध बनाए। मंगल सब सब भाँति सुहाए॥
+
<br>सरद बिमल बिधु बदनु सुहावन। नयन नवल राजीव लजावन॥
+
<br>सकल अलौकिक सुंदरताई। कहि न जाइ मनहीं मन भाई॥
+
<br>बंधु मनोहर सोहहिं संगा। जात नचावत चपल तुरंगा॥
+
<br>राजकुअँर बर बाजि देखावहिं। बंस प्रसंसक बिरिद सुनावहिं॥
+
<br>जेहि तुरंग पर रामु बिराजे। गति बिलोकि खगनायकु लाजे॥
+
<br>कहि जाइ सब भाँति सुहावा। बाजि बेषु जनु काम बनावा॥
+
<br>छं०-जनु बाजि बेषु बनाइ मनसिजु राम हित अति सोहई।
+
<br>आपनें बय बल रूप गुन गति सकल भुवन बिमोहई॥
+
<br>जगमगत जीनु जराव जोति सुमोति मनि मानिक लगे।
+
<br>किंकिनि ललाम लगामु ललित बिलोकि सुर नर मुनि ठगे॥
+
<br>दो०-प्रभु मनसहिं लयलीन मनु चलत बाजि छबि पाव।
+
<br>भूषित उड़गन तड़ित घनु जनु बर बरहि नचाव॥३१६॥
+
<br>–*–*–
+
<br>जेहिं बर बाजि रामु असवारा। तेहि सारदउ न बरनै पारा॥
+
<br>संकरु राम रूप अनुरागे। नयन पंचदस अति प्रिय लागे॥
+
<br>हरि हित सहित रामु जब जोहे। रमा समेत रमापति मोहे॥
+
<br>निरखि राम छबि बिधि हरषाने। आठइ नयन जानि पछिताने॥
+
<br>सुर सेनप उर बहुत उछाहू। बिधि ते डेवढ़ लोचन लाहू॥
+
<br>रामहि चितव सुरेस सुजाना। गौतम श्रापु परम हित माना॥
+
<br>देव सकल सुरपतिहि सिहाहीं। आजु पुरंदर सम कोउ नाहीं॥
+
<br>मुदित देवगन रामहि देखी। नृपसमाज दुहुँ हरषु बिसेषी॥
+
<br>छं०-अति हरषु राजसमाज दुहु दिसि दुंदुभीं बाजहिं घनी।
+
<br>बरषहिं सुमन सुर हरषि कहि जय जयति जय रघुकुलमनी॥
+
<br>एहि भाँति जानि बरात आवत बाजने बहु बाजहीं।
+
<br>रानि सुआसिनि बोलि परिछनि हेतु मंगल साजहीं॥
+
<br>दो०-सजि आरती अनेक बिधि मंगल सकल सँवारि।
+
<br>चलीं मुदित परिछनि करन गजगामिनि बर नारि॥३१७॥
+
<br>–*–*–
+
<br>बिधुबदनीं सब सब मृगलोचनि। सब निज तन छबि रति मदु मोचनि॥
+
<br>पहिरें बरन बरन बर चीरा। सकल बिभूषन सजें सरीरा॥
+
<br>सकल सुमंगल अंग बनाएँ। करहिं गान कलकंठि लजाएँ॥
+
<br>कंकन किंकिनि नूपुर बाजहिं। चालि बिलोकि काम गज लाजहिं॥
+
<br>बाजहिं बाजने बिबिध प्रकारा। नभ अरु नगर सुमंगलचारा॥
+
<br>सची सारदा रमा भवानी। जे सुरतिय सुचि सहज सयानी॥
+
<br>कपट नारि बर बेष बनाई। मिलीं सकल रनिवासहिं जाई॥
+
<br>करहिं गान कल मंगल बानीं। हरष बिबस सब काहुँ न जानी॥
+
<br>छं०-को जान केहि आनंद बस सब ब्रह्मु बर परिछन चली।
+
<br>कल गान मधुर निसान बरषहिं सुमन सुर सोभा भली॥
+
<br>आनंदकंदु बिलोकि दूलहु सकल हियँ हरषित भई॥
+
<br>अंभोज अंबक अंबु उमगि सुअंग पुलकावलि छई॥
+
<br>दो०-जो सुख भा सिय मातु मन देखि राम बर बेषु।
+
<br>सो सकहिं कहि कलप सत सहस सारदा सेषु॥३१८॥
+
<br>–*–*–
+
<br>
+
<br>नयन नीरु हटि मंगल जानी। परिछनि करहिं मुदित मन रानी॥
+
<br>बेद बिहित अरु कुल आचारू। कीन्ह भली बिधि सब ब्यवहारू॥
+
<br>पंच सबद धुनि मंगल गाना। पट पाँवड़े परहिं बिधि नाना॥
+
<br>करि आरती अरघु तिन्ह दीन्हा। राम गमनु मंडप तब कीन्हा॥
+
<br>दसरथु सहित समाज बिराजे। बिभव बिलोकि लोकपति लाजे॥
+
<br>समयँ समयँ सुर बरषहिं फूला। सांति पढ़हिं महिसुर अनुकूला॥
+
<br>नभ अरु नगर कोलाहल होई। आपनि पर कछु सुनइ कोई॥
+
<br>एहि बिधि रामु मंडपहिं आए। अरघु देइ आसन बैठाए॥
+
<br>छं०-बैठारि आसन आरती करि निरखि बरु सुखु पावहीं॥
+
<br>मनि बसन भूषन भूरि वारहिं नारि मंगल गावहीं॥
+
<br>ब्रह्मादि सुरबर बिप्र बेष बनाइ कौतुक देखहीं।
+
<br>अवलोकि रघुकुल कमल रबि छबि सुफल जीवन लेखहीं॥
+
<br>दो०-नाऊ बारी भाट नट राम निछावरि पाइ।
+
<br>मुदित असीसहिं नाइ सिर हरषु हृदयँ समाइ॥३१९॥
+
<br>–*–*–
+
<br>मिले जनकु दसरथु अति प्रीतीं। करि बैदिक लौकिक सब रीतीं॥
+
<br>मिलत महा दोउ राज बिराजे। उपमा खोजि खोजि कबि लाजे॥
+
<br>लही कतहुँ हारि हियँ मानी। इन्ह सम एइ उपमा उर आनी॥
+
<br>सामध देखि देव अनुरागे। सुमन बरषि जसु गावन लागे॥
+
<br>जगु बिरंचि उपजावा जब तें। देखे सुने ब्याह बहु तब तें॥
+
<br>सकल भाँति सम साजु समाजू। सम समधी देखे हम आजू॥
+
<br>देव गिरा सुनि सुंदर साँची। प्रीति अलौकिक दुहु दिसि माची॥
+
<br>देत पाँवड़े अरघु सुहाए। सादर जनकु मंडपहिं ल्याए॥
+
<br>छं०-मंडपु बिलोकि बिचीत्र रचनाँ रुचिरताँ मुनि मन हरे॥
+
<br>निज पानि जनक सुजान सब कहुँ आनि सिंघासन धरे॥
+
<br>कुल इष्ट सरिस बसिष्ट पूजे बिनय करि आसिष लही।
+
<br>कौसिकहि पूजत परम प्रीति कि रीति तौ न परै कही॥
+
<br>दो०-बामदेव आदिक रिषय पूजे मुदित महीस।
+
<br>दिए दिब्य आसन सबहि सब सन लही असीस॥३२०॥
+
<br>–*–*–
+
<br>बहुरि कीन्ह कोसलपति पूजा। जानि ईस सम भाउ दूजा॥
+
<br>कीन्ह जोरि कर बिनय बड़ाई। कहि निज भाग्य बिभव बहुताई॥
+
<br>पूजे भूपति सकल बराती। समधि सम सादर सब भाँती॥
+
<br>आसन उचित दिए सब काहू। कहौं काह मूख एक उछाहू॥
+
<br>सकल बरात जनक सनमानी। दान मान बिनती बर बानी॥
+
<br>बिधि हरि हरु दिसिपति दिनराऊ। जे जानहिं रघुबीर प्रभाऊ॥
+
<br>कपट बिप्र बर बेष बनाएँ। कौतुक देखहिं अति सचु पाएँ॥
+
<br>पूजे जनक देव सम जानें। दिए सुआसन बिनु पहिचानें॥
+
<br>छं०-पहिचान को केहि जान सबहिं अपान सुधि भोरी भई।
+
<br>आनंद कंदु बिलोकि दूलहु उभय दिसि आनँद मई॥
+
<br>सुर लखे राम सुजान पूजे मानसिक आसन दए।
+
<br>अवलोकि सीलु सुभाउ प्रभु को बिबुध मन प्रमुदित भए॥
+
<br>दो०-रामचंद्र मुख चंद्र छबि लोचन चारु चकोर।
+
<br>करत पान सादर सकल प्रेमु प्रमोदु न थोर॥३२१॥
+
<br>–*–*–
+
<br>समउ बिलोकि बसिष्ठ बोलाए। सादर सतानंदु सुनि आए॥
+
<br>बेगि कुअँरि अब आनहु जाई। चले मुदित मुनि आयसु पाई॥
+
<br>रानी सुनि उपरोहित बानी। प्रमुदित सखिन्ह समेत सयानी॥
+
<br>बिप्र बधू कुलबृद्ध बोलाईं। करि कुल रीति सुमंगल गाईं॥
+
<br>नारि बेष जे सुर बर बामा। सकल सुभायँ सुंदरी स्यामा॥
+
<br>तिन्हहि देखि सुखु पावहिं नारीं। बिनु पहिचानि प्रानहु ते प्यारीं॥
+
<br>बार बार सनमानहिं रानी। उमा रमा सारद सम जानी॥
+
<br>सीय सँवारि समाजु बनाई। मुदित मंडपहिं चलीं लवाई॥
+
<br>छं०-चलि ल्याइ सीतहि सखीं सादर सजि सुमंगल भामिनीं।
+
<br>नवसप्त साजें सुंदरी सब मत्त कुंजर गामिनीं॥
+
<br>कल गान सुनि मुनि ध्यान त्यागहिं काम कोकिल लाजहीं।
+
<br>मंजीर नूपुर कलित कंकन ताल गती बर बाजहीं॥
+
<br>दो०-सोहति बनिता बृंद महुँ सहज सुहावनि सीय।
+
<br>छबि ललना गन मध्य जनु सुषमा तिय कमनीय॥३२२॥
+
<br>–*–*–
+
<br>सिय सुंदरता बरनि न जाई। लघु मति बहुत मनोहरताई॥
+
<br>आवत दीखि बरातिन्ह सीता॥रूप रासि सब भाँति पुनीता॥
+
<br>सबहि मनहिं मन किए प्रनामा। देखि राम भए पूरनकामा॥
+
<br>हरषे दसरथ सुतन्ह समेता। कहि न जाइ उर आनँदु जेता॥
+
<br>सुर प्रनामु करि बरसहिं फूला। मुनि असीस धुनि मंगल मूला॥
+
<br>गान निसान कोलाहलु भारी। प्रेम प्रमोद मगन नर नारी॥
+
<br>एहि बिधि सीय मंडपहिं आई। प्रमुदित सांति पढ़हिं मुनिराई॥
+
<br>तेहि अवसर कर बिधि ब्यवहारू। दुहुँ कुलगुर सब कीन्ह अचारू॥
+
<br>छं०-आचारु करि गुर गौरि गनपति मुदित बिप्र पुजावहीं।
+
<br>सुर प्रगटि पूजा लेहिं देहिं असीस अति सुखु पावहीं॥
+
<br>मधुपर्क मंगल द्रब्य जो जेहि समय मुनि मन महुँ चहैं।
+
<br>भरे कनक कोपर कलस सो सब लिएहिं परिचारक रहैं॥१॥
+
<br>
+
<br>कुल रीति प्रीति समेत रबि कहि देत सबु सादर कियो।
+
<br>
+
<br>एहि भाँति देव पुजाइ सीतहि सुभग सिंघासनु दियो॥
+
<br>
+
<br>सिय राम अवलोकनि परसपर प्रेम काहु लखि परै॥
+
<br>
+
<br>मन बुद्धि बर बानी अगोचर प्रगट कबि कैसें करै॥२॥
+
<br>दो०-होम समय तनु धरि अनलु अति सुख आहुति लेहिं।
+
<br>बिप्र बेष धरि बेद सब कहि बिबाह बिधि देहिं॥३२३॥
+
<br>–*–*–
+
<br>जनक पाटमहिषी जग जानी। सीय मातु किमि जाइ बखानी॥
+
<br>सुजसु सुकृत सुख सुदंरताई। सब समेटि बिधि रची बनाई॥
+
<br>समउ जानि मुनिबरन्ह बोलाई। सुनत सुआसिनि सादर ल्याई॥
+
<br>जनक बाम दिसि सोह सुनयना। हिमगिरि संग बनि जनु मयना॥
+
<br>कनक कलस मनि कोपर रूरे। सुचि सुंगध मंगल जल पूरे॥
+
<br>निज कर मुदित रायँ अरु रानी। धरे राम के आगें आनी॥
+
<br>पढ़हिं बेद मुनि मंगल बानी। गगन सुमन झरि अवसरु जानी॥
+
<br>बरु बिलोकि दंपति अनुरागे। पाय पुनीत पखारन लागे॥
+
<br>छं०-लागे पखारन पाय पंकज प्रेम तन पुलकावली।
+
<br>नभ नगर गान निसान जय धुनि उमगि जनु चहुँ दिसि चली॥
+
<br>जे पद सरोज मनोज अरि उर सर सदैव बिराजहीं।
+
<br>जे सकृत सुमिरत बिमलता मन सकल कलि मल भाजहीं॥१॥
+
<br>जे परसि मुनिबनिता लही गति रही जो पातकमई।
+
<br>मकरंदु जिन्ह को संभु सिर सुचिता अवधि सुर बरनई॥
+
<br>करि मधुप मन मुनि जोगिजन जे सेइ अभिमत गति लहैं।
+
<br>ते पद पखारत भाग्यभाजनु जनकु जय जय सब कहै॥२॥
+
<br>बर कुअँरि करतल जोरि साखोचारु दोउ कुलगुर करैं।
+
<br>भयो पानिगहनु बिलोकि बिधि सुर मनुज मुनि आँनद भरैं॥
+
<br>सुखमूल दूलहु देखि दंपति पुलक तन हुलस्यो हियो।
+
<br>करि लोक बेद बिधानु कन्यादानु नृपभूषन कियो॥३॥
+
<br>हिमवंत जिमि गिरिजा महेसहि हरिहि श्री सागर दई।
+
<br>तिमि जनक रामहि सिय समरपी बिस्व कल कीरति नई॥
+
<br>क्यों करै बिनय बिदेहु कियो बिदेहु मूरति सावँरी।
+
<br>करि होम बिधिवत गाँठि जोरी होन लागी भावँरी॥४॥
+
<br>दो०-जय धुनि बंदी बेद धुनि मंगल गान निसान।
+
<br>सुनि हरषहिं बरषहिं बिबुध सुरतरु सुमन सुजान॥३२४॥
+
<br>–*–*–
+
<br>कुअँरु कुअँरि कल भावँरि देहीं॥नयन लाभु सब सादर लेहीं॥
+
<br>जाइ बरनि मनोहर जोरी। जो उपमा कछु कहौं सो थोरी॥
+
<br>राम सीय सुंदर प्रतिछाहीं। जगमगात मनि खंभन माहीं ।
+
<br>मनहुँ मदन रति धरि बहु रूपा। देखत राम बिआहु अनूपा॥
+
<br>दरस लालसा सकुच थोरी। प्रगटत दुरत बहोरि बहोरी॥
+
<br>भए मगन सब देखनिहारे। जनक समान अपान बिसारे॥
+
<br>प्रमुदित मुनिन्ह भावँरी फेरी। नेगसहित सब रीति निबेरीं॥
+
<br>राम सीय सिर सेंदुर देहीं। सोभा कहि न जाति बिधि केहीं॥
+
<br>अरुन पराग जलजु भरि नीकें। ससिहि भूष अहि लोभ अमी कें॥
+
<br>बहुरि बसिष्ठ दीन्ह अनुसासन। बरु दुलहिनि बैठे एक आसन॥
+
<br>छं०-बैठे बरासन रामु जानकि मुदित मन दसरथु भए।
+
<br>तनु पुलक पुनि पुनि देखि अपनें सुकृत सुरतरु फल नए॥
+
<br>भरि भुवन रहा उछाहु राम बिबाहु भा सबहीं कहा।
+
<br>केहि भाँति बरनि सिरात रसना एक यहु मंगलु महा॥१॥
+
<br>तब जनक पाइ बसिष्ठ आयसु ब्याह साज सँवारि कै।
+
<br>माँडवी श्रुतिकीरति उरमिला कुअँरि लईं हँकारि के॥
+
<br>कुसकेतु कन्या प्रथम जो गुन सील सुख सोभामई।
+
<br>सब रीति प्रीति समेत करि सो ब्याहि नृप भरतहि दई॥२॥
+
<br>जानकी लघु भगिनी सकल सुंदरि सिरोमनि जानि कै।
+
<br>सो तनय दीन्ही ब्याहि लखनहि सकल बिधि सनमानि कै॥
+
<br>जेहि नामु श्रुतकीरति सुलोचनि सुमुखि सब गुन आगरी।
+
<br>सो दई रिपुसूदनहि भूपति रूप सील उजागरी॥३॥
+
<br>अनुरुप बर दुलहिनि परस्पर लखि सकुच हियँ हरषहीं।
+
<br>सब मुदित सुंदरता सराहहिं सुमन सुर गन बरषहीं॥
+
<br>सुंदरी सुंदर बरन्ह सह सब एक मंडप राजहीं।
+
<br>जनु जीव उर चारिउ अवस्था बिमुन सहित बिराजहीं॥४॥
+
<br>दो०-मुदित अवधपति सकल सुत बधुन्ह समेत निहारि।
+
<br>जनु पार महिपाल मनि क्रियन्ह सहित फल चारि॥३२५॥
+
<br>–*–*–
+
<br>जसि रघुबीर ब्याह बिधि बरनी। सकल कुअँर ब्याहे तेहिं करनी॥
+
<br>कहि न जाइ कछु दाइज भूरी। रहा कनक मनि मंडपु पूरी॥
+
<br>कंबल बसन बिचित्र पटोरे। भाँति भाँति बहु मोल थोरे॥
+
<br>गज रथ तुरग दास अरु दासी। धेनु अलंकृत कामदुहा सी॥
+
<br>बस्तु अनेक करिअ किमि लेखा। कहि न जाइ जानहिं जिन्ह देखा॥
+
<br>लोकपाल अवलोकि सिहाने। लीन्ह अवधपति सबु सुखु माने॥
+
<br>दीन्ह जाचकन्हि जो जेहि भावा। उबरा सो जनवासेहिं आवा॥
+
<br>तब कर जोरि जनकु मृदु बानी। बोले सब बरात सनमानी॥
+
<br>छं०-सनमानि सकल बरात आदर दान बिनय बड़ाइ कै।
+
<br>प्रमुदित महा मुनि बृंद बंदे पूजि प्रेम लड़ाइ कै॥
+
<br>सिरु नाइ देव मनाइ सब सन कहत कर संपुट किएँ।
+
<br>सुर साधु चाहत भाउ सिंधु कि तोष जल अंजलि दिएँ॥१॥
+
<br>कर जोरि जनकु बहोरि बंधु समेत कोसलराय सों।
+
<br>बोले मनोहर बयन सानि सनेह सील सुभाय सों॥
+
<br>संबंध राजन रावरें हम बड़े अब सब बिधि भए।
+
<br>एहि राज साज समेत सेवक जानिबे बिनु गथ लए॥२॥
+
<br>ए दारिका परिचारिका करि पालिबीं करुना नई।
+
<br>अपराधु छमिबो बोलि पठए बहुत हौं ढीट्यो कई॥
+
<br>पुनि भानुकुलभूषन सकल सनमान निधि समधी किए।
+
<br>कहि जाति नहिं बिनती परस्पर प्रेम परिपूरन हिए॥३॥
+
<br>बृंदारका गन सुमन बरिसहिं राउ जनवासेहि चले।
+
<br>दुंदुभी जय धुनि बेद धुनि नभ नगर कौतूहल भले॥
+
<br>तब सखीं मंगल गान करत मुनीस आयसु पाइ कै।
+
<br>दूलह दुलहिनिन्ह सहित सुंदरि चलीं कोहबर ल्याइ कै॥४॥
+
<br>दो०-पुनि पुनि रामहि चितव सिय सकुचति मनु सकुचै न।
+
<br>हरत मनोहर मीन छबि प्रेम पिआसे नैन॥३२६॥
+
<br>मासपारायण, ग्यारहवाँ विश्राम
+
<br>–*–*–
+
<br>स्याम सरीरु सुभायँ सुहावन। सोभा कोटि मनोज लजावन॥
+
<br>जावक जुत पद कमल सुहाए। मुनि मन मधुप रहत जिन्ह छाए॥
+
<br>पीत पुनीत मनोहर धोती। हरति बाल रबि दामिनि जोती॥
+
<br>कल किंकिनि कटि सूत्र मनोहर। बाहु बिसाल बिभूषन सुंदर॥
+
<br>पीत जनेउ महाछबि देई। कर मुद्रिका चोरि चितु लेई॥
+
<br>सोहत ब्याह साज सब साजे। उर आयत उरभूषन राजे॥
+
<br>पिअर उपरना काखासोती। दुहुँ आँचरन्हि लगे मनि मोती॥
+
<br>नयन कमल कल कुंडल काना। बदनु सकल सौंदर्ज निधाना॥
+
<br>सुंदर भृकुटि मनोहर नासा। भाल तिलकु रुचिरता निवासा॥
+
<br>सोहत मौरु मनोहर माथे। मंगलमय मुकुता मनि गाथे॥
+
<br>छं०-गाथे महामनि मौर मंजुल अंग सब चित चोरहीं।
+
<br>पुर नारि सुर सुंदरीं बरहि बिलोकि सब तिन तोरहीं॥
+
<br>मनि बसन भूषन वारि आरति करहिं मंगल गावहिं।
+
<br>सुर सुमन बरिसहिं सूत मागध बंदि सुजसु सुनावहीं॥१॥
+
<br>कोहबरहिं आने कुँअर कुँअरि सुआसिनिन्ह सुख पाइ कै।
+
<br>अति प्रीति लौकिक रीति लागीं करन मंगल गाइ कै॥
+
<br>लहकौरि गौरि सिखाव रामहि सीय सन सारद कहैं।
+
<br>रनिवासु हास बिलास रस बस जन्म को फलु सब लहैं॥२॥
+
<br>निज पानि मनि महुँ देखिअति मूरति सुरूपनिधान की।
+
<br>चालति भुजबल्ली बिलोकनि बिरह भय बस जानकी॥
+
<br>कौतुक बिनोद प्रमोदु प्रेमु न जाइ कहि जानहिं अलीं।
+
<br>बर कुअँरि सुंदर सकल सखीं लवाइ जनवासेहि चलीं॥३॥
+
<br>तेहि समय सुनिअ असीस जहँ तहँ नगर नभ आनँदु महा।
+
<br>चिरु जिअहुँ जोरीं चारु चारयो मुदित मन सबहीं कहा॥
+
<br>जोगीन्द्र सिद्ध मुनीस देव बिलोकि प्रभु दुंदुभि हनी।
+
<br>चले हरषि बरषि प्रसून निज निज लोक जय जय जय भनी॥४॥
+
<br>दो०-सहित बधूटिन्ह कुअँर सब तब आए पितु पास।
+
<br>सोभा मंगल मोद भरि उमगेउ जनु जनवास॥३२७॥
+
<br>–*–*–
+
<br>पुनि जेवनार भई बहु भाँती। पठए जनक बोलाइ बराती॥
+
<br>परत पाँवड़े बसन अनूपा। सुतन्ह समेत गवन कियो भूपा॥
+
<br>सादर सबके पाय पखारे। जथाजोगु पीढ़न्ह बैठारे॥
+
<br>धोए जनक अवधपति चरना। सीलु सनेहु जाइ नहिं बरना॥
+
<br>बहुरि राम पद पंकज धोए। जे हर हृदय कमल महुँ गोए॥
+
<br>तीनिउ भाई राम सम जानी। धोए चरन जनक निज पानी॥
+
<br>आसन उचित सबहि नृप दीन्हे। बोलि सूपकारी सब लीन्हे॥
+
<br>सादर लगे परन पनवारे। कनक कील मनि पान सँवारे॥
+
<br>दो०-सूपोदन सुरभी सरपि सुंदर स्वादु पुनीत।
+
<br>छन महुँ सब कें परुसि गे चतुर सुआर बिनीत॥३२८॥
+
<br>–*–*–
+
<br>पंच कवल करि जेवन लअगे। गारि गान सुनि अति अनुरागे॥
+
<br>भाँति अनेक परे पकवाने। सुधा सरिस नहिं जाहिं बखाने॥
+
<br>परुसन लगे सुआर सुजाना। बिंजन बिबिध नाम को जाना॥
+
<br>चारि भाँति भोजन बिधि गाई। एक एक बिधि बरनि न जाई॥
+
<br>छरस रुचिर बिंजन बहु जाती। एक एक रस अगनित भाँती॥
+
<br>जेवँत देहिं मधुर धुनि गारी। लै लै नाम पुरुष अरु नारी॥
+
<br>समय सुहावनि गारि बिराजा। हँसत राउ सुनि सहित समाजा॥
+
<br>एहि बिधि सबहीं भौजनु कीन्हा। आदर सहित आचमनु दीन्हा॥
+
<br>दो०-देइ पान पूजे जनक दसरथु सहित समाज।
+
<br>जनवासेहि गवने मुदित सकल भूप सिरताज॥३२९॥
+
<br>–*–*–
+
<br>नित नूतन मंगल पुर माहीं। निमिष सरिस दिन जामिनि जाहीं॥
+
<br>बड़े भोर भूपतिमनि जागे। जाचक गुन गन गावन लागे॥
+
<br>देखि कुअँर बर बधुन्ह समेता। किमि कहि जात मोदु मन जेता॥
+
<br>प्रातक्रिया करि गे गुरु पाहीं। महाप्रमोदु प्रेमु मन माहीं॥
+
<br>करि प्रनाम पूजा कर जोरी। बोले गिरा अमिअँ जनु बोरी॥
+
<br>तुम्हरी कृपाँ सुनहु मुनिराजा। भयउँ आजु मैं पूरनकाजा॥
+
<br>अब सब बिप्र बोलाइ गोसाईं। देहु धेनु सब भाँति बनाई॥
+
<br>सुनि गुर करि महिपाल बड़ाई। पुनि पठए मुनि बृंद बोलाई॥
+
<br>दो०-बामदेउ अरु देवरिषि बालमीकि जाबालि।
+
<br>आए मुनिबर निकर तब कौसिकादि तपसालि॥३३०॥
+
<br>–*–*–
+
<br>दंड प्रनाम सबहि नृप कीन्हे। पूजि सप्रेम बरासन दीन्हे॥
+
<br>चारि लच्छ बर धेनु मगाई। कामसुरभि सम सील सुहाई॥
+
<br>सब बिधि सकल अलंकृत कीन्हीं। मुदित महिप महिदेवन्ह दीन्हीं॥
+
<br>करत बिनय बहु बिधि नरनाहू। लहेउँ आजु जग जीवन लाहू॥
+
<br>पाइ असीस महीसु अनंदा। लिए बोलि पुनि जाचक बृंदा॥
+
<br>कनक बसन मनि हय गय स्यंदन। दिए बूझि रुचि रबिकुलनंदन॥
+
<br>चले पढ़त गावत गुन गाथा। जय जय जय दिनकर कुल नाथा॥
+
<br>एहि बिधि राम बिआह उछाहू। सकइ न बरनि सहस मुख जाहू॥
+
<br>दो०-बार बार कौसिक चरन सीसु नाइ कह राउ।
+
<br>यह सबु सुखु मुनिराज तव कृपा कटाच्छ पसाउ॥३३१॥
+
<br>–*–*–
+
<br>जनक सनेहु सीलु करतूती। नृपु सब भाँति सराह बिभूती॥
+
<br>दिन उठि बिदा अवधपति मागा। राखहिं जनकु सहित अनुरागा॥
+
<br>नित नूतन आदरु अधिकाई। दिन प्रति सहस भाँति पहुनाई॥
+
<br>नित नव नगर अनंद उछाहू। दसरथ गवनु सोहाइ काहू॥
+
<br>बहुत दिवस बीते एहि भाँती। जनु सनेह रजु बँधे बराती॥
+
<br>कौसिक सतानंद तब जाई। कहा बिदेह नृपहि समुझाई॥
+
<br>अब दसरथ कहँ आयसु देहू। जद्यपि छाड़ि न सकहु सनेहू॥
+
<br>भलेहिं नाथ कहि सचिव बोलाए। कहि जय जीव सीस तिन्ह नाए॥
+
<br>दो०-अवधनाथु चाहत चलन भीतर करहु जनाउ।
+
<br>भए प्रेमबस सचिव सुनि बिप्र सभासद राउ॥३३२॥
+
<br>–*–*–
+
<br>पुरबासी सुनि चलिहि बराता। बूझत बिकल परस्पर बाता॥
+
<br>सत्य गवनु सुनि सब बिलखाने। मनहुँ साँझ सरसिज सकुचाने॥
+
<br>जहँ जहँ आवत बसे बराती। तहँ तहँ सिद्ध चला बहु भाँती॥
+
<br>बिबिध भाँति मेवा पकवाना। भोजन साजु न जाइ बखाना॥
+
<br>भरि भरि बसहँ अपार कहारा। पठई जनक अनेक सुसारा॥
+
<br>तुरग लाख रथ सहस पचीसा। सकल सँवारे नख अरु सीसा॥
+
<br>मत्त सहस दस सिंधुर साजे। जिन्हहि देखि दिसिकुंजर लाजे॥
+
<br>कनक बसन मनि भरि भरि जाना। महिषीं धेनु बस्तु बिधि नाना॥
+
<br>दो०-दाइज अमित न सकिअ कहि दीन्ह बिदेहँ बहोरि।
+
<br>जो अवलोकत लोकपति लोक संपदा थोरि॥३३३॥
+
<br>–*–*–
+
<br>सबु समाजु एहि भाँति बनाई। जनक अवधपुर दीन्ह पठाई॥
+
<br>चलिहि बरात सुनत सब रानीं। बिकल मीनगन जनु लघु पानीं॥
+
<br>पुनि पुनि सीय गोद करि लेहीं। देइ असीस सिखावनु देहीं॥
+
<br>होएहु संतत पियहि पिआरी। चिरु अहिबात असीस हमारी॥
+
<br>सासु ससुर गुर सेवा करेहू। पति रुख लखि आयसु अनुसरेहू॥
+
<br>अति सनेह बस सखीं सयानी। नारि धरम सिखवहिं मृदु बानी॥
+
<br>सादर सकल कुअँरि समुझाई। रानिन्ह बार बार उर लाई॥
+
<br>बहुरि बहुरि भेटहिं महतारीं। कहहिं बिरंचि रचीं कत नारीं॥
+
<br>दो०-तेहि अवसर भाइन्ह सहित रामु भानु कुल केतु।
+
<br>चले जनक मंदिर मुदित बिदा करावन हेतु॥३३४॥
+
<br>–*–*–
+
<br>चारिअ भाइ सुभायँ सुहाए। नगर नारि नर देखन धाए॥
+
<br>कोउ कह चलन चहत हहिं आजू। कीन्ह बिदेह बिदा कर साजू॥
+
<br>लेहु नयन भरि रूप निहारी। प्रिय पाहुने भूप सुत चारी॥
+
<br>को जानै केहि सुकृत सयानी। नयन अतिथि कीन्हे बिधि आनी॥
+
<br>मरनसीलु जिमि पाव पिऊषा। सुरतरु लहै जनम कर भूखा॥
+
<br>पाव नारकी हरिपदु जैसें। इन्ह कर दरसनु हम कहँ तैसे॥
+
<br>निरखि राम सोभा उर धरहू। निज मन फनि मूरति मनि करहू॥
+
<br>एहि बिधि सबहि नयन फलु देता। गए कुअँर सब राज निकेता॥
+
<br>दो०-रूप सिंधु सब बंधु लखि हरषि उठा रनिवासु।
+
<br>करहि निछावरि आरती महा मुदित मन सासु॥३३५॥
+
<br>–*–*–
+
<br>देखि राम छबि अति अनुरागीं। प्रेमबिबस पुनि पुनि पद लागीं॥
+
<br>रही न लाज प्रीति उर छाई। सहज सनेहु बरनि किमि जाई॥
+
<br>भाइन्ह सहित उबटि अन्हवाए। छरस असन अति हेतु जेवाँए॥
+
<br>बोले रामु सुअवसरु जानी। सील सनेह सकुचमय बानी॥
+
<br>राउ अवधपुर चहत सिधाए। बिदा होन हम इहाँ पठाए॥
+
<br>मातु मुदित मन आयसु देहू। बालक जानि करब नित नेहू॥
+
<br>सुनत बचन बिलखेउ रनिवासू। बोलि न सकहिं प्रेमबस सासू॥
+
<br>हृदयँ लगाइ कुअँरि सब लीन्ही। पतिन्ह सौंपि बिनती अति कीन्ही॥
+
<br>छं०-करि बिनय सिय रामहि समरपी जोरि कर पुनि पुनि कहै।
+
<br>बलि जाँउ तात सुजान तुम्ह कहुँ बिदित गति सब की अहै॥
+
<br>परिवार पुरजन मोहि राजहि प्रानप्रिय सिय जानिबी।
+
<br>तुलसीस सीलु सनेहु लखि निज किंकरी करि मानिबी॥
+
<br>सो०-तुम्ह परिपूरन काम जान सिरोमनि भावप्रिय।
+
<br>जन गुन गाहक राम दोष दलन करुनायतन॥३३६॥
+
<br>अस कहि रही चरन गहि रानी। प्रेम पंक जनु गिरा समानी॥
+
<br>सुनि सनेहसानी बर बानी। बहुबिधि राम सासु सनमानी॥
+
<br>राम बिदा मागत कर जोरी। कीन्ह प्रनामु बहोरि बहोरी॥
+
<br>पाइ असीस बहुरि सिरु नाई। भाइन्ह सहित चले रघुराई॥
+
<br>मंजु मधुर मूरति उर आनी। भई सनेह सिथिल सब रानी॥
+
<br>पुनि धीरजु धरि कुअँरि हँकारी। बार बार भेटहिं महतारीं॥
+
<br>पहुँचावहिं फिरि मिलहिं बहोरी। बढ़ी परस्पर प्रीति न थोरी॥
+
<br>पुनि पुनि मिलत सखिन्ह बिलगाई। बाल बच्छ जिमि धेनु लवाई॥
+
<br>दो०-प्रेमबिबस नर नारि सब सखिन्ह सहित रनिवासु।
+
<br>मानहुँ कीन्ह बिदेहपुर करुनाँ बिरहँ निवासु॥३३७॥
+
<br>–*–*–
+
<br>सुक सारिका जानकी ज्याए। कनक पिंजरन्हि राखि पढ़ाए॥
+
<br>ब्याकुल कहहिं कहाँ बैदेही। सुनि धीरजु परिहरइ न केही॥
+
<br>भए बिकल खग मृग एहि भाँति। मनुज दसा कैसें कहि जाती॥
+
<br>बंधु समेत जनकु तब आए। प्रेम उमगि लोचन जल छाए॥
+
<br>सीय बिलोकि धीरता भागी। रहे कहावत परम बिरागी॥
+
<br>लीन्हि राँय उर लाइ जानकी। मिटी महामरजाद ग्यान की॥
+
<br>समुझावत सब सचिव सयाने। कीन्ह बिचारु न अवसर जाने॥
+
<br>बारहिं बार सुता उर लाई। सजि सुंदर पालकीं मगाई॥
+
<br>दो०-प्रेमबिबस परिवारु सबु जानि सुलगन नरेस।
+
<br>कुँअरि चढ़ाई पालकिन्ह सुमिरे सिद्धि गनेस॥३३८॥
+
<br>–*–*–
+
<br>बहुबिधि भूप सुता समुझाई। नारिधरमु कुलरीति सिखाई॥
+
<br>दासीं दास दिए बहुतेरे। सुचि सेवक जे प्रिय सिय केरे॥
+
<br>सीय चलत ब्याकुल पुरबासी। होहिं सगुन सुभ मंगल रासी॥
+
<br>भूसुर सचिव समेत समाजा। संग चले पहुँचावन राजा॥
+
<br>समय बिलोकि बाजने बाजे। रथ गज बाजि बरातिन्ह साजे॥
+
<br>दसरथ बिप्र बोलि सब लीन्हे। दान मान परिपूरन कीन्हे॥
+
<br>चरन सरोज धूरि धरि सीसा। मुदित महीपति पाइ असीसा॥
+
<br>सुमिरि गजाननु कीन्ह पयाना। मंगलमूल सगुन भए नाना॥
+
<br>दो०-सुर प्रसून बरषहि हरषि करहिं अपछरा गान।
+
<br>चले अवधपति अवधपुर मुदित बजाइ निसान॥३३९॥
+
<br>–*–*–
+
<br>नृप करि बिनय महाजन फेरे। सादर सकल मागने टेरे॥
+
<br>भूषन बसन बाजि गज दीन्हे। प्रेम पोषि ठाढ़े सब कीन्हे॥
+
<br>बार बार बिरिदावलि भाषी। फिरे सकल रामहि उर राखी॥
+
<br>बहुरि बहुरि कोसलपति कहहीं। जनकु प्रेमबस फिरै चहहीं॥
+
<br>पुनि कह भूपति बचन सुहाए। फिरिअ महीस दूरि बड़ि आए॥
+
<br>राउ बहोरि उतरि भए ठाढ़े। प्रेम प्रबाह बिलोचन बाढ़े॥
+
<br>तब बिदेह बोले कर जोरी। बचन सनेह सुधाँ जनु बोरी॥
+
<br>करौ कवन बिधि बिनय बनाई। महाराज मोहि दीन्हि बड़ाई॥
+
<br>दो०-कोसलपति समधी सजन सनमाने सब भाँति।
+
<br>मिलनि परसपर बिनय अति प्रीति न हृदयँ समाति॥३४०॥
+
<br>–*–*–
+
<br>मुनि मंडलिहि जनक सिरु नावा। आसिरबादु सबहि सन पावा॥
+
<br>सादर पुनि भेंटे जामाता। रूप सील गुन निधि सब भ्राता॥
+
<br>जोरि पंकरुह पानि सुहाए। बोले बचन प्रेम जनु जाए॥
+
<br>राम करौ केहि भाँति प्रसंसा। मुनि महेस मन मानस हंसा॥
+
<br>करहिं जोग जोगी जेहि लागी। कोहु मोहु ममता मदु त्यागी॥
+
<br>ब्यापकु ब्रह्मु अलखु अबिनासी। चिदानंदु निरगुन गुनरासी॥
+
<br>मन समेत जेहि जान न बानी। तरकि न सकहिं सकल अनुमानी॥
+
<br>महिमा निगमु नेति कहि कहई। जो तिहुँ काल एकरस रहई॥
+
<br>दो०-नयन बिषय मो कहुँ भयउ सो समस्त सुख मूल।
+
<br>सबइ लाभु जग जीव कहँ भएँ ईसु अनुकुल॥३४१॥
+
<br>–*–*–
+
<br>सबहि भाँति मोहि दीन्हि बड़ाई। निज जन जानि लीन्ह अपनाई॥
+
<br>होहिं सहस दस सारद सेषा। करहिं कलप कोटिक भरि लेखा॥
+
<br>मोर भाग्य राउर गुन गाथा। कहि न सिराहिं सुनहु रघुनाथा॥
+
<br>मै कछु कहउँ एक बल मोरें। तुम्ह रीझहु सनेह सुठि थोरें॥
+
<br>बार बार मागउँ कर जोरें। मनु परिहरै चरन जनि भोरें॥
+
<br>सुनि बर बचन प्रेम जनु पोषे। पूरनकाम रामु परितोषे॥
+
<br>करि बर बिनय ससुर सनमाने। पितु कौसिक बसिष्ठ सम जाने॥
+
<br>बिनती बहुरि भरत सन कीन्ही। मिलि सप्रेमु पुनि आसिष दीन्ही॥
+
<br>दो०-मिले लखन रिपुसूदनहि दीन्हि असीस महीस।
+
<br>भए परस्पर प्रेमबस फिरि फिरि नावहिं सीस॥३४२॥
+
<br>–*–*–
+
<br>बार बार करि बिनय बड़ाई। रघुपति चले संग सब भाई॥
+
<br>जनक गहे कौसिक पद जाई। चरन रेनु सिर नयनन्ह लाई॥
+
<br>सुनु मुनीस बर दरसन तोरें। अगमु न कछु प्रतीति मन मोरें॥
+
<br>जो सुखु सुजसु लोकपति चहहीं। करत मनोरथ सकुचत अहहीं॥
+
<br>सो सुखु सुजसु सुलभ मोहि स्वामी। सब सिधि तव दरसन अनुगामी॥
+
<br>कीन्हि बिनय पुनि पुनि सिरु नाई। फिरे महीसु आसिषा पाई॥
+
<br>चली बरात निसान बजाई। मुदित छोट बड़ सब समुदाई॥
+
<br>रामहि निरखि ग्राम नर नारी। पाइ नयन फलु होहिं सुखारी॥
+
<br>दो०-बीच बीच बर बास करि मग लोगन्ह सुख देत।
+
<br>अवध समीप पुनीत दिन पहुँची आइ जनेत॥३४३॥û
+
<br>–*–*–
+
<br>हने निसान पनव बर बाजे। भेरि संख धुनि हय गय गाजे॥
+
<br>झाँझि बिरव डिंडमीं सुहाई। सरस राग बाजहिं सहनाई॥
+
<br>पुर जन आवत अकनि बराता। मुदित सकल पुलकावलि गाता॥
+
<br>निज निज सुंदर सदन सँवारे। हाट बाट चौहट पुर द्वारे॥
+
<br>गलीं सकल अरगजाँ सिंचाई। जहँ तहँ चौकें चारु पुराई॥
+
<br>बना बजारु न जाइ बखाना। तोरन केतु पताक बिताना॥
+
<br>सफल पूगफल कदलि रसाला। रोपे बकुल कदंब तमाला॥
+
<br>लगे सुभग तरु परसत धरनी। मनिमय आलबाल कल करनी॥
+
<br>दो०-बिबिध भाँति मंगल कलस गृह गृह रचे सँवारि।
+
<br>सुर ब्रह्मादि सिहाहिं सब रघुबर पुरी निहारि॥३४४॥
+
<br>–*–*–
+
<br>भूप भवन तेहि अवसर सोहा। रचना देखि मदन मनु मोहा॥
+
<br>मंगल सगुन मनोहरताई। रिधि सिधि सुख संपदा सुहाई॥
+
<br>जनु उछाह सब सहज सुहाए। तनु धरि धरि दसरथ दसरथ गृहँ छाए॥
+
<br>देखन हेतु राम बैदेही। कहहु लालसा होहि न केही॥
+
<br>जुथ जूथ मिलि चलीं सुआसिनि। निज छबि निदरहिं मदन बिलासनि॥
+
<br>सकल सुमंगल सजें आरती। गावहिं जनु बहु बेष भारती॥
+
<br>भूपति भवन कोलाहलु होई। जाइ न बरनि समउ सुखु सोई॥
+
<br>कौसल्यादि राम महतारीं। प्रेम बिबस तन दसा बिसारीं॥
+
<br>दो०-दिए दान बिप्रन्ह बिपुल पूजि गनेस पुरारी।
+
<br>प्रमुदित परम दरिद्र जनु पाइ पदारथ चारि॥३४५॥
+
<br>–*–*–
+
<br>मोद प्रमोद बिबस सब माता। चलहिं न चरन सिथिल भए गाता॥
+
<br>राम दरस हित अति अनुरागीं। परिछनि साजु सजन सब लागीं॥
+
<br>बिबिध बिधान बाजने बाजे। मंगल मुदित सुमित्राँ साजे॥
+
<br>हरद दूब दधि पल्लव फूला। पान पूगफल मंगल मूला॥
+
<br>अच्छत अंकुर लोचन लाजा। मंजुल मंजरि तुलसि बिराजा॥
+
<br>छुहे पुरट घट सहज सुहाए। मदन सकुन जनु नीड़ बनाए॥
+
<br>सगुन सुंगध न जाहिं बखानी। मंगल सकल सजहिं सब रानी॥
+
<br>रचीं आरतीं बहुत बिधाना। मुदित करहिं कल मंगल गाना॥
+
<br>दो०-कनक थार भरि मंगलन्हि कमल करन्हि लिएँ मात।
+
<br>चलीं मुदित परिछनि करन पुलक पल्लवित गात॥३४६॥
+
<br>–*–*–
+
<br>धूप धूम नभु मेचक भयऊ। सावन घन घमंडु जनु ठयऊ॥
+
<br>सुरतरु सुमन माल सुर बरषहिं। मनहुँ बलाक अवलि मनु करषहिं॥
+
<br>मंजुल मनिमय बंदनिवारे। मनहुँ पाकरिपु चाप सँवारे॥
+
<br>प्रगटहिं दुरहिं अटन्ह पर भामिनि। चारु चपल जनु दमकहिं दामिनि॥
+
<br>दुंदुभि धुनि घन गरजनि घोरा। जाचक चातक दादुर मोरा॥
+
<br>सुर सुगन्ध सुचि बरषहिं बारी। सुखी सकल ससि पुर नर नारी॥
+
<br>समउ जानी गुर आयसु दीन्हा। पुर प्रबेसु रघुकुलमनि कीन्हा॥
+
<br>सुमिरि संभु गिरजा गनराजा। मुदित महीपति सहित समाजा॥
+
<br>दो०-होहिं सगुन बरषहिं सुमन सुर दुंदुभीं बजाइ।
+
<br>बिबुध बधू नाचहिं मुदित मंजुल मंगल गाइ॥३४७॥
+
<br>–*–*–
+
<br>मागध सूत बंदि नट नागर। गावहिं जसु तिहु लोक उजागर॥
+
<br>जय धुनि बिमल बेद बर बानी। दस दिसि सुनिअ सुमंगल सानी॥
+
<br>बिपुल बाजने बाजन लागे। नभ सुर नगर लोग अनुरागे॥
+
<br>बने बराती बरनि न जाहीं। महा मुदित मन सुख न समाहीं॥
+
<br>पुरबासिन्ह तब राय जोहारे। देखत रामहि भए सुखारे॥
+
<br>करहिं निछावरि मनिगन चीरा। बारि बिलोचन पुलक सरीरा॥
+
<br>आरति करहिं मुदित पुर नारी। हरषहिं निरखि कुँअर बर चारी॥
+
<br>सिबिका सुभग ओहार उघारी। देखि दुलहिनिन्ह होहिं सुखारी॥
+
<br>दो०-एहि बिधि सबही देत सुखु आए राजदुआर।
+
<br>मुदित मातु परुछनि करहिं बधुन्ह समेत कुमार॥३४८॥
+
<br>–*–*–
+
<br>करहिं आरती बारहिं बारा। प्रेमु प्रमोदु कहै को पारा॥
+
<br>भूषन मनि पट नाना जाती॥करही निछावरि अगनित भाँती॥
+
<br>बधुन्ह समेत देखि सुत चारी। परमानंद मगन महतारी॥
+
<br>पुनि पुनि सीय राम छबि देखी॥मुदित सफल जग जीवन लेखी॥
+
<br>सखीं सीय मुख पुनि पुनि चाही। गान करहिं निज सुकृत सराही॥
+
<br>बरषहिं सुमन छनहिं छन देवा। नाचहिं गावहिं लावहिं सेवा॥
+
<br>देखि मनोहर चारिउ जोरीं। सारद उपमा सकल ढँढोरीं॥
+
<br>देत न बनहिं निपट लघु लागी। एकटक रहीं रूप अनुरागीं॥
+
<br>दो०-निगम नीति कुल रीति करि अरघ पाँवड़े देत।
+
<br>बधुन्ह सहित सुत परिछि सब चलीं लवाइ निकेत॥३४९॥
+
<br>–*–*–
+
<br>चारि सिंघासन सहज सुहाए। जनु मनोज निज हाथ बनाए॥
+
<br>तिन्ह पर कुअँरि कुअँर बैठारे। सादर पाय पुनित पखारे॥
+
<br>धूप दीप नैबेद बेद बिधि। पूजे बर दुलहिनि मंगलनिधि॥
+
<br>बारहिं बार आरती करहीं। ब्यजन चारु चामर सिर ढरहीं॥
+
<br>बस्तु अनेक निछावर होहीं। भरीं प्रमोद मातु सब सोहीं॥
+
<br>पावा परम तत्व जनु जोगीं। अमृत लहेउ जनु संतत रोगीं॥
+
<br>जनम रंक जनु पारस पावा। अंधहि लोचन लाभु सुहावा॥
+
<br>मूक बदन जनु सारद छाई। मानहुँ समर सूर जय पाई॥
+
<br>दो०-एहि सुख ते सत कोटि गुन पावहिं मातु अनंदु॥
+
<br>भाइन्ह सहित बिआहि घर आए रघुकुलचंदु॥३५०(क)॥
+
<br>लोक रीत जननी करहिं बर दुलहिनि सकुचाहिं।
+
<br>मोदु बिनोदु बिलोकि बड़ रामु मनहिं मुसकाहिं॥३५०(ख)॥
+
<br>–*–*–
+
<br>देव पितर पूजे बिधि नीकी। पूजीं सकल बासना जी की॥
+
<br>सबहिं बंदि मागहिं बरदाना। भाइन्ह सहित राम कल्याना॥
+
<br>अंतरहित सुर आसिष देहीं। मुदित मातु अंचल भरि लेंहीं॥
+
<br>भूपति बोलि बराती लीन्हे। जान बसन मनि भूषन दीन्हे॥
+
<br>आयसु पाइ राखि उर रामहि। मुदित गए सब निज निज धामहि॥
+
<br>पुर नर नारि सकल पहिराए। घर घर बाजन लगे बधाए॥
+
<br>जाचक जन जाचहि जोइ जोई। प्रमुदित राउ देहिं सोइ सोई॥
+
<br>सेवक सकल बजनिआ नाना। पूरन किए दान सनमाना॥
+
<br>दो०-देंहिं असीस जोहारि सब गावहिं गुन गन गाथ।
+
<br>तब गुर भूसुर सहित गृहँ गवनु कीन्ह नरनाथ॥३५१॥
+
<br>–*–*–
+
<br>जो बसिष्ठ अनुसासन दीन्ही। लोक बेद बिधि सादर कीन्ही॥
+
<br>भूसुर भीर देखि सब रानी। सादर उठीं भाग्य बड़ जानी॥
+
<br>पाय पखारि सकल अन्हवाए। पूजि भली बिधि भूप जेवाँए॥
+
<br>आदर दान प्रेम परिपोषे। देत असीस चले मन तोषे॥
+
<br>बहु बिधि कीन्हि गाधिसुत पूजा। नाथ मोहि सम धन्य न दूजा॥
+
<br>कीन्हि प्रसंसा भूपति भूरी। रानिन्ह सहित लीन्हि पग धूरी॥
+
<br>भीतर भवन दीन्ह बर बासु। मन जोगवत रह नृप रनिवासू॥
+
<br>पूजे गुर पद कमल बहोरी। कीन्हि बिनय उर प्रीति न थोरी॥
+
<br>दो०-बधुन्ह समेत कुमार सब रानिन्ह सहित महीसु।
+
<br>पुनि पुनि बंदत गुर चरन देत असीस मुनीसु॥३५२॥
+
<br>–*–*–
+
<br>बिनय कीन्हि उर अति अनुरागें। सुत संपदा राखि सब आगें॥
+
<br>नेगु मागि मुनिनायक लीन्हा। आसिरबादु बहुत बिधि दीन्हा॥
+
<br>उर धरि रामहि सीय समेता। हरषि कीन्ह गुर गवनु निकेता॥
+
<br>बिप्रबधू सब भूप बोलाई। चैल चारु भूषन पहिराई॥
+
<br>बहुरि बोलाइ सुआसिनि लीन्हीं। रुचि बिचारि पहिरावनि दीन्हीं॥
+
<br>नेगी नेग जोग सब लेहीं। रुचि अनुरुप भूपमनि देहीं॥
+
<br>प्रिय पाहुने पूज्य जे जाने। भूपति भली भाँति सनमाने॥
+
<br>देव देखि रघुबीर बिबाहू। बरषि प्रसून प्रसंसि उछाहू॥
+
<br>दो०-चले निसान बजाइ सुर निज निज पुर सुख पाइ।
+
<br>कहत परसपर राम जसु प्रेम न हृदयँ समाइ॥३५३॥
+
<br>–*–*–
+
<br>सब बिधि सबहि समदि नरनाहू। रहा हृदयँ भरि पूरि उछाहू॥
+
<br>जहँ रनिवासु तहाँ पगु धारे। सहित बहूटिन्ह कुअँर निहारे॥
+
<br>लिए गोद करि मोद समेता। को कहि सकइ भयउ सुखु जेता॥
+
<br>बधू सप्रेम गोद बैठारीं। बार बार हियँ हरषि दुलारीं॥
+
<br>देखि समाजु मुदित रनिवासू। सब कें उर अनंद कियो बासू॥
+
<br>कहेउ भूप जिमि भयउ बिबाहू। सुनि हरषु होत सब काहू॥
+
<br>जनक राज गुन सीलु बड़ाई। प्रीति रीति संपदा सुहाई॥
+
<br>बहुबिधि भूप भाट जिमि बरनी। रानीं सब प्रमुदित सुनि करनी॥
+
<br>दो०-सुतन्ह समेत नहाइ नृप बोलि बिप्र गुर ग्याति।
+
<br>भोजन कीन्ह अनेक बिधि घरी पंच गइ राति॥३५४॥
+
<br>–*–*–
+
<br>मंगलगान करहिं बर भामिनि। भै सुखमूल मनोहर जामिनि॥
+
<br>अँचइ पान सब काहूँ पाए। स्त्रग सुगंध भूषित छबि छाए॥
+
<br>रामहि देखि रजायसु पाई। निज निज भवन चले सिर नाई॥
+
<br>प्रेम प्रमोद बिनोदु बढ़ाई। समउ समाजु मनोहरताई॥
+
<br>कहि न सकहि सत सारद सेसू। बेद बिरंचि महेस गनेसू॥
+
<br>सो मै कहौं कवन बिधि बरनी। भूमिनागु सिर धरइ कि धरनी॥
+
<br>नृप सब भाँति सबहि सनमानी। कहि मृदु बचन बोलाई रानी॥
+
<br>बधू लरिकनीं पर घर आईं। राखेहु नयन पलक की नाई॥
+
<br>दो०-लरिका श्रमित उनीद बस सयन करावहु जाइ।
+
<br>अस कहि गे बिश्रामगृहँ राम चरन चितु लाइ॥३५५॥
+
<br>–*–*–
+
<br>भूप बचन सुनि सहज सुहाए। जरित कनक मनि पलँग डसाए॥
+
<br>सुभग सुरभि पय फेन समाना। कोमल कलित सुपेतीं नाना॥
+
<br>उपबरहन बर बरनि न जाहीं। स्त्रग सुगंध मनिमंदिर माहीं॥
+
<br>रतनदीप सुठि चारु चँदोवा। कहत न बनइ जान जेहिं जोवा॥
+
<br>सेज रुचिर रचि रामु उठाए। प्रेम समेत पलँग पौढ़ाए॥
+
<br>अग्या पुनि पुनि भाइन्ह दीन्ही। निज निज सेज सयन तिन्ह कीन्ही॥
+
<br>देखि स्याम मृदु मंजुल गाता। कहहिं सप्रेम बचन सब माता॥
+
<br>मारग जात भयावनि भारी। केहि बिधि तात ताड़का मारी॥
+
<br>दो०-घोर निसाचर बिकट भट समर गनहिं नहिं काहु॥
+
<br>मारे सहित सहाय किमि खल मारीच सुबाहु॥३५६॥
+
<br>–*–*–
+
<br>मुनि प्रसाद बलि तात तुम्हारी। ईस अनेक करवरें टारी॥
+
<br>मख रखवारी करि दुहुँ भाई। गुरु प्रसाद सब बिद्या पाई॥
+
<br>मुनितय तरी लगत पग धूरी। कीरति रही भुवन भरि पूरी॥
+
<br>कमठ पीठि पबि कूट कठोरा। नृप समाज महुँ सिव धनु तोरा॥
+
<br>बिस्व बिजय जसु जानकि पाई। आए भवन ब्याहि सब भाई॥
+
<br>सकल अमानुष करम तुम्हारे। केवल कौसिक कृपाँ सुधारे॥
+
<br>आजु सुफल जग जनमु हमारा। देखि तात बिधुबदन तुम्हारा॥
+
<br>जे दिन गए तुम्हहि बिनु देखें। ते बिरंचि जनि पारहिं लेखें॥
+
<br>दो०-राम प्रतोषीं मातु सब कहि बिनीत बर बैन।
+
<br>सुमिरि संभु गुर बिप्र पद किए नीदबस नैन॥३५७॥
+
<br>–*–*–
+
<br>नीदउँ बदन सोह सुठि लोना। मनहुँ साँझ सरसीरुह सोना॥
+
<br>घर घर करहिं जागरन नारीं। देहिं परसपर मंगल गारीं॥
+
<br>पुरी बिराजति राजति रजनी। रानीं कहहिं बिलोकहु सजनी॥
+
<br>सुंदर बधुन्ह सासु लै सोई। फनिकन्ह जनु सिरमनि उर गोई॥
+
<br>प्रात पुनीत काल प्रभु जागे। अरुनचूड़ बर बोलन लागे॥
+
<br>बंदि मागधन्हि गुनगन गाए। पुरजन द्वार जोहारन आए॥
+
<br>बंदि बिप्र सुर गुर पितु माता। पाइ असीस मुदित सब भ्राता॥
+
<br>जननिन्ह सादर बदन निहारे। भूपति संग द्वार पगु धारे॥
+
<br>दो०-कीन्ह सौच सब सहज सुचि सरित पुनीत नहाइ।
+
<br>प्रातक्रिया करि तात पहिं आए चारिउ भाइ॥३५८॥
+
<br>नवान्हपारायण,तीसरा विश्राम
+
<br>–*–*–
+
<br>भूप बिलोकि लिए उर लाई। बैठै हरषि रजायसु पाई॥
+
<br>देखि रामु सब सभा जुड़ानी। लोचन लाभ अवधि अनुमानी॥
+
<br>पुनि बसिष्टु मुनि कौसिक आए। सुभग आसनन्हि मुनि बैठाए॥
+
<br>सुतन्ह समेत पूजि पद लागे। निरखि रामु दोउ गुर अनुरागे॥
+
<br>कहहिं बसिष्टु धरम इतिहासा। सुनहिं महीसु सहित रनिवासा॥
+
<br>मुनि मन अगम गाधिसुत करनी। मुदित बसिष्ट बिपुल बिधि बरनी॥
+
<br>बोले बामदेउ सब साँची। कीरति कलित लोक तिहुँ माची॥
+
<br>सुनि आनंदु भयउ सब काहू। राम लखन उर अधिक उछाहू॥
+
<br>दो०-मंगल मोद उछाह नित जाहिं दिवस एहि भाँति।
+
<br>उमगी अवध अनंद भरि अधिक अधिक अधिकाति॥३५९॥
+
<br>–*–*–
+
<br>सुदिन सोधि कल कंकन छौरे। मंगल मोद बिनोद न थोरे॥
+
<br>नित नव सुखु सुर देखि सिहाहीं। अवध जन्म जाचहिं बिधि पाहीं॥
+
<br>बिस्वामित्रु चलन नित चहहीं। राम सप्रेम बिनय बस रहहीं॥
+
<br>दिन दिन सयगुन भूपति भाऊ। देखि सराह महामुनिराऊ॥
+
<br>मागत बिदा राउ अनुरागे। सुतन्ह समेत ठाढ़ भे आगे॥
+
<br>नाथ सकल संपदा तुम्हारी। मैं सेवकु समेत सुत नारी॥
+
<br>करब सदा लरिकनः पर छोहू। दरसन देत रहब मुनि मोहू॥
+
<br>अस कहि राउ सहित सुत रानी। परेउ चरन मुख आव न बानी॥
+
<br>दीन्ह असीस बिप्र बहु भाँती। चले न प्रीति रीति कहि जाती॥
+
<br>रामु सप्रेम संग सब भाई। आयसु पाइ फिरे पहुँचाई॥
+
<br>दो०-राम रूपु भूपति भगति ब्याहु उछाहु अनंदु।
+
<br>जात सराहत मनहिं मन मुदित गाधिकुलचंदु॥३६०॥
+
<br>–*–*–
+
<br>बामदेव रघुकुल गुर ग्यानी। बहुरि गाधिसुत कथा बखानी॥
+
<br>सुनि मुनि सुजसु मनहिं मन राऊ। बरनत आपन पुन्य प्रभाऊ॥
+
<br>बहुरे लोग रजायसु भयऊ। सुतन्ह समेत नृपति गृहँ गयऊ॥
+
<br>जहँ तहँ राम ब्याहु सबु गावा। सुजसु पुनीत लोक तिहुँ छावा॥
+
<br>आए ब्याहि रामु घर जब तें। बसइ अनंद अवध सब तब तें॥
+
<br>प्रभु बिबाहँ जस भयउ उछाहू। सकहिं न बरनि गिरा अहिनाहू॥
+
<br>कबिकुल जीवनु पावन जानी॥राम सीय जसु मंगल खानी॥
+
<br>तेहि ते मैं कछु कहा बखानी। करन पुनीत हेतु निज बानी॥
+
<br>छं०-निज गिरा पावनि करन कारन राम जसु तुलसी कह्यो।
+
<br>रघुबीर चरित अपार बारिधि पारु कबि कौनें लह्यो॥
+
<br>उपबीत ब्याह उछाह मंगल सुनि जे सादर गावहीं।
+
<br>बैदेहि राम प्रसाद ते जन सर्बदा सुखु पावहीं॥
+
<br>सो०-सिय रघुबीर बिबाहु जे सप्रेम गावहिं सुनहिं।
+
<br>तिन्ह कहुँ सदा उछाहु मंगलायतन राम जसु॥३६१॥
+
<br>मासपारायण, बारहवाँ विश्राम
+
<br>इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषबिध्वंसने
+
<br>प्रथमः सोपानः समाप्तः।
+
<br>'''(बालकाण्ड समाप्त)'''
+
<br>
+

11:34, 11 अप्रैल 2017 के समय का अवतरण

जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई। महामुनिन्ह सो सब करवाई॥
गहि गिरीस कुस कन्या पानी। भवहि समरपीं जानि भवानी॥
पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा। हिंयँ हरषे तब सकल सुरेसा॥
बेद मंत्र मुनिबर उच्चरहीं। जय जय जय संकर सुर करहीं॥
बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना। सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना॥
हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू। सकल भुवन भरि रहा उछाहू॥
दासीं दास तुरग रथ नागा। धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा॥
अन्न कनकभाजन भरि जाना। दाइज दीन्ह न जाइ बखाना॥
छं0-दाइज दियो बहु भाँति पुनि कर जोरि हिमभूधर कह्यो।
का देउँ पूरनकाम संकर चरन पंकज गहि रह्यो॥
सिवँ कृपासागर ससुर कर संतोषु सब भाँतिहिं कियो।
पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो॥
दो0-नाथ उमा मन प्रान सम गृहकिंकरी करेहु।
छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु॥101॥

बहु बिधि संभु सास समुझाई। गवनी भवन चरन सिरु नाई॥
जननीं उमा बोलि तब लीन्ही। लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही॥
करेहु सदा संकर पद पूजा। नारिधरमु पति देउ न दूजा॥
बचन कहत भरे लोचन बारी। बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी॥
कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं॥
भै अति प्रेम बिकल महतारी। धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी॥
पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना। परम प्रेम कछु जाइ न बरना॥
सब नारिन्ह मिलि भेटि भवानी। जाइ जननि उर पुनि लपटानी॥
छं0-जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दईं।
फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गई॥
जाचक सकल संतोषि संकरु उमा सहित भवन चले।
सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले॥
दो0-चले संग हिमवंतु तब पहुँचावन अति हेतु।
बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह बृषकेतु॥102॥

तुरत भवन आए गिरिराई। सकल सैल सर लिए बोलाई॥
आदर दान बिनय बहुमाना। सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना॥
जबहिं संभु कैलासहिं आए। सुर सब निज निज लोक सिधाए॥
जगत मातु पितु संभु भवानी। तेही सिंगारु न कहउँ बखानी॥
करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा। गनन्ह समेत बसहिं कैलासा॥
हर गिरिजा बिहार नित नयऊ। एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ॥
तब जनमेउ षटबदन कुमारा। तारकु असुर समर जेहिं मारा॥
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। षन्मुख जन्मु सकल जग जाना॥
छं0-जगु जान षन्मुख जन्मु कर्मु प्रतापु पुरुषारथु महा।
तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर चरित संछेपहिं कहा॥
यह उमा संगु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं।
कल्यान काज बिबाह मंगल सर्बदा सुखु पावहीं॥
दो0-चरित सिंधु गिरिजा रमन बेद न पावहिं पारु।
बरनै तुलसीदासु किमि अति मतिमंद गवाँरु॥103॥

संभु चरित सुनि सरस सुहावा। भरद्वाज मुनि अति सुख पावा॥
बहु लालसा कथा पर बाढ़ी। नयनन्हि नीरु रोमावलि ठाढ़ी॥
प्रेम बिबस मुख आव न बानी। दसा देखि हरषे मुनि ग्यानी॥
अहो धन्य तव जन्मु मुनीसा। तुम्हहि प्रान सम प्रिय गौरीसा॥
सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं। रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं॥
बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू। राम भगत कर लच्छन एहू॥
सिव सम को रघुपति ब्रतधारी। बिनु अघ तजी सती असि नारी॥
पनु करि रघुपति भगति देखाई। को सिव सम रामहि प्रिय भाई॥
दो0-प्रथमहिं मै कहि सिव चरित बूझा मरमु तुम्हार।
सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार॥104॥

मैं जाना तुम्हार गुन सीला। कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला॥
सुनु मुनि आजु समागम तोरें। कहि न जाइ जस सुखु मन मोरें॥
राम चरित अति अमित मुनिसा। कहि न सकहिं सत कोटि अहीसा॥
तदपि जथाश्रुत कहउँ बखानी। सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी॥
सारद दारुनारि सम स्वामी। रामु सूत्रधर अंतरजामी॥
जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥
प्रनवउँ सोइ कृपाल रघुनाथा। बरनउँ बिसद तासु गुन गाथा॥
परम रम्य गिरिबरु कैलासू। सदा जहाँ सिव उमा निवासू॥
दो0-सिद्ध तपोधन जोगिजन सूर किंनर मुनिबृंद।
बसहिं तहाँ सुकृती सकल सेवहिं सिब सुखकंद॥105॥

हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं। ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं॥
तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला। नित नूतन सुंदर सब काला॥
त्रिबिध समीर सुसीतलि छाया। सिव बिश्राम बिटप श्रुति गाया॥
एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ। तरु बिलोकि उर अति सुखु भयऊ॥
निज कर डासि नागरिपु छाला। बैठै सहजहिं संभु कृपाला॥
कुंद इंदु दर गौर सरीरा। भुज प्रलंब परिधन मुनिचीरा॥
तरुन अरुन अंबुज सम चरना। नख दुति भगत हृदय तम हरना॥
भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी। आननु सरद चंद छबि हारी॥
दो0-जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन नलिन बिसाल।
नीलकंठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल॥106॥

बैठे सोह कामरिपु कैसें। धरें सरीरु सांतरसु जैसें॥
पारबती भल अवसरु जानी। गई संभु पहिं मातु भवानी॥
जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा। बाम भाग आसनु हर दीन्हा॥
बैठीं सिव समीप हरषाई। पूरुब जन्म कथा चित आई॥
पति हियँ हेतु अधिक अनुमानी। बिहसि उमा बोलीं प्रिय बानी॥
कथा जो सकल लोक हितकारी। सोइ पूछन चह सैलकुमारी॥
बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी। त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी॥
चर अरु अचर नाग नर देवा। सकल करहिं पद पंकज सेवा॥
दो0-प्रभु समरथ सर्बग्य सिव सकल कला गुन धाम॥
जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम॥107॥

जौं मो पर प्रसन्न सुखरासी। जानिअ सत्य मोहि निज दासी॥
तौं प्रभु हरहु मोर अग्याना। कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना॥
जासु भवनु सुरतरु तर होई। सहि कि दरिद्र जनित दुखु सोई॥
ससिभूषन अस हृदयँ बिचारी। हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी॥
प्रभु जे मुनि परमारथबादी। कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादी॥
सेस सारदा बेद पुराना। सकल करहिं रघुपति गुन गाना॥
तुम्ह पुनि राम राम दिन राती। सादर जपहु अनँग आराती॥
रामु सो अवध नृपति सुत सोई। की अज अगुन अलखगति कोई॥
दो0-जौं नृप तनय त ब्रह्म किमि नारि बिरहँ मति भोरि।
देख चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि अति मोरि॥108॥

जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ। कबहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ॥
अग्य जानि रिस उर जनि धरहू। जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू॥
मै बन दीखि राम प्रभुताई। अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई॥
तदपि मलिन मन बोधु न आवा। सो फलु भली भाँति हम पावा॥
अजहूँ कछु संसउ मन मोरे। करहु कृपा बिनवउँ कर जोरें॥
प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा। नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा॥
तब कर अस बिमोह अब नाहीं। रामकथा पर रुचि मन माहीं॥
कहहु पुनीत राम गुन गाथा। भुजगराज भूषन सुरनाथा॥
दो0-बंदउ पद धरि धरनि सिरु बिनय करउँ कर जोरि।
बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धांत निचोरि॥109॥

जदपि जोषिता नहिं अधिकारी। दासी मन क्रम बचन तुम्हारी॥
गूढ़उ तत्व न साधु दुरावहिं। आरत अधिकारी जहँ पावहिं॥
अति आरति पूछउँ सुरराया। रघुपति कथा कहहु करि दाया॥
प्रथम सो कारन कहहु बिचारी। निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी॥
पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा। बालचरित पुनि कहहु उदारा॥
कहहु जथा जानकी बिबाहीं। राज तजा सो दूषन काहीं॥
बन बसि कीन्हे चरित अपारा। कहहु नाथ जिमि रावन मारा॥
राज बैठि कीन्हीं बहु लीला। सकल कहहु संकर सुखलीला॥
दो0-बहुरि कहहु करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम।
प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज धाम॥110॥

पुनि प्रभु कहहु सो तत्व बखानी। जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी॥
भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। पुनि सब बरनहु सहित बिभागा॥
औरउ राम रहस्य अनेका। कहहु नाथ अति बिमल बिबेका॥
जो प्रभु मैं पूछा नहि होई। सोउ दयाल राखहु जनि गोई॥
तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना। आन जीव पाँवर का जाना॥
प्रस्न उमा कै सहज सुहाई। छल बिहीन सुनि सिव मन भाई॥
हर हियँ रामचरित सब आए। प्रेम पुलक लोचन जल छाए॥
श्रीरघुनाथ रूप उर आवा। परमानंद अमित सुख पावा॥
दो0-मगन ध्यानरस दंड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह।
रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह॥111॥

झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें॥
जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई॥
बंदउँ बालरूप सोई रामू। सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू॥
मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी॥
करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी। हरषि सुधा सम गिरा उचारी॥
धन्य धन्य गिरिराजकुमारी। तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी॥
पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा। सकल लोक जग पावनि गंगा॥
तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हहु प्रस्न जगत हित लागी॥
दो0-रामकृपा तें पारबति सपनेहुँ तव मन माहिं।
सोक मोह संदेह भ्रम मम बिचार कछु नाहिं॥112॥

तदपि असंका कीन्हिहु सोई। कहत सुनत सब कर हित होई॥
जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना। श्रवन रंध्र अहिभवन समाना॥
नयनन्हि संत दरस नहिं देखा। लोचन मोरपंख कर लेखा॥
ते सिर कटु तुंबरि समतूला। जे न नमत हरि गुर पद मूला॥
जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी। जीवत सव समान तेइ प्रानी॥
जो नहिं करइ राम गुन गाना। जीह सो दादुर जीह समाना॥
कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती। सुनि हरिचरित न जो हरषाती॥
गिरिजा सुनहु राम कै लीला। सुर हित दनुज बिमोहनसीला॥
दो0-रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दानि।
सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि॥113॥

रामकथा सुंदर कर तारी। संसय बिहग उडावनिहारी॥
रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥
राम नाम गुन चरित सुहाए। जनम करम अगनित श्रुति गाए॥
जथा अनंत राम भगवाना। तथा कथा कीरति गुन नाना॥
तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी। कहिहउँ देखि प्रीति अति तोरी॥
उमा प्रस्न तव सहज सुहाई। सुखद संतसंमत मोहि भाई॥
एक बात नहि मोहि सोहानी। जदपि मोह बस कहेहु भवानी॥
तुम जो कहा राम कोउ आना। जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना॥
दो0-कहहि सुनहि अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच।
पाषंडी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच॥114॥

अग्य अकोबिद अंध अभागी। काई बिषय मुकर मन लागी॥
लंपट कपटी कुटिल बिसेषी। सपनेहुँ संतसभा नहिं देखी॥
कहहिं ते बेद असंमत बानी। जिन्ह कें सूझ लाभु नहिं हानी॥
मुकर मलिन अरु नयन बिहीना। राम रूप देखहिं किमि दीना॥
जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका। जल्पहिं कल्पित बचन अनेका॥
हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं। तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं॥
बातुल भूत बिबस मतवारे। ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे॥
जिन्ह कृत महामोह मद पाना। तिन् कर कहा करिअ नहिं काना॥
सो0-अस निज हृदयँ बिचारि तजु संसय भजु राम पद।
सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन मम॥115॥

सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥
अगुन अरुप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥
जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें॥
जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा। तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा॥
राम सच्चिदानंद दिनेसा। नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा॥
सहज प्रकासरुप भगवाना। नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना॥
हरष बिषाद ग्यान अग्याना। जीव धर्म अहमिति अभिमाना॥
राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानन्द परेस पुराना॥
दो0-पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि प्रगट परावर नाथ॥
रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिवँ नायउ माथ॥116॥

निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी। प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी॥
जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ मानु कहहिं कुबिचारी॥
चितव जो लोचन अंगुलि लाएँ। प्रगट जुगल ससि तेहि के भाएँ॥
उमा राम बिषइक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा॥
बिषय करन सुर जीव समेता। सकल एक तें एक सचेता॥
सब कर परम प्रकासक जोई। राम अनादि अवधपति सोई॥
जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू॥
जासु सत्यता तें जड माया। भास सत्य इव मोह सहाया॥
दो0-रजत सीप महुँ मास जिमि जथा भानु कर बारि।
जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि॥117॥

एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई॥
जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई॥
जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई। गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई॥
आदि अंत कोउ जासु न पावा। मति अनुमानि निगम अस गावा॥
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥
आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥
तनु बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा॥
असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी॥
दो0-जेहि इमि गावहि बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान॥
सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान॥118॥

कासीं मरत जंतु अवलोकी। जासु नाम बल करउँ बिसोकी॥
सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी। रघुबर सब उर अंतरजामी॥
बिबसहुँ जासु नाम नर कहहीं। जनम अनेक रचित अघ दहहीं॥
सादर सुमिरन जे नर करहीं। भव बारिधि गोपद इव तरहीं॥
राम सो परमातमा भवानी। तहँ भ्रम अति अबिहित तव बानी॥
अस संसय आनत उर माहीं। ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं॥
सुनि सिव के भ्रम भंजन बचना। मिटि गै सब कुतरक कै रचना॥
भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती। दारुन असंभावना बीती॥
दो0-पुनि पुनि प्रभु पद कमल गहि जोरि पंकरुह पानि।
बोली गिरिजा बचन बर मनहुँ प्रेम रस सानि॥119॥

ससि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी। मिटा मोह सरदातप भारी॥
तुम्ह कृपाल सबु संसउ हरेऊ। राम स्वरुप जानि मोहि परेऊ॥
नाथ कृपाँ अब गयउ बिषादा। सुखी भयउँ प्रभु चरन प्रसादा॥
अब मोहि आपनि किंकरि जानी। जदपि सहज जड नारि अयानी॥
प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू। जौं मो पर प्रसन्न प्रभु अहहू॥
राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी। सर्ब रहित सब उर पुर बासी॥
नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू। मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू॥
उमा बचन सुनि परम बिनीता। रामकथा पर प्रीति पुनीता॥
दो0-हिँयँ हरषे कामारि तब संकर सहज सुजान
बहु बिधि उमहि प्रसंसि पुनि बोले कृपानिधान॥120(क)॥
सो0-सुनु सुभ कथा भवानि रामचरितमानस बिमल।
कहा भुसुंडि बखानि सुना बिहग नायक गरुड॥120(ख)॥
सो संबाद उदार जेहि बिधि भा आगें कहब।
सुनहु राम अवतार चरित परम सुंदर अनघ॥120(ग)॥
हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित।
मैं निज मति अनुसार कहउँ उमा सादर सुनहु॥120(घ॥

नवान्हपारायन,पहला विश्राम

मासपारायण, चौथा विश्राम

सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए। बिपुल बिसद निगमागम गाए॥
हरि अवतार हेतु जेहि होई। इदमित्थं कहि जाइ न सोई॥
राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी। मत हमार अस सुनहि सयानी॥
तदपि संत मुनि बेद पुराना। जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना॥
तस मैं सुमुखि सुनावउँ तोही। समुझि परइ जस कारन मोही॥
जब जब होइ धरम कै हानी। बाढहिं असुर अधम अभिमानी॥
करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी॥
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा॥
दो0-असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु।
जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु॥121॥

सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं। कृपासिंधु जन हित तनु धरहीं॥
राम जनम के हेतु अनेका। परम बिचित्र एक तें एका॥
जनम एक दुइ कहउँ बखानी। सावधान सुनु सुमति भवानी॥
द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ। जय अरु बिजय जान सब कोऊ॥
बिप्र श्राप तें दूनउ भाई। तामस असुर देह तिन्ह पाई॥
कनककसिपु अरु हाटक लोचन। जगत बिदित सुरपति मद मोचन॥
बिजई समर बीर बिख्याता। धरि बराह बपु एक निपाता॥
होइ नरहरि दूसर पुनि मारा। जन प्रहलाद सुजस बिस्तारा॥
दो0-भए निसाचर जाइ तेइ महाबीर बलवान।
कुंभकरन रावण सुभट सुर बिजई जग जान॥122॥

मुकुत न भए हते भगवाना। तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना॥
एक बार तिन्ह के हित लागी। धरेउ सरीर भगत अनुरागी॥
कस्यप अदिति तहाँ पितु माता। दसरथ कौसल्या बिख्याता॥
एक कलप एहि बिधि अवतारा। चरित्र पवित्र किए संसारा॥
एक कलप सुर देखि दुखारे। समर जलंधर सन सब हारे॥
संभु कीन्ह संग्राम अपारा। दनुज महाबल मरइ न मारा॥
परम सती असुराधिप नारी। तेहि बल ताहि न जितहिं पुरारी॥
दो0-छल करि टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह॥
जब तेहि जानेउ मरम तब श्राप कोप करि दीन्ह॥123॥

तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना। कौतुकनिधि कृपाल भगवाना॥
तहाँ जलंधर रावन भयऊ। रन हति राम परम पद दयऊ॥
एक जनम कर कारन एहा। जेहि लागि राम धरी नरदेहा॥
प्रति अवतार कथा प्रभु केरी। सुनु मुनि बरनी कबिन्ह घनेरी॥
नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा॥
गिरिजा चकित भई सुनि बानी। नारद बिष्नुभगत पुनि ग्यानि॥
कारन कवन श्राप मुनि दीन्हा। का अपराध रमापति कीन्हा॥
यह प्रसंग मोहि कहहु पुरारी। मुनि मन मोह आचरज भारी॥
दो0- बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ न कोइ।
जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ॥124(क)॥
सो0-कहउँ राम गुन गाथ भरद्वाज सादर सुनहु।
भव भंजन रघुनाथ भजु तुलसी तजि मान मद॥124(ख)॥

हिमगिरि गुहा एक अति पावनि। बह समीप सुरसरी सुहावनि॥
आश्रम परम पुनीत सुहावा। देखि देवरिषि मन अति भावा॥
निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा। भयउ रमापति पद अनुरागा॥
सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी॥
मुनि गति देखि सुरेस डेराना। कामहि बोलि कीन्ह समाना॥
सहित सहाय जाहु मम हेतू। चकेउ हरषि हियँ जलचरकेतू॥
सुनासीर मन महुँ असि त्रासा। चहत देवरिषि मम पुर बासा॥
जे कामी लोलुप जग माहीं। कुटिल काक इव सबहि डेराहीं॥
दो0-सुख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज।
छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न लाज॥125॥

तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ। निज मायाँ बसंत निरमयऊ॥
कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा। कूजहिं कोकिल गुंजहि भृंगा॥
चली सुहावनि त्रिबिध बयारी। काम कृसानु बढ़ावनिहारी॥
रंभादिक सुरनारि नबीना । सकल असमसर कला प्रबीना॥
करहिं गान बहु तान तरंगा। बहुबिधि क्रीड़हि पानि पतंगा॥
देखि सहाय मदन हरषाना। कीन्हेसि पुनि प्रपंच बिधि नाना॥
काम कला कछु मुनिहि न ब्यापी। निज भयँ डरेउ मनोभव पापी॥
सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासु। बड़ रखवार रमापति जासू॥
दो0- सहित सहाय सभीत अति मानि हारि मन मैन।
गहेसि जाइ मुनि चरन तब कहि सुठि आरत बैन॥126॥

भयउ न नारद मन कछु रोषा। कहि प्रिय बचन काम परितोषा॥
नाइ चरन सिरु आयसु पाई। गयउ मदन तब सहित सहाई॥
मुनि सुसीलता आपनि करनी। सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी॥
सुनि सब कें मन अचरजु आवा। मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा॥
तब नारद गवने सिव पाहीं। जिता काम अहमिति मन माहीं॥
मार चरित संकरहिं सुनाए। अतिप्रिय जानि महेस सिखाए॥
बार बार बिनवउँ मुनि तोहीं। जिमि यह कथा सुनायहु मोहीं॥
तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ। चलेहुँ प्रसंग दुराएडु तबहूँ॥
दो0-संभु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान।
भारद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान॥127॥

राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई॥
संभु बचन मुनि मन नहिं भाए। तब बिरंचि के लोक सिधाए॥
एक बार करतल बर बीना। गावत हरि गुन गान प्रबीना॥
छीरसिंधु गवने मुनिनाथा। जहँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा॥
हरषि मिले उठि रमानिकेता। बैठे आसन रिषिहि समेता॥
बोले बिहसि चराचर राया। बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया॥
काम चरित नारद सब भाषे। जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे॥
अति प्रचंड रघुपति कै माया। जेहि न मोह अस को जग जाया॥
दो0-रूख बदन करि बचन मृदु बोले श्रीभगवान ।
तुम्हरे सुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान॥128॥

सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें। ग्यान बिराग हृदय नहिं जाके॥
ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा। तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा॥
नारद कहेउ सहित अभिमाना। कृपा तुम्हारि सकल भगवाना॥
करुनानिधि मन दीख बिचारी। उर अंकुरेउ गरब तरु भारी॥
बेगि सो मै डारिहउँ उखारी। पन हमार सेवक हितकारी॥
मुनि कर हित मम कौतुक होई। अवसि उपाय करबि मै सोई॥
तब नारद हरि पद सिर नाई। चले हृदयँ अहमिति अधिकाई॥
श्रीपति निज माया तब प्रेरी। सुनहु कठिन करनी तेहि केरी॥
दो0-बिरचेउ मग महुँ नगर तेहिं सत जोजन बिस्तार।
श्रीनिवासपुर तें अधिक रचना बिबिध प्रकार॥129॥

बसहिं नगर सुंदर नर नारी। जनु बहु मनसिज रति तनुधारी॥
तेहिं पुर बसइ सीलनिधि राजा। अगनित हय गय सेन समाजा॥
सत सुरेस सम बिभव बिलासा। रूप तेज बल नीति निवासा॥
बिस्वमोहनी तासु कुमारी। श्री बिमोह जिसु रूपु निहारी॥
सोइ हरिमाया सब गुन खानी। सोभा तासु कि जाइ बखानी॥
करइ स्वयंबर सो नृपबाला। आए तहँ अगनित महिपाला॥
मुनि कौतुकी नगर तेहिं गयऊ। पुरबासिन्ह सब पूछत भयऊ॥
सुनि सब चरित भूपगृहँ आए। करि पूजा नृप मुनि बैठाए॥
दो0-आनि देखाई नारदहि भूपति राजकुमारि।
कहहु नाथ गुन दोष सब एहि के हृदयँ बिचारि॥130॥

देखि रूप मुनि बिरति बिसारी। बड़ी बार लगि रहे निहारी॥
लच्छन तासु बिलोकि भुलाने। हृदयँ हरष नहिं प्रगट बखाने॥
जो एहि बरइ अमर सोइ होई। समरभूमि तेहि जीत न कोई॥
सेवहिं सकल चराचर ताही। बरइ सीलनिधि कन्या जाही॥
लच्छन सब बिचारि उर राखे। कछुक बनाइ भूप सन भाषे॥
सुता सुलच्छन कहि नृप पाहीं। नारद चले सोच मन माहीं॥
करौं जाइ सोइ जतन बिचारी। जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी॥
जप तप कछु न होइ तेहि काला। हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला॥
दो0-एहि अवसर चाहिअ परम सोभा रूप बिसाल।
जो बिलोकि रीझै कुअँरि तब मेलै जयमाल॥131॥

हरि सन मागौं सुंदरताई। होइहि जात गहरु अति भाई॥
मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ। एहि अवसर सहाय सोइ होऊ॥
बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि काला। प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला॥
प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुड़ाने। होइहि काजु हिएँ हरषाने॥
अति आरति कहि कथा सुनाई। करहु कृपा करि होहु सहाई॥
आपन रूप देहु प्रभु मोही। आन भाँति नहिं पावौं ओही॥
जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा। करहु सो बेगि दास मैं तोरा॥
निज माया बल देखि बिसाला। हियँ हँसि बोले दीनदयाला॥
दो0-जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार।
सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार॥132॥

कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी। बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी॥
एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ। कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ॥
माया बिबस भए मुनि मूढ़ा। समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा॥
गवने तुरत तहाँ रिषिराई। जहाँ स्वयंबर भूमि बनाई॥
निज निज आसन बैठे राजा। बहु बनाव करि सहित समाजा॥
मुनि मन हरष रूप अति मोरें। मोहि तजि आनहि बारिहि न भोरें॥
मुनि हित कारन कृपानिधाना। दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना॥
सो चरित्र लखि काहुँ न पावा। नारद जानि सबहिं सिर नावा॥
दो0-रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब भेउ।
बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेउ॥133॥

जेंहि समाज बैंठे मुनि जाई। हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई॥
तहँ बैठ महेस गन दोऊ। बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ॥
करहिं कूटि नारदहि सुनाई। नीकि दीन्हि हरि सुंदरताई॥
रीझहि राजकुअँरि छबि देखी। इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी॥
मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ। हँसहिं संभु गन अति सचु पाएँ॥
जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी। समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी॥
काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा। सो सरूप नृपकन्याँ देखा॥
मर्कट बदन भयंकर देही। देखत हृदयँ क्रोध भा तेही॥
दो0-सखीं संग लै कुअँरि तब चलि जनु राजमराल।
देखत फिरइ महीप सब कर सरोज जयमाल॥134॥

जेहि दिसि बैठे नारद फूली। सो दिसि देहि न बिलोकी भूली॥
पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं। देखि दसा हर गन मुसकाहीं॥
धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला। कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला॥
दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा। नृपसमाज सब भयउ निरासा॥
मुनि अति बिकल मोंहँ मति नाठी। मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी॥
तब हर गन बोले मुसुकाई। निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई॥
अस कहि दोउ भागे भयँ भारी। बदन दीख मुनि बारि निहारी॥
बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा। तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा॥
दो0-होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ।
हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ॥135॥

पुनि जल दीख रूप निज पावा। तदपि हृदयँ संतोष न आवा॥
फरकत अधर कोप मन माहीं। सपदी चले कमलापति पाहीं॥
देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई। जगत मोर उपहास कराई॥
बीचहिं पंथ मिले दनुजारी। संग रमा सोइ राजकुमारी॥
बोले मधुर बचन सुरसाईं। मुनि कहँ चले बिकल की नाईं॥
सुनत बचन उपजा अति क्रोधा। माया बस न रहा मन बोधा॥
पर संपदा सकहु नहिं देखी। तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी॥
मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु। सुरन्ह प्रेरी बिष पान करायहु॥
दो0-असुर सुरा बिष संकरहि आपु रमा मनि चारु।
स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु॥136॥

परम स्वतंत्र न सिर पर कोई। भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई॥
भलेहि मंद मंदेहि भल करहू। बिसमय हरष न हियँ कछु धरहू॥
डहकि डहकि परिचेहु सब काहू। अति असंक मन सदा उछाहू॥
करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा। अब लगि तुम्हहि न काहूँ साधा॥
भले भवन अब बायन दीन्हा। पावहुगे फल आपन कीन्हा॥
बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा। सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा॥
कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी। करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी॥
मम अपकार कीन्ही तुम्ह भारी। नारी बिरहँ तुम्ह होब दुखारी॥
दो0-श्राप सीस धरी हरषि हियँ प्रभु बहु बिनती कीन्हि।
निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि॥137॥

जब हरि माया दूरि निवारी। नहिं तहँ रमा न राजकुमारी॥
तब मुनि अति सभीत हरि चरना। गहे पाहि प्रनतारति हरना॥
मृषा होउ मम श्राप कृपाला। मम इच्छा कह दीनदयाला॥
मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे। कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे॥
जपहु जाइ संकर सत नामा। होइहि हृदयँ तुरंत बिश्रामा॥
कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें। असि परतीति तजहु जनि भोरें॥
जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी। सो न पाव मुनि भगति हमारी॥
अस उर धरि महि बिचरहु जाई। अब न तुम्हहि माया निअराई॥
दो0-बहुबिधि मुनिहि प्रबोधि प्रभु तब भए अंतरधान॥
सत्यलोक नारद चले करत राम गुन गान॥138॥

हर गन मुनिहि जात पथ देखी। बिगतमोह मन हरष बिसेषी॥
अति सभीत नारद पहिं आए। गहि पद आरत बचन सुनाए॥
हर गन हम न बिप्र मुनिराया। बड़ अपराध कीन्ह फल पाया॥
श्राप अनुग्रह करहु कृपाला। बोले नारद दीनदयाला॥
निसिचर जाइ होहु तुम्ह दोऊ। बैभव बिपुल तेज बल होऊ॥
भुजबल बिस्व जितब तुम्ह जहिआ। धरिहहिं बिष्नु मनुज तनु तहिआ।
समर मरन हरि हाथ तुम्हारा। होइहहु मुकुत न पुनि संसारा॥
चले जुगल मुनि पद सिर नाई। भए निसाचर कालहि पाई॥
दो0-एक कलप एहि हेतु प्रभु लीन्ह मनुज अवतार।
सुर रंजन सज्जन सुखद हरि भंजन भुबि भार॥139॥

एहि बिधि जनम करम हरि केरे। सुंदर सुखद बिचित्र घनेरे॥
कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं। चारु चरित नानाबिधि करहीं॥
तब तब कथा मुनीसन्ह गाई। परम पुनीत प्रबंध बनाई॥
बिबिध प्रसंग अनूप बखाने। करहिं न सुनि आचरजु सयाने॥
हरि अनंत हरिकथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥
रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥
यह प्रसंग मैं कहा भवानी। हरिमायाँ मोहहिं मुनि ग्यानी॥
प्रभु कौतुकी प्रनत हितकारी॥सेवत सुलभ सकल दुख हारी॥
सो0-सुर नर मुनि कोउ नाहिं जेहि न मोह माया प्रबल॥
अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया पतिहि॥140॥

अपर हेतु सुनु सैलकुमारी। कहउँ बिचित्र कथा बिस्तारी॥
जेहि कारन अज अगुन अरूपा। ब्रह्म भयउ कोसलपुर भूपा॥
जो प्रभु बिपिन फिरत तुम्ह देखा। बंधु समेत धरें मुनिबेषा॥
जासु चरित अवलोकि भवानी। सती सरीर रहिहु बौरानी॥
अजहुँ न छाया मिटति तुम्हारी। तासु चरित सुनु भ्रम रुज हारी॥
लीला कीन्हि जो तेहिं अवतारा। सो सब कहिहउँ मति अनुसारा॥
भरद्वाज सुनि संकर बानी। सकुचि सप्रेम उमा मुसकानी॥
लगे बहुरि बरने बृषकेतू। सो अवतार भयउ जेहि हेतू॥
दो0-सो मैं तुम्ह सन कहउँ सबु सुनु मुनीस मन लाई॥
राम कथा कलि मल हरनि मंगल करनि सुहाइ॥141॥

स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा॥
दंपति धरम आचरन नीका। अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका॥
नृप उत्तानपाद सुत तासू। ध्रुव हरि भगत भयउ सुत जासू॥
लघु सुत नाम प्रिय्रब्रत ताही। बेद पुरान प्रसंसहि जाही॥
देवहूति पुनि तासु कुमारी। जो मुनि कर्दम कै प्रिय नारी॥
आदिदेव प्रभु दीनदयाला। जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला॥
सांख्य सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना। तत्व बिचार निपुन भगवाना॥
तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला। प्रभु आयसु सब बिधि प्रतिपाला॥
सो0-होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन।
हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु॥142॥

बरबस राज सुतहि तब दीन्हा। नारि समेत गवन बन कीन्हा॥
तीरथ बर नैमिष बिख्याता। अति पुनीत साधक सिधि दाता॥
बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा। तहँ हियँ हरषि चलेउ मनु राजा॥
पंथ जात सोहहिं मतिधीरा। ग्यान भगति जनु धरें सरीरा॥
पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा। हरषि नहाने निरमल नीरा॥
आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी। धरम धुरंधर नृपरिषि जानी॥
जहँ जँह तीरथ रहे सुहाए। मुनिन्ह सकल सादर करवाए॥
कृस सरीर मुनिपट परिधाना। सत समाज नित सुनहिं पुराना ।
दो0-द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग।
बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग॥143॥

करहिं अहार साक फल कंदा। सुमिरहिं ब्रह्म सच्चिदानंदा॥
पुनि हरि हेतु करन तप लागे। बारि अधार मूल फल त्यागे॥
उर अभिलाष निंरंतर होई। देखअ नयन परम प्रभु सोई॥
अगुन अखंड अनंत अनादी। जेहि चिंतहिं परमारथबादी॥
नेति नेति जेहि बेद निरूपा। निजानंद निरुपाधि अनूपा॥
संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें नाना॥
ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई। भगत हेतु लीलातनु गहई॥
जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा। तौ हमार पूजहि अभिलाषा॥
दो0-एहि बिधि बीतें बरष षट सहस बारि आहार।
संबत सप्त सहस्त्र पुनि रहे समीर अधार॥144॥

बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ। ठाढ़े रहे एक पद दोऊ॥
बिधि हरि तप देखि अपारा। मनु समीप आए बहु बारा॥
मागहु बर बहु भाँति लोभाए। परम धीर नहिं चलहिं चलाए॥
अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा। तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा॥
प्रभु सर्बग्य दास निज जानी। गति अनन्य तापस नृप रानी॥
मागु मागु बरु भै नभ बानी। परम गभीर कृपामृत सानी॥
मृतक जिआवनि गिरा सुहाई। श्रबन रंध्र होइ उर जब आई॥
ह्रष्टपुष्ट तन भए सुहाए। मानहुँ अबहिं भवन ते आए॥
दो0-श्रवन सुधा सम बचन सुनि पुलक प्रफुल्लित गात।
बोले मनु करि दंडवत प्रेम न हृदयँ समात॥145॥

सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनु। बिधि हरि हर बंदित पद रेनू॥
सेवत सुलभ सकल सुख दायक। प्रनतपाल सचराचर नायक॥
जौं अनाथ हित हम पर नेहू। तौ प्रसन्न होइ यह बर देहू॥
जो सरूप बस सिव मन माहीं। जेहि कारन मुनि जतन कराहीं॥
जो भुसुंडि मन मानस हंसा। सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा॥
देखहिं हम सो रूप भरि लोचन। कृपा करहु प्रनतारति मोचन॥
दंपति बचन परम प्रिय लागे। मुदुल बिनीत प्रेम रस पागे॥
भगत बछल प्रभु कृपानिधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना॥
दो0-नील सरोरुह नील मनि नील नीरधर स्याम।
लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम॥146॥

सरद मयंक बदन छबि सींवा। चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवा॥
अधर अरुन रद सुंदर नासा। बिधु कर निकर बिनिंदक हासा॥
नव अबुंज अंबक छबि नीकी। चितवनि ललित भावँती जी की॥
भुकुटि मनोज चाप छबि हारी। तिलक ललाट पटल दुतिकारी॥
कुंडल मकर मुकुट सिर भ्राजा। कुटिल केस जनु मधुप समाजा॥
उर श्रीबत्स रुचिर बनमाला। पदिक हार भूषन मनिजाला॥
केहरि कंधर चारु जनेउ। बाहु बिभूषन सुंदर तेऊ॥
करि कर सरि सुभग भुजदंडा। कटि निषंग कर सर कोदंडा॥
दो0-तडित बिनिंदक पीत पट उदर रेख बर तीनि॥
नाभि मनोहर लेति जनु जमुन भवँर छबि छीनि॥147॥

पद राजीव बरनि नहि जाहीं। मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह माहीं॥
बाम भाग सोभति अनुकूला। आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला॥
जासु अंस उपजहिं गुनखानी। अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी॥
भृकुटि बिलास जासु जग होई। राम बाम दिसि सीता सोई॥
छबिसमुद्र हरि रूप बिलोकी। एकटक रहे नयन पट रोकी॥
चितवहिं सादर रूप अनूपा। तृप्ति न मानहिं मनु सतरूपा॥
हरष बिबस तन दसा भुलानी। परे दंड इव गहि पद पानी॥
सिर परसे प्रभु निज कर कंजा। तुरत उठाए करुनापुंजा॥
दो0-बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहि जानि।
मागहु बर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि॥148॥

सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी। धरि धीरजु बोली मृदु बानी॥
नाथ देखि पद कमल तुम्हारे। अब पूरे सब काम हमारे॥
एक लालसा बड़ि उर माही। सुगम अगम कहि जात सो नाहीं॥
तुम्हहि देत अति सुगम गोसाईं। अगम लाग मोहि निज कृपनाईं॥
जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई। बहु संपति मागत सकुचाई॥
तासु प्रभा जान नहिं सोई। तथा हृदयँ मम संसय होई॥
सो तुम्ह जानहु अंतरजामी। पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी॥
सकुच बिहाइ मागु नृप मोहि। मोरें नहिं अदेय कछु तोही॥
दो0-दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ॥
चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ॥149॥

देखि प्रीति सुनि बचन अमोले। एवमस्तु करुनानिधि बोले॥
आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होब मैं आई॥
सतरूपहि बिलोकि कर जोरें। देबि मागु बरु जो रुचि तोरे॥
जो बरु नाथ चतुर नृप मागा। सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा॥
प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई। जदपि भगत हित तुम्हहि सोहाई॥
तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी। ब्रह्म सकल उर अंतरजामी॥
अस समुझत मन संसय होई। कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई॥
जे निज भगत नाथ तव अहहीं। जो सुख पावहिं जो गति लहहीं॥
दो0-सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोइ निज चरन सनेहु॥
सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु॥150॥