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"बाल काण्ड / भाग ६ / रामचरितमानस / तुलसीदास" के अवतरणों में अंतर

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भूप सहस दस एकहि बारा। लगे उठावन टरइ न टारा॥
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डगइ न संभु सरासन कैसें। कामी बचन सती मनु जैसें॥
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सब नृप भए जोगु उपहासी। जैसें बिनु बिराग संन्यासी॥
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कीरति बिजय बीरता भारी। चले चाप कर बरबस हारी॥
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श्रीहत भए हारि हियँ राजा। बैठे निज निज जाइ समाजा॥
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नृपन्ह बिलोकि जनकु अकुलाने। बोले बचन रोष जनु साने॥
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दीप दीप के भूपति नाना। आए सुनि हम जो पनु ठाना॥
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देव दनुज धरि मनुज सरीरा। बिपुल बीर आए रनधीरा॥
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दो0-कुअँरि मनोहर बिजय बड़ि कीरति अति कमनीय।
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पावनिहार बिरंचि जनु रचेउ न धनु दमनीय॥251॥
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कहहु काहि यहु लाभु न भावा। काहुँ न संकर चाप चढ़ावा॥
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रहउ चढ़ाउब तोरब भाई। तिलु भरि भूमि न सके छड़ाई॥
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अब जनि कोउ माखै भट मानी। बीर बिहीन मही मैं जानी॥
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तजहु आस निज निज गृह जाहू। लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू॥
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सुकृत जाइ जौं पनु परिहरऊँ। कुअँरि कुआरि रहउ का करऊँ॥
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जो जनतेउँ बिनु भट भुबि भाई। तौ पनु करि होतेउँ न हँसाई॥
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जनक बचन सुनि सब नर नारी। देखि जानकिहि भए दुखारी॥
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माखे लखनु कुटिल भइँ भौंहें। रदपट फरकत नयन रिसौंहें॥
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दो0-कहि न सकत रघुबीर डर लगे बचन जनु बान।
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नाइ राम पद कमल सिरु बोले गिरा प्रमान॥252॥
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रघुबंसिन्ह महुँ जहँ कोउ होई। तेहिं समाज अस कहइ न कोई॥
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कही जनक जसि अनुचित बानी। बिद्यमान रघुकुल मनि जानी॥
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सुनहु भानुकुल पंकज भानू। कहउँ सुभाउ न कछु अभिमानू॥
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जौ तुम्हारि अनुसासन पावौं। कंदुक इव ब्रह्मांड उठावौं॥
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काचे घट जिमि डारौं फोरी। सकउँ मेरु मूलक जिमि तोरी॥
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तव प्रताप महिमा भगवाना। को बापुरो पिनाक पुराना॥
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नाथ जानि अस आयसु होऊ। कौतुकु करौं बिलोकिअ सोऊ॥
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कमल नाल जिमि चाफ चढ़ावौं। जोजन सत प्रमान लै धावौं॥
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दो0-तोरौं छत्रक दंड जिमि तव प्रताप बल नाथ।
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जौं न करौं प्रभु पद सपथ कर न धरौं धनु भाथ॥253॥
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लखन सकोप बचन जे बोले। डगमगानि महि दिग्गज डोले॥
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सकल लोक सब भूप डेराने। सिय हियँ हरषु जनकु सकुचाने॥
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गुर रघुपति सब मुनि मन माहीं। मुदित भए पुनि पुनि पुलकाहीं॥
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सयनहिं रघुपति लखनु नेवारे। प्रेम समेत निकट बैठारे॥
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बिस्वामित्र समय सुभ जानी। बोले अति सनेहमय बानी॥
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उठहु राम भंजहु भवचापा। मेटहु तात जनक परितापा॥
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सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा। हरषु बिषादु न कछु उर आवा॥
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ठाढ़े भए उठि सहज सुभाएँ। ठवनि जुबा मृगराजु लजाएँ॥
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दो0-उदित उदयगिरि मंच पर रघुबर बालपतंग।
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बिकसे संत सरोज सब हरषे लोचन भृंग॥254॥
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नृपन्ह केरि आसा निसि नासी। बचन नखत अवली न प्रकासी॥
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मानी महिप कुमुद सकुचाने। कपटी भूप उलूक लुकाने॥
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भए बिसोक कोक मुनि देवा। बरिसहिं सुमन जनावहिं सेवा॥
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गुर पद बंदि सहित अनुरागा। राम मुनिन्ह सन आयसु मागा॥
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सहजहिं चले सकल जग स्वामी। मत्त मंजु बर कुंजर गामी॥
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चलत राम सब पुर नर नारी। पुलक पूरि तन भए सुखारी॥
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बंदि पितर सुर सुकृत सँभारे। जौं कछु पुन्य प्रभाउ हमारे॥
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तौ सिवधनु मृनाल की नाईं। तोरहुँ राम गनेस गोसाईं॥
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दो0-रामहि प्रेम समेत लखि सखिन्ह समीप बोलाइ।
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सीता मातु सनेह बस बचन कहइ बिलखाइ॥255॥
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सखि सब कौतुक देखनिहारे। जेठ कहावत हितू हमारे॥
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कोउ न बुझाइ कहइ गुर पाहीं। ए बालक असि हठ भलि नाहीं॥
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रावन बान छुआ नहिं चापा। हारे सकल भूप करि दापा॥
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सो धनु राजकुअँर कर देहीं। बाल मराल कि मंदर लेहीं॥
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भूप सयानप सकल सिरानी। सखि बिधि गति कछु जाति न जानी॥
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बोली चतुर सखी मृदु बानी। तेजवंत लघु गनिअ न रानी॥
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कहँ कुंभज कहँ सिंधु अपारा। सोषेउ सुजसु सकल संसारा॥
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रबि मंडल देखत लघु लागा। उदयँ तासु तिभुवन तम भागा॥
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दो0-मंत्र परम लघु जासु बस बिधि हरि हर सुर सर्ब।
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महामत्त गजराज कहुँ बस कर अंकुस खर्ब॥256॥
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काम कुसुम धनु सायक लीन्हे। सकल भुवन अपने बस कीन्हे॥
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देबि तजिअ संसउ अस जानी। भंजब धनुष रामु सुनु रानी॥
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सखी बचन सुनि भै परतीती। मिटा बिषादु बढ़ी अति प्रीती॥
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तब रामहि बिलोकि बैदेही। सभय हृदयँ बिनवति जेहि तेही॥
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मनहीं मन मनाव अकुलानी। होहु प्रसन्न महेस भवानी॥
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करहु सफल आपनि सेवकाई। करि हितु हरहु चाप गरुआई॥
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गननायक बरदायक देवा। आजु लगें कीन्हिउँ तुअ सेवा॥
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बार बार बिनती सुनि मोरी। करहु चाप गुरुता अति थोरी॥
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दो0-देखि देखि रघुबीर तन सुर मनाव धरि धीर॥
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भरे बिलोचन प्रेम जल पुलकावली सरीर॥257॥
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नीकें निरखि नयन भरि सोभा। पितु पनु सुमिरि बहुरि मनु छोभा॥
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अहह तात दारुनि हठ ठानी। समुझत नहिं कछु लाभु न हानी॥
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सचिव सभय सिख देइ न कोई। बुध समाज बड़ अनुचित होई॥
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कहँ धनु कुलिसहु चाहि कठोरा। कहँ स्यामल मृदुगात किसोरा॥
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बिधि केहि भाँति धरौं उर धीरा। सिरस सुमन कन बेधिअ हीरा॥
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सकल सभा कै मति भै भोरी। अब मोहि संभुचाप गति तोरी॥
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निज जड़ता लोगन्ह पर डारी। होहि हरुअ रघुपतिहि निहारी॥
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अति परिताप सीय मन माही। लव निमेष जुग सब सय जाहीं॥
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दो0-प्रभुहि चितइ पुनि चितव महि राजत लोचन लोल।
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खेलत मनसिज मीन जुग जनु बिधु मंडल डोल॥258॥
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गिरा अलिनि मुख पंकज रोकी। प्रगट न लाज निसा अवलोकी॥
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लोचन जलु रह लोचन कोना। जैसे परम कृपन कर सोना॥
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सकुची ब्याकुलता बड़ि जानी। धरि धीरजु प्रतीति उर आनी॥
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तन मन बचन मोर पनु साचा। रघुपति पद सरोज चितु राचा॥
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तौ भगवानु सकल उर बासी। करिहिं मोहि रघुबर कै दासी॥
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जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संहेहू॥
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प्रभु तन चितइ प्रेम तन ठाना। कृपानिधान राम सबु जाना॥
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सियहि बिलोकि तकेउ धनु कैसे। चितव गरुरु लघु ब्यालहि जैसे॥
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दो0-लखन लखेउ रघुबंसमनि ताकेउ हर कोदंडु।
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पुलकि गात बोले बचन चरन चापि ब्रह्मांडु॥259॥
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दिसकुंजरहु कमठ अहि कोला। धरहु धरनि धरि धीर न डोला॥
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रामु चहहिं संकर धनु तोरा। होहु सजग सुनि आयसु मोरा॥
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चाप सपीप रामु जब आए। नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए॥
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सब कर संसउ अरु अग्यानू। मंद महीपन्ह कर अभिमानू॥
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भृगुपति केरि गरब गरुआई। सुर मुनिबरन्ह केरि कदराई॥
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सिय कर सोचु जनक पछितावा। रानिन्ह कर दारुन दुख दावा॥
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संभुचाप बड बोहितु पाई। चढे जाइ सब संगु बनाई॥
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राम बाहुबल सिंधु अपारू। चहत पारु नहि कोउ कड़हारू॥
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दो0-राम बिलोके लोग सब चित्र लिखे से देखि।
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चितई सीय कृपायतन जानी बिकल बिसेषि॥260॥
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देखी बिपुल बिकल बैदेही। निमिष बिहात कलप सम तेही॥
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तृषित बारि बिनु जो तनु त्यागा। मुएँ करइ का सुधा तड़ागा॥
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का बरषा सब कृषी सुखानें। समय चुकें पुनि का पछितानें॥
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अस जियँ जानि जानकी देखी। प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी॥
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गुरहि प्रनामु मनहि मन कीन्हा। अति लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा॥
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दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ। पुनि नभ धनु मंडल सम भयऊ॥
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लेत चढ़ावत खैंचत गाढ़ें। काहुँ न लखा देख सबु ठाढ़ें॥
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तेहि छन राम मध्य धनु तोरा। भरे भुवन धुनि घोर कठोरा॥
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छं0-भरे भुवन घोर कठोर रव रबि बाजि तजि मारगु चले।
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चिक्करहिं दिग्गज डोल महि अहि कोल कूरुम कलमले॥
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सुर असुर मुनि कर कान दीन्हें सकल बिकल बिचारहीं।
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कोदंड खंडेउ राम तुलसी जयति बचन उचारही॥
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सो0-संकर चापु जहाजु सागरु रघुबर बाहुबलु।
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बूड़ सो सकल समाजु चढ़ा जो प्रथमहिं मोह बस॥261॥
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प्रभु दोउ चापखंड महि डारे। देखि लोग सब भए सुखारे॥
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कोसिकरुप पयोनिधि पावन। प्रेम बारि अवगाहु सुहावन॥
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रामरूप राकेसु निहारी। बढ़त बीचि पुलकावलि भारी॥
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बाजे नभ गहगहे निसाना। देवबधू नाचहिं करि गाना॥
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ब्रह्मादिक सुर सिद्ध मुनीसा। प्रभुहि प्रसंसहि देहिं असीसा॥
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बरिसहिं सुमन रंग बहु माला। गावहिं किंनर गीत रसाला॥
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रही भुवन भरि जय जय बानी। धनुषभंग धुनि जात न जानी॥
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मुदित कहहिं जहँ तहँ नर नारी। भंजेउ राम संभुधनु भारी॥
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दो0-बंदी मागध सूतगन बिरुद बदहिं मतिधीर।
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करहिं निछावरि लोग सब हय गय धन मनि चीर॥262॥
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झाँझि मृदंग संख सहनाई। भेरि ढोल दुंदुभी सुहाई॥
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बाजहिं बहु बाजने सुहाए। जहँ तहँ जुबतिन्ह मंगल गाए॥
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सखिन्ह सहित हरषी अति रानी। सूखत धान परा जनु पानी॥
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जनक लहेउ सुखु सोचु बिहाई। पैरत थकें थाह जनु पाई॥
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श्रीहत भए भूप धनु टूटे। जैसें दिवस दीप छबि छूटे॥
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सीय सुखहि बरनिअ केहि भाँती। जनु चातकी पाइ जलु स्वाती॥
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रामहि लखनु बिलोकत कैसें। ससिहि चकोर किसोरकु जैसें॥
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सतानंद तब आयसु दीन्हा। सीताँ गमनु राम पहिं कीन्हा॥
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दो0-संग सखीं सुदंर चतुर गावहिं मंगलचार।
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गवनी बाल मराल गति सुषमा अंग अपार॥263॥
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सखिन्ह मध्य सिय सोहति कैसे। छबिगन मध्य महाछबि जैसें॥
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कर सरोज जयमाल सुहाई। बिस्व बिजय सोभा जेहिं छाई॥
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तन सकोचु मन परम उछाहू। गूढ़ प्रेमु लखि परइ न काहू॥
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जाइ समीप राम छबि देखी। रहि जनु कुँअरि चित्र अवरेखी॥
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चतुर सखीं लखि कहा बुझाई। पहिरावहु जयमाल सुहाई॥
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सुनत जुगल कर माल उठाई। प्रेम बिबस पहिराइ न जाई॥
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सोहत जनु जुग जलज सनाला। ससिहि सभीत देत जयमाला॥
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गावहिं छबि अवलोकि सहेली। सियँ जयमाल राम उर मेली॥
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सो0-रघुबर उर जयमाल देखि देव बरिसहिं सुमन।
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सकुचे सकल भुआल जनु बिलोकि रबि कुमुदगन॥264॥
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पुर अरु ब्योम बाजने बाजे। खल भए मलिन साधु सब राजे॥
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सुर किंनर नर नाग मुनीसा। जय जय जय कहि देहिं असीसा॥
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नाचहिं गावहिं बिबुध बधूटीं। बार बार कुसुमांजलि छूटीं॥
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जहँ तहँ बिप्र बेदधुनि करहीं। बंदी बिरदावलि उच्चरहीं॥
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महि पाताल नाक जसु ब्यापा। राम बरी सिय भंजेउ चापा॥
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करहिं आरती पुर नर नारी। देहिं निछावरि बित्त बिसारी॥
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सोहति सीय राम कै जौरी। छबि सिंगारु मनहुँ एक ठोरी॥
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सखीं कहहिं प्रभुपद गहु सीता। करति न चरन परस अति भीता॥
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दो0-गौतम तिय गति सुरति करि नहिं परसति पग पानि।
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मन बिहसे रघुबंसमनि प्रीति अलौकिक जानि॥265॥
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तब सिय देखि भूप अभिलाषे। कूर कपूत मूढ़ मन माखे॥
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उठि उठि पहिरि सनाह अभागे। जहँ तहँ गाल बजावन लागे॥
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लेहु छड़ाइ सीय कह कोऊ। धरि बाँधहु नृप बालक दोऊ॥
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तोरें धनुषु चाड़ नहिं सरई। जीवत हमहि कुअँरि को बरई॥
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जौं बिदेहु कछु करै सहाई। जीतहु समर सहित दोउ भाई॥
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साधु भूप बोले सुनि बानी। राजसमाजहि लाज लजानी॥
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बलु प्रतापु बीरता बड़ाई। नाक पिनाकहि संग सिधाई॥
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सोइ सूरता कि अब कहुँ पाई। असि बुधि तौ बिधि मुहँ मसि लाई॥
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दो0-देखहु रामहि नयन भरि तजि इरिषा मदु कोहु।
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लखन रोषु पावकु प्रबल जानि सलभ जनि होहु॥266॥
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बैनतेय बलि जिमि चह कागू। जिमि ससु चहै नाग अरि भागू॥
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जिमि चह कुसल अकारन कोही। सब संपदा चहै सिवद्रोही॥
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लोभी लोलुप कल कीरति चहई। अकलंकता कि कामी लहई॥
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हरि पद बिमुख परम गति चाहा। तस तुम्हार लालचु नरनाहा॥
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कोलाहलु सुनि सीय सकानी। सखीं लवाइ गईं जहँ रानी॥
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रामु सुभायँ चले गुरु पाहीं। सिय सनेहु बरनत मन माहीं॥
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रानिन्ह सहित सोचबस सीया। अब धौं बिधिहि काह करनीया॥
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भूप बचन सुनि इत उत तकहीं। लखनु राम डर बोलि न सकहीं॥
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दो0-अरुन नयन भृकुटी कुटिल चितवत नृपन्ह सकोप।
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मनहुँ मत्त गजगन निरखि सिंघकिसोरहि चोप॥267॥
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खरभरु देखि बिकल पुर नारीं। सब मिलि देहिं महीपन्ह गारीं॥
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तेहिं अवसर सुनि सिव धनु भंगा। आयसु भृगुकुल कमल पतंगा॥
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देखि महीप सकल सकुचाने। बाज झपट जनु लवा लुकाने॥
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गौरि सरीर भूति भल भ्राजा। भाल बिसाल त्रिपुंड बिराजा॥
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सीस जटा ससिबदनु सुहावा। रिसबस कछुक अरुन होइ आवा॥
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भृकुटी कुटिल नयन रिस राते। सहजहुँ चितवत मनहुँ रिसाते॥
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बृषभ कंध उर बाहु बिसाला। चारु जनेउ माल मृगछाला॥
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कटि मुनि बसन तून दुइ बाँधें। धनु सर कर कुठारु कल काँधें॥
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दो0-सांत बेषु करनी कठिन बरनि न जाइ सरुप।
 +
धरि मुनितनु जनु बीर रसु आयउ जहँ सब भूप॥268॥
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देखत भृगुपति बेषु कराला। उठे सकल भय बिकल भुआला॥
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पितु समेत कहि कहि निज नामा। लगे करन सब दंड प्रनामा॥
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जेहि सुभायँ चितवहिं हितु जानी। सो जानइ जनु आइ खुटानी॥
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जनक बहोरि आइ सिरु नावा। सीय बोलाइ प्रनामु करावा॥
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आसिष दीन्हि सखीं हरषानीं। निज समाज लै गई सयानीं॥
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बिस्वामित्रु मिले पुनि आई। पद सरोज मेले दोउ भाई॥
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रामु लखनु दसरथ के ढोटा। दीन्हि असीस देखि भल जोटा॥
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रामहि चितइ रहे थकि लोचन। रूप अपार मार मद मोचन॥
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दो0-बहुरि बिलोकि बिदेह सन कहहु काह अति भीर॥
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पूछत जानि अजान जिमि ब्यापेउ कोपु सरीर॥269॥
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समाचार कहि जनक सुनाए। जेहि कारन महीप सब आए॥
 +
सुनत बचन फिरि अनत निहारे। देखे चापखंड महि डारे॥
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अति रिस बोले बचन कठोरा। कहु जड़ जनक धनुष कै तोरा॥
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बेगि देखाउ मूढ़ न त आजू। उलटउँ महि जहँ लहि तव राजू॥
 +
अति डरु उतरु देत नृपु नाहीं। कुटिल भूप हरषे मन माहीं॥
 +
सुर मुनि नाग नगर नर नारी॥सोचहिं सकल त्रास उर भारी॥
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मन पछिताति सीय महतारी। बिधि अब सँवरी बात बिगारी॥
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भृगुपति कर सुभाउ सुनि सीता। अरध निमेष कलप सम बीता॥
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दो0-सभय बिलोके लोग सब जानि जानकी भीरु।
 +
हृदयँ न हरषु बिषादु कछु बोले श्रीरघुबीरु॥270॥
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मासपारायण, नवाँ विश्राम
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नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा॥
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आयसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही॥
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सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरि करनी करि करिअ लराई॥
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सुनहु राम जेहिं सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा॥
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सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा॥
 +
सुनि मुनि बचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अपमाने॥
 +
बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं॥
 +
एहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू॥
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दो0-रे नृप बालक कालबस बोलत तोहि न सँमार॥
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धनुही सम तिपुरारि धनु बिदित सकल संसार॥271॥
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 +
लखन कहा हँसि हमरें जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना॥
 +
का छति लाभु जून धनु तौरें। देखा राम नयन के भोरें॥
 +
छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू ।
 +
बोले चितइ परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा॥
 +
बालकु बोलि बधउँ नहिं तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही॥
 +
बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्व बिदित छत्रियकुल द्रोही॥
 +
भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही॥
 +
सहसबाहु भुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा॥
 +
दो0-मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।
 +
गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर॥272॥
 +
 +
बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महा भटमानी॥
 +
पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू। चहत उड़ावन फूँकि पहारू॥
 +
इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं॥
 +
देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना॥
 +
भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहउँ रिस रोकी॥
 +
सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरें कुल इन्ह पर न सुराई॥
 +
बधें पापु अपकीरति हारें। मारतहूँ पा परिअ तुम्हारें॥
 +
कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा। ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा॥
 +
दो0-जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर।
 +
सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गभीर॥273॥
 +
 +
कौसिक सुनहु मंद यहु बालकु। कुटिल कालबस निज कुल घालकु॥
 +
भानु बंस राकेस कलंकू। निपट निरंकुस अबुध असंकू॥
 +
काल कवलु होइहि छन माहीं। कहउँ पुकारि खोरि मोहि नाहीं॥
 +
तुम्ह हटकउ जौं चहहु उबारा। कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा॥
 +
लखन कहेउ मुनि सुजस तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा॥
 +
अपने मुँह तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी॥
 +
नहिं संतोषु त पुनि कछु कहहू। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू॥
 +
बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा॥
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दो0-सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।
 +
बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु॥274॥
 +
 +
तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागि बोलावा॥
 +
सुनत लखन के बचन कठोरा। परसु सुधारि धरेउ कर घोरा॥
 +
अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू। कटुबादी बालकु बधजोगू॥
 +
बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा। अब यहु मरनिहार भा साँचा॥
 +
कौसिक कहा छमिअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिं न साधू॥
 +
खर कुठार मैं अकरुन कोही। आगें अपराधी गुरुद्रोही॥
 +
उतर देत छोड़उँ बिनु मारें। केवल कौसिक सील तुम्हारें॥
 +
न त एहि काटि कुठार कठोरें। गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरें॥
 +
दो0-गाधिसूनु कह हृदयँ हँसि मुनिहि हरिअरइ सूझ।
 +
अयमय खाँड न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ॥275॥
 +
 +
कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहि जान बिदित संसारा॥
 +
माता पितहि उरिन भए नीकें। गुर रिनु रहा सोचु बड़ जीकें॥
 +
सो जनु हमरेहि माथे काढ़ा। दिन चलि गए ब्याज बड़ बाढ़ा॥
 +
अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली॥
 +
सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा॥
 +
भृगुबर परसु देखावहु मोही। बिप्र बिचारि बचउँ नृपद्रोही॥
 +
मिले न कबहुँ सुभट रन गाढ़े। द्विज देवता घरहि के बाढ़े॥
 +
अनुचित कहि सब लोग पुकारे। रघुपति सयनहिं लखनु नेवारे॥
 +
दो0-लखन उतर आहुति सरिस भृगुबर कोपु कृसानु।
 +
बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु॥276॥
 +
 +
नाथ करहु बालक पर छोहू। सूध दूधमुख करिअ न कोहू॥
 +
जौं पै प्रभु प्रभाउ कछु जाना। तौ कि बराबरि करत अयाना॥
 +
जौं लरिका कछु अचगरि करहीं। गुर पितु मातु मोद मन भरहीं॥
 +
करिअ कृपा सिसु सेवक जानी। तुम्ह सम सील धीर मुनि ग्यानी॥
 +
राम बचन सुनि कछुक जुड़ाने। कहि कछु लखनु बहुरि मुसकाने॥
 +
हँसत देखि नख सिख रिस ब्यापी। राम तोर भ्राता बड़ पापी॥
 +
गौर सरीर स्याम मन माहीं। कालकूटमुख पयमुख नाहीं॥
 +
सहज टेढ़ अनुहरइ न तोही। नीचु मीचु सम देख न मौहीं॥
 +
दो0-लखन कहेउ हँसि सुनहु मुनि क्रोधु पाप कर मूल।
 +
जेहि बस जन अनुचित करहिं चरहिं बिस्व प्रतिकूल॥277॥
 +
 +
मैं तुम्हार अनुचर मुनिराया। परिहरि कोपु करिअ अब दाया॥
 +
टूट चाप नहिं जुरहि रिसाने। बैठिअ होइहिं पाय पिराने॥
 +
जौ अति प्रिय तौ करिअ उपाई। जोरिअ कोउ बड़ गुनी बोलाई॥
 +
बोलत लखनहिं जनकु डेराहीं। मष्ट करहु अनुचित भल नाहीं॥
 +
थर थर कापहिं पुर नर नारी। छोट कुमार खोट बड़ भारी॥
 +
भृगुपति सुनि सुनि निरभय बानी। रिस तन जरइ होइ बल हानी॥
 +
बोले रामहि देइ निहोरा। बचउँ बिचारि बंधु लघु तोरा॥
 +
मनु मलीन तनु सुंदर कैसें। बिष रस भरा कनक घटु जैसैं॥
 +
दो0- सुनि लछिमन बिहसे बहुरि नयन तरेरे राम।
 +
गुर समीप गवने सकुचि परिहरि बानी बाम॥278॥
 +
 +
अति बिनीत मृदु सीतल बानी। बोले रामु जोरि जुग पानी॥
 +
सुनहु नाथ तुम्ह सहज सुजाना। बालक बचनु करिअ नहिं काना॥
 +
बररै बालक एकु सुभाऊ। इन्हहि न संत बिदूषहिं काऊ॥
 +
तेहिं नाहीं कछु काज बिगारा। अपराधी में नाथ तुम्हारा॥
 +
कृपा कोपु बधु बँधब गोसाईं। मो पर करिअ दास की नाई॥
 +
कहिअ बेगि जेहि बिधि रिस जाई। मुनिनायक सोइ करौं उपाई॥
 +
कह मुनि राम जाइ रिस कैसें। अजहुँ अनुज तव चितव अनैसें॥
 +
एहि के कंठ कुठारु न दीन्हा। तौ मैं काह कोपु करि कीन्हा॥
 +
दो0-गर्भ स्त्रवहिं अवनिप रवनि सुनि कुठार गति घोर।
 +
परसु अछत देखउँ जिअत बैरी भूपकिसोर॥279॥
 +
 +
बहइ न हाथु दहइ रिस छाती। भा कुठारु कुंठित नृपघाती॥
 +
भयउ बाम बिधि फिरेउ सुभाऊ। मोरे हृदयँ कृपा कसि काऊ॥
 +
आजु दया दुखु दुसह सहावा। सुनि सौमित्र बिहसि सिरु नावा॥
 +
बाउ कृपा मूरति अनुकूला। बोलत बचन झरत जनु फूला॥
 +
जौं पै कृपाँ जरिहिं मुनि गाता। क्रोध भएँ तनु राख बिधाता॥
 +
देखु जनक हठि बालक एहू। कीन्ह चहत जड़ जमपुर गेहू॥
 +
बेगि करहु किन आँखिन्ह ओटा। देखत छोट खोट नृप ढोटा॥
 +
बिहसे लखनु कहा मन माहीं। मूदें आँखि कतहुँ कोउ नाहीं॥
 +
दो0-परसुरामु तब राम प्रति बोले उर अति क्रोधु।
 +
संभु सरासनु तोरि सठ करसि हमार प्रबोधु॥280॥
 +
 +
बंधु कहइ कटु संमत तोरें। तू छल बिनय करसि कर जोरें॥
 +
करु परितोषु मोर संग्रामा। नाहिं त छाड़ कहाउब रामा॥
 +
छलु तजि करहि समरु सिवद्रोही। बंधु सहित न त मारउँ तोही॥
 +
भृगुपति बकहिं कुठार उठाएँ। मन मुसकाहिं रामु सिर नाएँ॥
 +
गुनह लखन कर हम पर रोषू। कतहुँ सुधाइहु ते बड़ दोषू॥
 +
टेढ़ जानि सब बंदइ काहू। बक्र चंद्रमहि ग्रसइ न राहू॥
 +
राम कहेउ रिस तजिअ मुनीसा। कर कुठारु आगें यह सीसा॥
 +
जेंहिं रिस जाइ करिअ सोइ स्वामी। मोहि जानि आपन अनुगामी॥
 +
दो0-प्रभुहि सेवकहि समरु कस तजहु बिप्रबर रोसु।
 +
बेषु बिलोकें कहेसि कछु बालकहू नहिं दोसु॥281॥
 +
 +
देखि कुठार बान धनु धारी। भै लरिकहि रिस बीरु बिचारी॥
 +
नामु जान पै तुम्हहि न चीन्हा। बंस सुभायँ उतरु तेंहिं दीन्हा॥
 +
जौं तुम्ह औतेहु मुनि की नाईं। पद रज सिर सिसु धरत गोसाईं॥
 +
छमहु चूक अनजानत केरी। चहिअ बिप्र उर कृपा घनेरी॥
 +
हमहि तुम्हहि सरिबरि कसि नाथा॥कहहु न कहाँ चरन कहँ माथा॥
 +
राम मात्र लघु नाम हमारा। परसु सहित बड़ नाम तोहारा॥
 +
देव एकु गुनु धनुष हमारें। नव गुन परम पुनीत तुम्हारें॥
 +
सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे। छमहु बिप्र अपराध हमारे॥
 +
दो0-बार बार मुनि बिप्रबर कहा राम सन राम।
 +
बोले भृगुपति सरुष हसि तहूँ बंधु सम बाम॥282॥
 +
 +
निपटहिं द्विज करि जानहि मोही। मैं जस बिप्र सुनावउँ तोही॥
 +
चाप स्त्रुवा सर आहुति जानू। कोप मोर अति घोर कृसानु॥
 +
समिधि सेन चतुरंग सुहाई। महा महीप भए पसु आई॥
 +
मै एहि परसु काटि बलि दीन्हे। समर जग्य जप कोटिन्ह कीन्हे॥
 +
मोर प्रभाउ बिदित नहिं तोरें। बोलसि निदरि बिप्र के भोरें॥
 +
भंजेउ चापु दापु बड़ बाढ़ा। अहमिति मनहुँ जीति जगु ठाढ़ा॥
 +
राम कहा मुनि कहहु बिचारी। रिस अति बड़ि लघु चूक हमारी॥
 +
छुअतहिं टूट पिनाक पुराना। मैं कहि हेतु करौं अभिमाना॥
 +
दो0-जौं हम निदरहिं बिप्र बदि सत्य सुनहु भृगुनाथ।
 +
तौ अस को जग सुभटु जेहि भय बस नावहिं माथ॥283॥
 +
 +
देव दनुज भूपति भट नाना। समबल अधिक होउ बलवाना॥
 +
जौं रन हमहि पचारै कोऊ। लरहिं सुखेन कालु किन होऊ॥
 +
छत्रिय तनु धरि समर सकाना। कुल कलंकु तेहिं पावँर आना॥
 +
कहउँ सुभाउ न कुलहि प्रसंसी। कालहु डरहिं न रन रघुबंसी॥
 +
बिप्रबंस कै असि प्रभुताई। अभय होइ जो तुम्हहि डेराई॥
 +
सुनु मृदु गूढ़ बचन रघुपति के। उघरे पटल परसुधर मति के॥
 +
राम रमापति कर धनु लेहू। खैंचहु मिटै मोर संदेहू॥
 +
देत चापु आपुहिं चलि गयऊ। परसुराम मन बिसमय भयऊ॥
 +
दो0-जाना राम प्रभाउ तब पुलक प्रफुल्लित गात।
 +
जोरि पानि बोले बचन ह्दयँ न प्रेमु अमात॥284॥
 +
 +
जय रघुबंस बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृसानु॥
 +
जय सुर बिप्र धेनु हितकारी। जय मद मोह कोह भ्रम हारी॥
 +
बिनय सील करुना गुन सागर। जयति बचन रचना अति नागर॥
 +
सेवक सुखद सुभग सब अंगा। जय सरीर छबि कोटि अनंगा॥
 +
करौं काह मुख एक प्रसंसा। जय महेस मन मानस हंसा॥
 +
अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता। छमहु छमामंदिर दोउ भ्राता॥
 +
कहि जय जय जय रघुकुलकेतू। भृगुपति गए बनहि तप हेतू॥
 +
अपभयँ कुटिल महीप डेराने। जहँ तहँ कायर गवँहिं पराने॥
 +
दो0-देवन्ह दीन्हीं दुंदुभीं प्रभु पर बरषहिं फूल।
 +
हरषे पुर नर नारि सब मिटी मोहमय सूल॥285॥
 +
 +
अति गहगहे बाजने बाजे। सबहिं मनोहर मंगल साजे॥
 +
जूथ जूथ मिलि सुमुख सुनयनीं। करहिं गान कल कोकिलबयनी॥
 +
सुखु बिदेह कर बरनि न जाई। जन्मदरिद्र मनहुँ निधि पाई॥
 +
गत त्रास भइ सीय सुखारी। जनु बिधु उदयँ चकोरकुमारी॥
 +
जनक कीन्ह कौसिकहि प्रनामा। प्रभु प्रसाद धनु भंजेउ रामा॥
 +
मोहि कृतकृत्य कीन्ह दुहुँ भाईं। अब जो उचित सो कहिअ गोसाई॥
 +
कह मुनि सुनु नरनाथ प्रबीना। रहा बिबाहु चाप आधीना॥
 +
टूटतहीं धनु भयउ बिबाहू। सुर नर नाग बिदित सब काहु॥
 +
दो0-तदपि जाइ तुम्ह करहु अब जथा बंस ब्यवहारु।
 +
बूझि बिप्र कुलबृद्ध गुर बेद बिदित आचारु॥286॥
 +
 +
दूत अवधपुर पठवहु जाई। आनहिं नृप दसरथहि बोलाई॥
 +
मुदित राउ कहि भलेहिं कृपाला। पठए दूत बोलि तेहि काला॥
 +
बहुरि महाजन सकल बोलाए। आइ सबन्हि सादर सिर नाए॥
 +
हाट बाट मंदिर सुरबासा। नगरु सँवारहु चारिहुँ पासा॥
 +
हरषि चले निज निज गृह आए। पुनि परिचारक बोलि पठाए॥
 +
रचहु बिचित्र बितान बनाई। सिर धरि बचन चले सचु पाई॥
 +
पठए बोलि गुनी तिन्ह नाना। जे बितान बिधि कुसल सुजाना॥
 +
बिधिहि बंदि तिन्ह कीन्ह अरंभा। बिरचे कनक कदलि के खंभा॥
 +
दो0-हरित मनिन्ह के पत्र फल पदुमराग के फूल।
 +
रचना देखि बिचित्र अति मनु बिरंचि कर भूल॥287॥
 +
 +
बेनि हरित मनिमय सब कीन्हे। सरल सपरब परहिं नहिं चीन्हे॥
 +
कनक कलित अहिबेल बनाई। लखि नहि परइ सपरन सुहाई॥
 +
तेहि के रचि पचि बंध बनाए। बिच बिच मुकता दाम सुहाए॥
 +
मानिक मरकत कुलिस पिरोजा। चीरि कोरि पचि रचे सरोजा॥
 +
किए भृंग बहुरंग बिहंगा। गुंजहिं कूजहिं पवन प्रसंगा॥
 +
सुर प्रतिमा खंभन गढ़ी काढ़ी। मंगल द्रब्य लिएँ सब ठाढ़ी॥
 +
चौंकें भाँति अनेक पुराईं। सिंधुर मनिमय सहज सुहाई॥
 +
दो0-सौरभ पल्लव सुभग सुठि किए नीलमनि कोरि॥
 +
हेम बौर मरकत घवरि लसत पाटमय डोरि॥288॥
 +
 +
रचे रुचिर बर बंदनिबारे। मनहुँ मनोभवँ फंद सँवारे॥
 +
मंगल कलस अनेक बनाए। ध्वज पताक पट चमर सुहाए॥
 +
दीप मनोहर मनिमय नाना। जाइ न बरनि बिचित्र बिताना॥
 +
जेहिं मंडप दुलहिनि बैदेही। सो बरनै असि मति कबि केही॥
 +
दूलहु रामु रूप गुन सागर। सो बितानु तिहुँ लोक उजागर॥
 +
जनक भवन कै सौभा जैसी। गृह गृह प्रति पुर देखिअ तैसी॥
 +
जेहिं तेरहुति तेहि समय निहारी। तेहि लघु लगहिं भुवन दस चारी॥
 +
जो संपदा नीच गृह सोहा। सो बिलोकि सुरनायक मोहा॥
 +
दो0-बसइ नगर जेहि लच्छ करि कपट नारि बर बेषु॥
 +
तेहि पुर कै सोभा कहत सकुचहिं सारद सेषु॥289॥
 +
 +
पहुँचे दूत राम पुर पावन। हरषे नगर बिलोकि सुहावन॥
 +
भूप द्वार तिन्ह खबरि जनाई। दसरथ नृप सुनि लिए बोलाई॥
 +
करि प्रनामु तिन्ह पाती दीन्ही। मुदित महीप आपु उठि लीन्ही॥
 +
बारि बिलोचन बाचत पाँती। पुलक गात आई भरि छाती॥
 +
रामु लखनु उर कर बर चीठी। रहि गए कहत न खाटी मीठी॥
 +
पुनि धरि धीर पत्रिका बाँची। हरषी सभा बात सुनि साँची॥
 +
खेलत रहे तहाँ सुधि पाई। आए भरतु सहित हित भाई॥
 +
पूछत अति सनेहँ सकुचाई। तात कहाँ तें पाती आई॥
 +
दो0-कुसल प्रानप्रिय बंधु दोउ अहहिं कहहु केहिं देस।
 +
सुनि सनेह साने बचन बाची बहुरि नरेस॥290॥
 +
 +
सुनि पाती पुलके दोउ भ्राता। अधिक सनेहु समात न गाता॥
 +
प्रीति पुनीत भरत कै देखी। सकल सभाँ सुखु लहेउ बिसेषी॥
 +
तब नृप दूत निकट बैठारे। मधुर मनोहर बचन उचारे॥
 +
भैया कहहु कुसल दोउ बारे। तुम्ह नीकें निज नयन निहारे॥
 +
स्यामल गौर धरें धनु भाथा। बय किसोर कौसिक मुनि साथा॥
 +
पहिचानहु तुम्ह कहहु सुभाऊ। प्रेम बिबस पुनि पुनि कह राऊ॥
 +
जा दिन तें मुनि गए लवाई। तब तें आजु साँचि सुधि पाई॥
 +
कहहु बिदेह कवन बिधि जाने। सुनि प्रिय बचन दूत मुसकाने॥
 +
दो0-सुनहु महीपति मुकुट मनि तुम्ह सम धन्य न कोउ।
 +
रामु लखनु जिन्ह के तनय बिस्व बिभूषन दोउ॥291॥
 +
 +
पूछन जोगु न तनय तुम्हारे। पुरुषसिंघ तिहु पुर उजिआरे॥
 +
जिन्ह के जस प्रताप कें आगे। ससि मलीन रबि सीतल लागे॥
 +
तिन्ह कहँ कहिअ नाथ किमि चीन्हे। देखिअ रबि कि दीप कर लीन्हे॥
 +
सीय स्वयंबर भूप अनेका। समिटे सुभट एक तें एका॥
 +
संभु सरासनु काहुँ न टारा। हारे सकल बीर बरिआरा॥
 +
तीनि लोक महँ जे भटमानी। सभ कै सकति संभु धनु भानी॥
 +
सकइ उठाइ सरासुर मेरू। सोउ हियँ हारि गयउ करि फेरू॥
 +
जेहि कौतुक सिवसैलु उठावा। सोउ तेहि सभाँ पराभउ पावा॥
 +
दो0-तहाँ राम रघुबंस मनि सुनिअ महा महिपाल।
 +
भंजेउ चाप प्रयास बिनु जिमि गज पंकज नाल॥292॥
 +
 +
सुनि सरोष भृगुनायकु आए। बहुत भाँति तिन्ह आँखि देखाए॥
 +
देखि राम बलु निज धनु दीन्हा। करि बहु बिनय गवनु बन कीन्हा॥
 +
राजन रामु अतुलबल जैसें। तेज निधान लखनु पुनि तैसें॥
 +
कंपहि भूप बिलोकत जाकें। जिमि गज हरि किसोर के ताकें॥
 +
देव देखि तव बालक दोऊ। अब न आँखि तर आवत कोऊ॥
 +
दूत बचन रचना प्रिय लागी। प्रेम प्रताप बीर रस पागी॥
 +
सभा समेत राउ अनुरागे। दूतन्ह देन निछावरि लागे॥
 +
कहि अनीति ते मूदहिं काना। धरमु बिचारि सबहिं सुख माना॥
 +
दो0-तब उठि भूप बसिष्ठ कहुँ दीन्हि पत्रिका जाइ।
 +
कथा सुनाई गुरहि सब सादर दूत बोलाइ॥293॥
 +
 +
सुनि बोले गुर अति सुखु पाई। पुन्य पुरुष कहुँ महि सुख छाई॥
 +
जिमि सरिता सागर महुँ जाहीं। जद्यपि ताहि कामना नाहीं॥
 +
तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाएँ। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ॥
 +
तुम्ह गुर बिप्र धेनु सुर सेबी। तसि पुनीत कौसल्या देबी॥
 +
सुकृती तुम्ह समान जग माहीं। भयउ न है कोउ होनेउ नाहीं॥
 +
तुम्ह ते अधिक पुन्य बड़ काकें। राजन राम सरिस सुत जाकें॥
 +
बीर बिनीत धरम ब्रत धारी। गुन सागर बर बालक चारी॥
 +
तुम्ह कहुँ सर्ब काल कल्याना। सजहु बरात बजाइ निसाना॥
 +
दो0-चलहु बेगि सुनि गुर बचन भलेहिं नाथ सिरु नाइ।
 +
भूपति गवने भवन तब दूतन्ह बासु देवाइ॥294॥
 +
 +
राजा सबु रनिवास बोलाई। जनक पत्रिका बाचि सुनाई॥
 +
सुनि संदेसु सकल हरषानीं। अपर कथा सब भूप बखानीं॥
 +
प्रेम प्रफुल्लित राजहिं रानी। मनहुँ सिखिनि सुनि बारिद बनी॥
 +
मुदित असीस देहिं गुरु नारीं। अति आनंद मगन महतारीं॥
 +
लेहिं परस्पर अति प्रिय पाती। हृदयँ लगाइ जुड़ावहिं छाती॥
 +
राम लखन कै कीरति करनी। बारहिं बार भूपबर बरनी॥
 +
मुनि प्रसादु कहि द्वार सिधाए। रानिन्ह तब महिदेव बोलाए॥
 +
दिए दान आनंद समेता। चले बिप्रबर आसिष देता॥
 +
सो0-जाचक लिए हँकारि दीन्हि निछावरि कोटि बिधि।
 +
चिरु जीवहुँ सुत चारि चक्रबर्ति दसरत्थ के॥295॥
 +
 +
कहत चले पहिरें पट नाना। हरषि हने गहगहे निसाना॥
 +
समाचार सब लोगन्ह पाए। लागे घर घर होने बधाए॥
 +
भुवन चारि दस भरा उछाहू। जनकसुता रघुबीर बिआहू॥
 +
सुनि सुभ कथा लोग अनुरागे। मग गृह गलीं सँवारन लागे॥
 +
जद्यपि अवध सदैव सुहावनि। राम पुरी मंगलमय पावनि॥
 +
तदपि प्रीति कै प्रीति सुहाई। मंगल रचना रची बनाई॥
 +
ध्वज पताक पट चामर चारु। छावा परम बिचित्र बजारू॥
 +
कनक कलस तोरन मनि जाला। हरद दूब दधि अच्छत माला॥
 +
दो0-मंगलमय निज निज भवन लोगन्ह रचे बनाइ।
 +
बीथीं सीचीं चतुरसम चौकें चारु पुराइ॥296॥
 +
 +
जहँ तहँ जूथ जूथ मिलि भामिनि। सजि नव सप्त सकल दुति दामिनि॥
 +
बिधुबदनीं मृग सावक लोचनि। निज सरुप रति मानु बिमोचनि॥
 +
गावहिं मंगल मंजुल बानीं। सुनिकल रव कलकंठि लजानीं॥
 +
भूप भवन किमि जाइ बखाना। बिस्व बिमोहन रचेउ बिताना॥
 +
मंगल द्रब्य मनोहर नाना। राजत बाजत बिपुल निसाना॥
 +
कतहुँ बिरिद बंदी उच्चरहीं। कतहुँ बेद धुनि भूसुर करहीं॥
 +
गावहिं सुंदरि मंगल गीता। लै लै नामु रामु अरु सीता॥
 +
बहुत उछाहु भवनु अति थोरा। मानहुँ उमगि चला चहु ओरा॥
 +
दो0-सोभा दसरथ भवन कइ को कबि बरनै पार।
 +
जहाँ सकल सुर सीस मनि राम लीन्ह अवतार॥297॥
 +
 +
भूप भरत पुनि लिए बोलाई। हय गय स्यंदन साजहु जाई॥
 +
चलहु बेगि रघुबीर बराता। सुनत पुलक पूरे दोउ भ्राता॥
 +
भरत सकल साहनी बोलाए। आयसु दीन्ह मुदित उठि धाए॥
 +
रचि रुचि जीन तुरग तिन्ह साजे। बरन बरन बर बाजि बिराजे॥
 +
सुभग सकल सुठि चंचल करनी। अय इव जरत धरत पग धरनी॥
 +
नाना जाति न जाहिं बखाने। निदरि पवनु जनु चहत उड़ाने॥
 +
तिन्ह सब छयल भए असवारा। भरत सरिस बय राजकुमारा॥
 +
सब सुंदर सब भूषनधारी। कर सर चाप तून कटि भारी॥
 +
दो0- छरे छबीले छयल सब सूर सुजान नबीन।
 +
जुग पदचर असवार प्रति जे असिकला प्रबीन॥298॥
 +
 +
बाँधे बिरद बीर रन गाढ़े। निकसि भए पुर बाहेर ठाढ़े॥
 +
फेरहिं चतुर तुरग गति नाना। हरषहिं सुनि सुनि पवन निसाना॥
 +
रथ सारथिन्ह बिचित्र बनाए। ध्वज पताक मनि भूषन लाए॥
 +
चवँर चारु किंकिन धुनि करही। भानु जान सोभा अपहरहीं॥
 +
सावँकरन अगनित हय होते। ते तिन्ह रथन्ह सारथिन्ह जोते॥
 +
सुंदर सकल अलंकृत सोहे। जिन्हहि बिलोकत मुनि मन मोहे॥
 +
जे जल चलहिं थलहि की नाई। टाप न बूड़ बेग अधिकाई॥
 +
अस्त्र सस्त्र सबु साजु बनाई। रथी सारथिन्ह लिए बोलाई॥
 +
दो0-चढ़ि चढ़ि रथ बाहेर नगर लागी जुरन बरात।
 +
होत सगुन सुन्दर सबहि जो जेहि कारज जात॥299॥
  
चौ०-भूप सहस दस एकहि बारा। लगे उठावन टरइ न टारा॥
+
कलित करिबरन्हि परीं अँबारीं। कहि न जाहिं जेहि भाँति सँवारीं॥
<br>डगइ न संभु सरासन कैसें। कामी बचन सती मनु जैसें॥१॥
+
चले मत्तगज घंट बिराजी। मनहुँ सुभग सावन घन राजी॥
<br>सब नृप भए जोगु उपहासी। जैसें बिनु बिराग संन्यासी॥
+
बाहन अपर अनेक बिधाना। सिबिका सुभग सुखासन जाना॥
<br>कीरति बिजय बीरता भारी। चले चाप कर बरबस हारी॥२॥
+
तिन्ह चढ़ि चले बिप्रबर बृन्दा। जनु तनु धरें सकल श्रुति छंदा॥
<br>श्रीहत भए हारि हियँ राजा। बैठे निज निज जाइ समाजा॥
+
मागध सूत बंदि गुनगायक। चले जान चढ़ि जो जेहि लायक॥
<br>नृपन्ह बिलोकि जनकु अकुलाने। बोले बचन रोष जनु साने॥३॥
+
बेसर ऊँट बृषभ बहु जाती। चले बस्तु भरि अगनित भाँती॥
<br>दीप दीप के भूपति नाना। आए सुनि हम जो पनु ठाना॥
+
कोटिन्ह काँवरि चले कहारा। बिबिध बस्तु को बरनै पारा॥
<br>देव दनुज धरि मनुज सरीरा। बिपुल बीर आए रनधीरा॥४॥
+
चले सकल सेवक समुदाई। निज निज साजु समाजु बनाई॥
<br>दो०-कुअँरि मनोहर बिजय बड़ि कीरति अति कमनीय।
+
दो0-सब कें उर निर्भर हरषु पूरित पुलक सरीर।
<br>पावनिहार बिरंचि जनु रचेउ न धनु दमनीय॥२५१॥
+
कबहिं देखिबे नयन भरि रामु लखनू दोउ बीर॥300॥
<br>
+
</poem>
<br>चौ०-कहहु काहि यहु लाभु न भावा। काहुँ न संकर चाप चढ़ावा॥
+
<br>रहउ चढ़ाउब तोरब भाई। तिलु भरि भूमि न सके छड़ाई॥१॥
+
<br>अब जनि कोउ माखै भट मानी। बीर बिहीन मही मैं जानी॥
+
<br>तजहु आस निज निज गृह जाहू। लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू॥२॥
+
<br>सुकृत जाइ जौं पनु परिहरऊँ। कुअँरि कुआरि रहउ का करऊँ॥
+
<br>जौं जनतेउँ बिनु भट भुबि भाई। तौ पनु करि होतेउँ न हँसाई॥३॥
+
<br>जनक बचन सुनि सब नर नारी। देखि जानकिहि भए दुखारी॥
+
<br>माखे लखनु कुटिल भइँ भौंहें। रदपट फरकत नयन रिसौंहें॥४॥
+
<br>दो०-कहि न सकत रघुबीर डर लगे बचन जनु बान।
+
<br>नाइ राम पद कमल सिरु बोले गिरा प्रमान॥२५२॥
+
<br>
+
<br>चौ०-रघुबंसिन्ह महुँ जहँ कोउ होई। तेहिं समाज अस कहइ न कोई॥
+
<br>कही जनक जसि अनुचित बानी। बिद्यमान रघुकुल मनि जानी॥१॥
+
<br>सुनहु भानुकुल पंकज भानू। कहउँ सुभाउ न कछु अभिमानू॥
+
<br>जौं तुम्हारि अनुसासन पावौं। कंदुक इव ब्रह्मांड उठावौं॥२॥
+
<br>काचे घट जिमि डारौं फोरी। सकउँ मेरु मूलक जिमि तोरी॥
+
<br>तव प्रताप महिमा भगवाना। को बापुरो पिनाक पुराना॥३॥
+
<br>नाथ जानि अस आयसु होऊ। कौतुकु करौं बिलोकिअ सोऊ॥
+
<br>कमल नाल जिमि चाप चढ़ावौं। जोजन सत प्रमान लै धावौं॥४॥
+
<br>दो०-तोरौं छत्रक दंड जिमि तव प्रताप बल नाथ।
+
<br>जौं न करौं प्रभु पद सपथ कर न धरौं धनु भाथ॥२५३॥
+
<br>
+
<br>चौ०-लखन सकोप बचन जे बोले। डगमगानि महि दिग्गज डोले॥
+
<br>सकल लोक सब भूप डेराने। सिय हियँ हरषु जनकु सकुचाने॥१॥
+
<br>गुर रघुपति सब मुनि मन माहीं। मुदित भए पुनि पुनि पुलकाहीं॥
+
<br>सयनहिं रघुपति लखनु नेवारे। प्रेम समेत निकट बैठारे॥२॥
+
<br>बिस्वामित्र समय सुभ जानी। बोले अति सनेहमय बानी॥
+
<br>उठहु राम भंजहु भवचापा। मेटहु तात जनक परितापा॥३॥
+
<br>सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा। हरषु बिषादु न कछु उर आवा॥
+
<br>ठाढ़े भए उठि सहज सुभाएँ। ठवनि जुबा मृगराजु लजाएँ॥४॥
+
<br>दो०-उदित उदयगिरि मंच पर रघुबर बालपतंग।
+
<br>बिकसे संत सरोज सब हरषे लोचन भृंग॥२५४॥
+
<br>
+
<br>चौ०-नृपन्ह केरि आसा निसि नासी। बचन नखत अवली न प्रकासी॥
+
<br>मानी महिप कुमुद सकुचाने। कपटी भूप उलूक लुकाने॥१॥
+
<br>भए बिसोक कोक मुनि देवा। बरिसहिं सुमन जनावहिं सेवा॥
+
<br>गुर पद बंदि सहित अनुरागा। राम मुनिन्ह सन आयसु मागा॥२॥
+
<br>सहजहिं चले सकल जग स्वामी। मत्त मंजु बर कुंजर गामी॥
+
<br>चलत राम सब पुर नर नारी। पुलक पूरि तन भए सुखारी॥३॥
+
<br>बंदि पितर सुर सुकृत सँभारे। जौं कछु पुन्य प्रभाउ हमारे॥
+
<br>तौ सिवधनु मृनाल की नाईं। तोरहुँ राम गनेस गोसाईं॥४॥
+
<br>दो०-रामहि प्रेम समेत लखि सखिन्ह समीप बोलाइ।
+
<br>सीता मातु सनेह बस बचन कहइ बिलखाइ॥२५५॥
+
<br>
+
<br>चौ०-सखि सब कौतुक देखनिहारे। जेउ कहावत हितू हमारे॥
+
<br>कोउ न बुझाइ कहइ गुर पाहीं। ए बालक असि हठ भलि नाहीं॥१॥
+
<br>रावन बान छुआ नहिं चापा। हारे सकल भूप करि दापा॥
+
<br>सो धनु राजकुअँर कर देहीं। बाल मराल कि मंदर लेहीं॥२॥
+
<br>भूप सयानप सकल सिरानी। सखि बिधि गति कछु जाति न जानी॥
+
<br>बोली चतुर सखी मृदु बानी। तेजवंत लघु गनिअ न रानी॥३॥
+
<br>कहँ कुंभज कहँ सिंधु अपारा। सोषेउ सुजसु सकल संसारा॥
+
<br>रबि मंडल देखत लघु लागा। उदयँ तासु तिभुवन तम भागा॥४॥
+
<br>दो०-मंत्र परम लघु जासु बस बिधि हरि हर सुर सर्ब।
+
<br>महामत्त गजराज कहुँ बस कर अंकुस खर्ब॥२५६॥
+
<br>
+
<br>चौ०-काम कुसुम धनु सायक लीन्हे। सकल भुवन अपने बस कीन्हे॥
+
<br>देबि तजिअ संसउ अस जानी। भंजब धनुष राम सुनु रानी॥१॥
+
<br>सखी बचन सुनि भै परतीती। मिटा बिषादु बढ़ी अति प्रीती॥
+
<br>तब रामहि बिलोकि बैदेही। सभय हृदयँ बिनवति जेहि तेही॥२॥
+
<br>मनहीं मन मनाव अकुलानी। होहु प्रसन्न महेस भवानी॥
+
<br>करहु सफल आपनि सेवकाई। करि हितु हरहु चाप गरुआई॥३॥
+
<br>गननायक बरदायक देवा। आजु लगें कीन्हिउँ तुअ सेवा॥
+
<br>बार बार बिनती सुनि मोरी। करहु चाप गुरुता अति थोरी॥४॥
+
<br>दो०-देखि देखि रघुबीर तन सुर मनाव धरि धीर॥
+
<br>भरे बिलोचन प्रेम जल पुलकावली सरीर॥२५७॥
+
<br>
+
<br>चौ०-नीकें निरखि नयन भरि सोभा। पितु पनु सुमिरि बहुरि मनु छोभा॥
+
<br>अहह तात दारुनि हठ ठानी। समुझत नहिं कछु लाभु न हानी॥१॥
+
<br>सचिव सभय सिख देइ न कोई। बुध समाज बड़ अनुचित होई॥
+
<br>कहँ धनु कुलिसहु चाहि कठोरा। कहँ स्यामल मृदुगात किसोरा॥२॥
+
<br>बिधि केहि भाँति धरौं उर धीरा। सिरस सुमन कन बेधिअ हीरा॥
+
<br>सकल सभा कै मति भै भोरी। अब मोहि संभुचाप गति तोरी॥३॥
+
<br>निज जड़ता लोगन्ह पर डारी। होहि हरुअ रघुपतिहि निहारी॥
+
<br>अति परिताप सीय मन माहीं। लव निमेष जुग सय सम जाहीं॥४॥
+
<br>दो०-प्रभुहि चितइ पुनि चितव महि राजत लोचन लोल।
+
<br>खेलत मनसिज मीन जुग जनु बिधु मंडल डोल॥२५८॥
+
<br>
+
<br>चौ०-गिरा अलिनि मुख पंकज रोकी। प्रगट न लाज निसा अवलोकी॥
+
<br>लोचन जलु रह लोचन कोना। जैसे परम कृपन कर सोना॥१॥
+
<br>सकुची ब्याकुलता बड़ि जानी। धरि धीरजु प्रतीति उर आनी॥
+
<br>तन मन बचन मोर पनु साचा। रघुपति पद सरोज चितु राचा॥२॥
+
<br>तौ भगवानु सकल उर बासी। करिहि मोहि रघुबर कै दासी॥
+
<br>जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू॥३॥
+
<br>प्रभु तन चितइ प्रेम तन ठाना। कृपानिधान राम सबु जाना॥
+
<br>सियहि बिलोकि तकेउ धनु कैसें। चितव गरुरु लघु ब्यालहि जैसें॥४॥
+
<br>दो०-लखन लखेउ रघुबंसमनि ताकेउ हर कोदंडु।
+
<br>पुलकि गात बोले बचन चरन चापि ब्रह्मांडु॥२५९॥
+
<br>
+
<br>चौ०-दिसिकुंजरहु कमठ अहि कोला। धरहु धरनि धरि धीर न डोला॥
+
<br>रामु चहहिं संकर धनु तोरा। होहु सजग सुनि आयसु मोरा॥१॥
+
<br>चाप सपीप रामु जब आए। नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए॥
+
<br>सब कर संसउ अरु अग्यानू। मंद महीपन्ह कर अभिमानू॥२॥
+
<br>भृगुपति केरि गरब गरुआई। सुर मुनिबरन्ह केरि कदराई॥
+
<br>सिय कर सोचु जनक पछितावा। रानिन्ह कर दारुन दुख दावा॥३॥
+
<br>संभुचाप बड़ बोहितु पाई। चढ़े जाइ सब संगु बनाई॥
+
<br>राम बाहुबल सिंधु अपारू। चहत पारु नहि कोउ कड़हारू॥४॥
+
<br>दो०-राम बिलोके लोग सब चित्र लिखे से देखि।
+
<br>चितई सीय कृपायतन जानी बिकल बिसेषि॥२६०॥
+
<br>
+
<br>चौ०-देखी बिपुल बिकल बैदेही। निमिष बिहात कलप सम तेही॥
+
<br>तृषित बारि बिनु जो तनु त्यागा। मुएँ करइ का सुधा तड़ागा॥
+
<br>का बरषा सब कृषी सुखानें। समय चुकें पुनि का पछितानें॥
+
<br>अस जियँ जानि जानकी देखी। प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी॥
+
<br>गुरहि प्रनामु मनहि मन कीन्हा। अति लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा॥
+
<br>दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ। पुनि नभ धनु मंडल सम भयऊ॥
+
<br>लेत चढ़ावत खैंचत गाढ़ें। काहुँ न लखा देख सबु ठाढ़ें॥
+
<br>तेहि छन राम मध्य धनु तोरा। भरे भुवन धुनि घोर कठोरा॥
+
<br>छं०-भरे भुवन घोर कठोर रव रबि बाजि तजि मारगु चले।
+
<br>चिक्करहिं दिग्गज डोल महि अहि कोल कूरुम कलमले॥
+
<br>सुर असुर मुनि कर कान दीन्हें सकल बिकल बिचारहीं।
+
<br>कोदंड खंडेउ राम तुलसी जयति बचन उचारहीं॥
+
<br>सो०-संकर चापु जहाजु सागरु रघुबर बाहुबलु।
+
<br>बूड़ सो सकल समाजु चढ़ा जो प्रथमहिं मोह बस॥२६१॥
+
<br>
+
<br>चौ०-प्रभु दोउ चापखंड महि डारे। देखि लोग सब भए सुखारे॥
+
<br>कौसिकरुप पयोनिधि पावन। प्रेम बारि अवगाहु सुहावन॥
+
<br>रामरूप राकेसु निहारी। बढ़त बीचि पुलकावलि भारी॥
+
<br>बाजे नभ गहगहे निसाना। देवबधू नाचहिं करि गाना॥
+
<br>ब्रह्मादिक सुर सिद्ध मुनीसा। प्रभुहि प्रसंसहि देहिं असीसा॥
+
<br>बरिसहिं सुमन रंग बहु माला। गावहिं किंनर गीत रसाला॥
+
<br>रही भुवन भरि जय जय बानी। धनुषभंग धुनि जात न जानी॥
+
<br>मुदित कहहिं जहँ तहँ नर नारी। भंजेउ राम संभुधनु भारी॥
+
<br>दो०-बंदी मागध सूतगन बिरुद बदहिं मतिधीर।
+
<br>करहिं निछावरि लोग सब हय गय धन मनि चीर॥२६२॥
+
<br>
+
<br>चौ०-झाँझि मृदंग संख सहनाई। भेरि ढोल दुंदुभी सुहाई॥
+
<br>बाजहिं बहु बाजने सुहाए। जहँ तहँ जुबतिन्ह मंगल गाए॥
+
<br>सखिन्ह सहित हरषी अति रानी। सूखत धान परा जनु पानी॥
+
<br>जनक लहेउ सुखु सोचु बिहाई। पैरत थकें थाह जनु पाई॥
+
<br>श्रीहत भए भूप धनु टूटे। जैसें दिवस दीप छबि छूटे॥
+
<br>सीय सुखहि बरनिअ केहि भाँती। जनु चातकी पाइ जलु स्वाती॥
+
<br>रामहि लखनु बिलोकत कैसें। ससिहि चकोर किसोरकु जैसें॥
+
<br>सतानंद तब आयसु दीन्हा। सीताँ गमनु राम पहिं कीन्हा॥
+
<br>दो०-संग सखीं सुदंर चतुर गावहिं मंगलचार।
+
<br>गवनी बाल मराल गति सुषमा अंग अपार॥२६३॥
+
<br>–*–*–
+
<br>सखिन्ह मध्य सिय सोहति कैसे। छबिगन मध्य महाछबि जैसें॥
+
<br>कर सरोज जयमाल सुहाई। बिस्व बिजय सोभा जेहिं छाई॥
+
<br>तन सकोचु मन परम उछाहू। गूढ़ प्रेमु लखि परइ न काहू॥
+
<br>जाइ समीप राम छबि देखी। रहि जनु कुँअरि चित्र अवरेखी॥
+
<br>चतुर सखीं लखि कहा बुझाई। पहिरावहु जयमाल सुहाई॥
+
<br>सुनत जुगल कर माल उठाई। प्रेम बिबस पहिराइ न जाई॥
+
<br>सोहत जनु जुग जलज सनाला। ससिहि सभीत देत जयमाला॥
+
<br>गावहिं छबि अवलोकि सहेली। सियँ जयमाल राम उर मेली॥
+
<br>सो०-रघुबर उर जयमाल देखि देव बरिसहिं सुमन।
+
<br>सकुचे सकल भुआल जनु बिलोकि रबि कुमुदगन॥२६४॥
+
<br>पुर अरु ब्योम बाजने बाजे। खल भए मलिन साधु सब राजे॥
+
<br>सुर किंनर नर नाग मुनीसा। जय जय जय कहि देहिं असीसा॥
+
<br>नाचहिं गावहिं बिबुध बधूटीं। बार बार कुसुमांजलि छूटीं॥
+
<br>जहँ तहँ बिप्र बेदधुनि करहीं। बंदी बिरदावलि उच्चरहीं॥
+
<br>महि पाताल नाक जसु ब्यापा। राम बरी सिय भंजेउ चापा॥
+
<br>करहिं आरती पुर नर नारी। देहिं निछावरि बित्त बिसारी॥
+
<br>सोहति सीय राम कै जौरी। छबि सिंगारु मनहुँ एक ठोरी॥
+
<br>सखीं कहहिं प्रभुपद गहु सीता। करति न चरन परस अति भीता॥
+
<br>दो०-गौतम तिय गति सुरति करि नहिं परसति पग पानि।
+
<br>मन बिहसे रघुबंसमनि प्रीति अलौकिक जानि॥२६५॥
+
<br>–*–*–
+
<br>तब सिय देखि भूप अभिलाषे। कूर कपूत मूढ़ मन माखे॥
+
<br>उठि उठि पहिरि सनाह अभागे। जहँ तहँ गाल बजावन लागे॥
+
<br>लेहु छड़ाइ सीय कह कोऊ। धरि बाँधहु नृप बालक दोऊ॥
+
<br>तोरें धनुषु चाड़ नहिं सरई। जीवत हमहि कुअँरि को बरई॥
+
<br>जौं बिदेहु कछु करै सहाई। जीतहु समर सहित दोउ भाई॥
+
<br>साधु भूप बोले सुनि बानी। राजसमाजहि लाज लजानी॥
+
<br>बलु प्रतापु बीरता बड़ाई। नाक पिनाकहि संग सिधाई॥
+
<br>सोइ सूरता कि अब कहुँ पाई। असि बुधि तौ बिधि मुहँ मसि लाई॥
+
<br>दो०-देखहु रामहि नयन भरि तजि इरिषा मदु कोहु।
+
<br>लखन रोषु पावकु प्रबल जानि सलभ जनि होहु॥२६६॥
+
<br>–*–*–
+
<br>बैनतेय बलि जिमि चह कागू। जिमि ससु चहै नाग अरि भागू॥
+
<br>जिमि चह कुसल अकारन कोही। सब संपदा चहै सिवद्रोही॥
+
<br>लोभी लोलुप कल कीरति चहई। अकलंकता कि कामी लहई॥
+
<br>हरि पद बिमुख परम गति चाहा। तस तुम्हार लालचु नरनाहा॥
+
<br>कोलाहलु सुनि सीय सकानी। सखीं लवाइ गईं जहँ रानी॥
+
<br>रामु सुभायँ चले गुरु पाहीं। सिय सनेहु बरनत मन माहीं॥
+
<br>रानिन्ह सहित सोचबस सीया। अब धौं बिधिहि काह करनीया॥
+
<br>भूप बचन सुनि इत उत तकहीं। लखनु राम डर बोलि न सकहीं॥
+
<br>दो०-अरुन नयन भृकुटी कुटिल चितवत नृपन्ह सकोप।
+
<br>मनहुँ मत्त गजगन निरखि सिंघकिसोरहि चोप॥२६७॥
+
<br>–*–*–
+
<br>खरभरु देखि बिकल पुर नारीं। सब मिलि देहिं महीपन्ह गारीं॥
+
<br>तेहिं अवसर सुनि सिव धनु भंगा। आयसु भृगुकुल कमल पतंगा॥
+
<br>देखि महीप सकल सकुचाने। बाज झपट जनु लवा लुकाने॥
+
<br>गौरि सरीर भूति भल भ्राजा। भाल बिसाल त्रिपुंड बिराजा॥
+
<br>सीस जटा ससिबदनु सुहावा। रिसबस कछुक अरुन होइ आवा॥
+
<br>भृकुटी कुटिल नयन रिस राते। सहजहुँ चितवत मनहुँ रिसाते॥
+
<br>बृषभ कंध उर बाहु बिसाला। चारु जनेउ माल मृगछाला॥
+
<br>कटि मुनि बसन तून दुइ बाँधें। धनु सर कर कुठारु कल काँधें॥
+
<br>दो०-सांत बेषु करनी कठिन बरनि न जाइ सरुप।
+
<br>धरि मुनितनु जनु बीर रसु आयउ जहँ सब भूप॥२६८॥
+
<br>–*–*–
+
<br>देखत भृगुपति बेषु कराला। उठे सकल भय बिकल भुआला॥
+
<br>पितु समेत कहि कहि निज नामा। लगे करन सब दंड प्रनामा॥
+
<br>जेहि सुभायँ चितवहिं हितु जानी। सो जानइ जनु आइ खुटानी॥
+
<br>जनक बहोरि आइ सिरु नावा। सीय बोलाइ प्रनामु करावा॥
+
<br>आसिष दीन्हि सखीं हरषानीं। निज समाज लै गई सयानीं॥
+
<br>बिस्वामित्रु मिले पुनि आई। पद सरोज मेले दोउ भाई॥
+
<br>रामु लखनु दसरथ के ढोटा। दीन्हि असीस देखि भल जोटा॥
+
<br>रामहि चितइ रहे थकि लोचन। रूप अपार मार मद मोचन॥
+
<br>दो०-बहुरि बिलोकि बिदेह सन कहहु काह अति भीर॥
+
<br>पूछत जानि अजान जिमि ब्यापेउ कोपु सरीर॥२६९॥
+
<br>–*–*–
+
<br>समाचार कहि जनक सुनाए। जेहि कारन महीप सब आए॥
+
<br>सुनत बचन फिरि अनत निहारे। देखे चापखंड महि डारे॥
+
<br>अति रिस बोले बचन कठोरा। कहु जड़ जनक धनुष कै तोरा॥
+
<br>बेगि देखाउ मूढ़ न त आजू। उलटउँ महि जहँ लहि तव राजू॥
+
<br>अति डरु उतरु देत नृपु नाहीं। कुटिल भूप हरषे मन माहीं॥
+
<br>सुर मुनि नाग नगर नर नारी॥सोचहिं सकल त्रास उर भारी॥
+
<br>मन पछिताति सीय महतारी। बिधि अब सँवरी बात बिगारी॥
+
<br>भृगुपति कर सुभाउ सुनि सीता। अरध निमेष कलप सम बीता॥
+
<br>दो०-सभय बिलोके लोग सब जानि जानकी भीरु।
+
<br>हृदयँ न हरषु बिषादु कछु बोले श्रीरघुबीरु॥२७०॥
+
<br>मासपारायण, नवाँ विश्राम
+
<br>–*–*–
+
<br>नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा॥
+
<br>आयसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही॥
+
<br>सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरि करनी करि करिअ लराई॥
+
<br>सुनहु राम जेहिं सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा॥
+
<br>सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा॥
+
<br>सुनि मुनि बचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अपमाने॥
+
<br>बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं॥
+
<br>एहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू॥
+
<br>दो०-रे नृप बालक कालबस बोलत तोहि न सँमार॥
+
<br>धनुही सम तिपुरारि धनु बिदित सकल संसार॥२७१॥
+
<br>–*–*–
+
<br>लखन कहा हँसि हमरें जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना॥
+
<br>का छति लाभु जून धनु तौरें। देखा राम नयन के भोरें॥
+
<br>छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू ।
+
<br>बोले चितइ परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा॥
+
<br>बालकु बोलि बधउँ नहिं तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही॥
+
<br>बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्व बिदित छत्रियकुल द्रोही॥
+
<br>भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही॥
+
<br>सहसबाहु भुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा॥
+
<br>दो०-मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।
+
<br>गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर॥२७२॥
+
<br>–*–*–
+
<br>बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महा भटमानी॥
+
<br>पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू। चहत उड़ावन फूँकि पहारू॥
+
<br>इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं॥
+
<br>देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना॥
+
<br>भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहउँ रिस रोकी॥
+
<br>सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरें कुल इन्ह पर न सुराई॥
+
<br>बधें पापु अपकीरति हारें। मारतहूँ पा परिअ तुम्हारें॥
+
<br>कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा। ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा॥
+
<br>दो०-जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर।
+
<br>सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गभीर॥२७३॥
+
<br>–*–*–
+
<br>कौसिक सुनहु मंद यहु बालकु। कुटिल कालबस निज कुल घालकु॥
+
<br>भानु बंस राकेस कलंकू। निपट निरंकुस अबुध असंकू॥
+
<br>काल कवलु होइहि छन माहीं। कहउँ पुकारि खोरि मोहि नाहीं॥
+
<br>तुम्ह हटकउ जौं चहहु उबारा। कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा॥
+
<br>लखन कहेउ मुनि सुजस तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा॥
+
<br>अपने मुँह तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी॥
+
<br>नहिं संतोषु त पुनि कछु कहहू। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू॥
+
<br>बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा॥
+
<br>दो०-सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।
+
<br>बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु॥२७४॥
+
<br>–*–*–
+
<br>तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागि बोलावा॥
+
<br>सुनत लखन के बचन कठोरा। परसु सुधारि धरेउ कर घोरा॥
+
<br>अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू। कटुबादी बालकु बधजोगू॥
+
<br>बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा। अब यहु मरनिहार भा साँचा॥
+
<br>कौसिक कहा छमिअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिं न साधू॥
+
<br>खर कुठार मैं अकरुन कोही। आगें अपराधी गुरुद्रोही॥
+
<br>उतर देत छोड़उँ बिनु मारें। केवल कौसिक सील तुम्हारें॥
+
<br>न त एहि काटि कुठार कठोरें। गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरें॥
+
<br>दो०-गाधिसूनु कह हृदयँ हँसि मुनिहि हरिअरइ सूझ।
+
<br>अयमय खाँड न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ॥२७५॥
+
<br>–*–*–
+
<br>कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहि जान बिदित संसारा॥
+
<br>माता पितहि उरिन भए नीकें। गुर रिनु रहा सोचु बड़ जीकें॥
+
<br>सो जनु हमरेहि माथे काढ़ा। दिन चलि गए ब्याज बड़ बाढ़ा॥
+
<br>अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली॥
+
<br>सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा॥
+
<br>भृगुबर परसु देखावहु मोही। बिप्र बिचारि बचउँ नृपद्रोही॥
+
<br>मिले न कबहुँ सुभट रन गाढ़े। द्विज देवता घरहि के बाढ़े॥
+
<br>अनुचित कहि सब लोग पुकारे। रघुपति सयनहिं लखनु नेवारे॥
+
<br>दो०-लखन उतर आहुति सरिस भृगुबर कोपु कृसानु।
+
<br>बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु॥२७६॥
+
<br>–*–*–
+
<br>नाथ करहु बालक पर छोहू। सूध दूधमुख करिअ न कोहू॥
+
<br>जौं पै प्रभु प्रभाउ कछु जाना। तौ कि बराबरि करत अयाना॥
+
<br>जौं लरिका कछु अचगरि करहीं। गुर पितु मातु मोद मन भरहीं॥
+
<br>करिअ कृपा सिसु सेवक जानी। तुम्ह सम सील धीर मुनि ग्यानी॥
+
<br>राम बचन सुनि कछुक जुड़ाने। कहि कछु लखनु बहुरि मुसकाने॥
+
<br>हँसत देखि नख सिख रिस ब्यापी। राम तोर भ्राता बड़ पापी॥
+
<br>गौर सरीर स्याम मन माहीं। कालकूटमुख पयमुख नाहीं॥
+
<br>सहज टेढ़ अनुहरइ न तोही। नीचु मीचु सम देख न मौहीं॥
+
<br>दो०-लखन कहेउ हँसि सुनहु मुनि क्रोधु पाप कर मूल।
+
<br>जेहि बस जन अनुचित करहिं चरहिं बिस्व प्रतिकूल॥२७७॥
+
<br>–*–*–
+
<br>मैं तुम्हार अनुचर मुनिराया। परिहरि कोपु करिअ अब दाया॥
+
<br>टूट चाप नहिं जुरहि रिसाने। बैठिअ होइहिं पाय पिराने॥
+
<br>जौ अति प्रिय तौ करिअ उपाई। जोरिअ कोउ बड़ गुनी बोलाई॥
+
<br>बोलत लखनहिं जनकु डेराहीं। मष्ट करहु अनुचित भल नाहीं॥
+
<br>थर थर कापहिं पुर नर नारी। छोट कुमार खोट बड़ भारी॥
+
<br>भृगुपति सुनि सुनि निरभय बानी। रिस तन जरइ होइ बल हानी॥
+
<br>बोले रामहि देइ निहोरा। बचउँ बिचारि बंधु लघु तोरा॥
+
<br>मनु मलीन तनु सुंदर कैसें। बिष रस भरा कनक घटु जैसैं॥
+
<br>दो०- सुनि लछिमन बिहसे बहुरि नयन तरेरे राम।
+
<br>गुर समीप गवने सकुचि परिहरि बानी बाम॥२७८॥
+
<br>–*–*–
+
<br>अति बिनीत मृदु सीतल बानी। बोले रामु जोरि जुग पानी॥
+
<br>सुनहु नाथ तुम्ह सहज सुजाना। बालक बचनु करिअ नहिं काना॥
+
<br>बररै बालक एकु सुभाऊ। इन्हहि न संत बिदूषहिं काऊ॥
+
<br>तेहिं नाहीं कछु काज बिगारा। अपराधी में नाथ तुम्हारा॥
+
<br>कृपा कोपु बधु बँधब गोसाईं। मो पर करिअ दास की नाई॥
+
<br>कहिअ बेगि जेहि बिधि रिस जाई। मुनिनायक सोइ करौं उपाई॥
+
<br>कह मुनि राम जाइ रिस कैसें। अजहुँ अनुज तव चितव अनैसें॥
+
<br>एहि के कंठ कुठारु न दीन्हा। तौ मैं काह कोपु करि कीन्हा॥
+
<br>दो०-गर्भ स्त्रवहिं अवनिप रवनि सुनि कुठार गति घोर।
+
<br>परसु अछत देखउँ जिअत बैरी भूपकिसोर॥२७९॥
+
<br>–*–*–
+
<br>बहइ न हाथु दहइ रिस छाती। भा कुठारु कुंठित नृपघाती॥
+
<br>भयउ बाम बिधि फिरेउ सुभाऊ। मोरे हृदयँ कृपा कसि काऊ॥
+
<br>आजु दया दुखु दुसह सहावा। सुनि सौमित्र बिहसि सिरु नावा॥
+
<br>बाउ कृपा मूरति अनुकूला। बोलत बचन झरत जनु फूला॥
+
<br>जौं पै कृपाँ जरिहिं मुनि गाता। क्रोध भएँ तनु राख बिधाता॥
+
<br>देखु जनक हठि बालक एहू। कीन्ह चहत जड़ जमपुर गेहू॥
+
<br>बेगि करहु किन आँखिन्ह ओटा। देखत छोट खोट नृप ढोटा॥
+
<br>बिहसे लखनु कहा मन माहीं। मूदें आँखि कतहुँ कोउ नाहीं॥
+
<br>दो०-परसुरामु तब राम प्रति बोले उर अति क्रोधु।
+
<br>संभु सरासनु तोरि सठ करसि हमार प्रबोधु॥२८०॥
+
<br>–*–*–
+
<br>बंधु कहइ कटु संमत तोरें। तू छल बिनय करसि कर जोरें॥
+
<br>करु परितोषु मोर संग्रामा। नाहिं त छाड़ कहाउब रामा॥
+
<br>छलु तजि करहि समरु सिवद्रोही। बंधु सहित न त मारउँ तोही॥
+
<br>भृगुपति बकहिं कुठार उठाएँ। मन मुसकाहिं रामु सिर नाएँ॥
+
<br>गुनह लखन कर हम पर रोषू। कतहुँ सुधाइहु ते बड़ दोषू॥
+
<br>टेढ़ जानि सब बंदइ काहू। बक्र चंद्रमहि ग्रसइ न राहू॥
+
<br>राम कहेउ रिस तजिअ मुनीसा। कर कुठारु आगें यह सीसा॥
+
<br>जेंहिं रिस जाइ करिअ सोइ स्वामी। मोहि जानि आपन अनुगामी॥
+
<br>दो०-प्रभुहि सेवकहि समरु कस तजहु बिप्रबर रोसु।
+
<br>बेषु बिलोकें कहेसि कछु बालकहू नहिं दोसु॥२८१॥
+
<br>–*–*–
+
<br>देखि कुठार बान धनु धारी। भै लरिकहि रिस बीरु बिचारी॥
+
<br>नामु जान पै तुम्हहि न चीन्हा। बंस सुभायँ उतरु तेंहिं दीन्हा॥
+
<br>जौं तुम्ह औतेहु मुनि की नाईं। पद रज सिर सिसु धरत गोसाईं॥
+
<br>छमहु चूक अनजानत केरी। चहिअ बिप्र उर कृपा घनेरी॥
+
<br>हमहि तुम्हहि सरिबरि कसि नाथा॥कहहु न कहाँ चरन कहँ माथा॥
+
<br>राम मात्र लघु नाम हमारा। परसु सहित बड़ नाम तोहारा॥
+
<br>देव एकु गुनु धनुष हमारें। नव गुन परम पुनीत तुम्हारें॥
+
<br>सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे। छमहु बिप्र अपराध हमारे॥
+
<br>दो०-बार बार मुनि बिप्रबर कहा राम सन राम।
+
<br>बोले भृगुपति सरुष हसि तहूँ बंधु सम बाम॥२८२॥
+
<br>–*–*–
+
<br>निपटहिं द्विज करि जानहि मोही। मैं जस बिप्र सुनावउँ तोही॥
+
<br>चाप स्त्रुवा सर आहुति जानू। कोप मोर अति घोर कृसानु॥
+
<br>समिधि सेन चतुरंग सुहाई। महा महीप भए पसु आई॥
+
<br>मै एहि परसु काटि बलि दीन्हे। समर जग्य जप कोटिन्ह कीन्हे॥
+
<br>मोर प्रभाउ बिदित नहिं तोरें। बोलसि निदरि बिप्र के भोरें॥
+
<br>भंजेउ चापु दापु बड़ बाढ़ा। अहमिति मनहुँ जीति जगु ठाढ़ा॥
+
<br>राम कहा मुनि कहहु बिचारी। रिस अति बड़ि लघु चूक हमारी॥
+
<br>छुअतहिं टूट पिनाक पुराना। मैं कहि हेतु करौं अभिमाना॥
+
<br>दो०-जौं हम निदरहिं बिप्र बदि सत्य सुनहु भृगुनाथ।
+
<br>तौ अस को जग सुभटु जेहि भय बस नावहिं माथ॥२८३॥
+
<br>–*–*–
+
<br>देव दनुज भूपति भट नाना। समबल अधिक होउ बलवाना॥
+
<br>जौं रन हमहि पचारै कोऊ। लरहिं सुखेन कालु किन होऊ॥
+
<br>छत्रिय तनु धरि समर सकाना। कुल कलंकु तेहिं पावँर आना॥
+
<br>कहउँ सुभाउ न कुलहि प्रसंसी। कालहु डरहिं न रन रघुबंसी॥
+
<br>बिप्रबंस कै असि प्रभुताई। अभय होइ जो तुम्हहि डेराई॥
+
<br>सुनु मृदु गूढ़ बचन रघुपति के। उघरे पटल परसुधर मति के॥
+
<br>राम रमापति कर धनु लेहू। खैंचहु मिटै मोर संदेहू॥
+
<br>देत चापु आपुहिं चलि गयऊ। परसुराम मन बिसमय भयऊ॥
+
<br>दो०-जाना राम प्रभाउ तब पुलक प्रफुल्लित गात।
+
<br>जोरि पानि बोले बचन ह्दयँ न प्रेमु अमात॥२८४॥
+
<br>–*–*–
+
<br>जय रघुबंस बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृसानु॥
+
<br>जय सुर बिप्र धेनु हितकारी। जय मद मोह कोह भ्रम हारी॥
+
<br>बिनय सील करुना गुन सागर। जयति बचन रचना अति नागर॥
+
<br>सेवक सुखद सुभग सब अंगा। जय सरीर छबि कोटि अनंगा॥
+
<br>करौं काह मुख एक प्रसंसा। जय महेस मन मानस हंसा॥
+
<br>अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता। छमहु छमामंदिर दोउ भ्राता॥
+
<br>कहि जय जय जय रघुकुलकेतू। भृगुपति गए बनहि तप हेतू॥
+
<br>अपभयँ कुटिल महीप डेराने। जहँ तहँ कायर गवँहिं पराने॥
+
<br>दो०-देवन्ह दीन्हीं दुंदुभीं प्रभु पर बरषहिं फूल।
+
<br>हरषे पुर नर नारि सब मिटी मोहमय सूल॥२८५॥
+
<br>–*–*–
+
<br>अति गहगहे बाजने बाजे। सबहिं मनोहर मंगल साजे॥
+
<br>जूथ जूथ मिलि सुमुख सुनयनीं। करहिं गान कल कोकिलबयनी॥
+
<br>सुखु बिदेह कर बरनि न जाई। जन्मदरिद्र मनहुँ निधि पाई॥
+
<br>गत त्रास भइ सीय सुखारी। जनु बिधु उदयँ चकोरकुमारी॥
+
<br>जनक कीन्ह कौसिकहि प्रनामा। प्रभु प्रसाद धनु भंजेउ रामा॥
+
<br>मोहि कृतकृत्य कीन्ह दुहुँ भाईं। अब जो उचित सो कहिअ गोसाई॥
+
<br>कह मुनि सुनु नरनाथ प्रबीना। रहा बिबाहु चाप आधीना॥
+
<br>टूटतहीं धनु भयउ बिबाहू। सुर नर नाग बिदित सब काहु॥
+
<br>दो०-तदपि जाइ तुम्ह करहु अब जथा बंस ब्यवहारु।
+
<br>बूझि बिप्र कुलबृद्ध गुर बेद बिदित आचारु॥२८६॥
+
<br>–*–*–
+
<br>दूत अवधपुर पठवहु जाई। आनहिं नृप दसरथहि बोलाई॥
+
<br>मुदित राउ कहि भलेहिं कृपाला। पठए दूत बोलि तेहि काला॥
+
<br>बहुरि महाजन सकल बोलाए। आइ सबन्हि सादर सिर नाए॥
+
<br>हाट बाट मंदिर सुरबासा। नगरु सँवारहु चारिहुँ पासा॥
+
<br>हरषि चले निज निज गृह आए। पुनि परिचारक बोलि पठाए॥
+
<br>रचहु बिचित्र बितान बनाई। सिर धरि बचन चले सचु पाई॥
+
<br>पठए बोलि गुनी तिन्ह नाना। जे बितान बिधि कुसल सुजाना॥
+
<br>बिधिहि बंदि तिन्ह कीन्ह अरंभा। बिरचे कनक कदलि के खंभा॥
+
<br>दो०-हरित मनिन्ह के पत्र फल पदुमराग के फूल।
+
<br>रचना देखि बिचित्र अति मनु बिरंचि कर भूल॥२८७॥
+
<br>–*–*–
+
<br>बेनि हरित मनिमय सब कीन्हे। सरल सपरब परहिं नहिं चीन्हे॥
+
<br>कनक कलित अहिबेल बनाई। लखि नहि परइ सपरन सुहाई॥
+
<br>तेहि के रचि पचि बंध बनाए। बिच बिच मुकता दाम सुहाए॥
+
<br>मानिक मरकत कुलिस पिरोजा। चीरि कोरि पचि रचे सरोजा॥
+
<br>किए भृंग बहुरंग बिहंगा। गुंजहिं कूजहिं पवन प्रसंगा॥
+
<br>सुर प्रतिमा खंभन गढ़ी काढ़ी। मंगल द्रब्य लिएँ सब ठाढ़ी॥
+
<br>चौंकें भाँति अनेक पुराईं। सिंधुर मनिमय सहज सुहाई॥
+
<br>दो०-सौरभ पल्लव सुभग सुठि किए नीलमनि कोरि॥
+
<br>हेम बौर मरकत घवरि लसत पाटमय डोरि॥२८८॥
+
<br>–*–*–
+
<br>रचे रुचिर बर बंदनिबारे। मनहुँ मनोभवँ फंद सँवारे॥
+
<br>मंगल कलस अनेक बनाए। ध्वज पताक पट चमर सुहाए॥
+
<br>दीप मनोहर मनिमय नाना। जाइ न बरनि बिचित्र बिताना॥
+
<br>जेहिं मंडप दुलहिनि बैदेही। सो बरनै असि मति कबि केही॥
+
<br>दूलहु रामु रूप गुन सागर। सो बितानु तिहुँ लोक उजागर॥
+
<br>जनक भवन कै सौभा जैसी। गृह गृह प्रति पुर देखिअ तैसी॥
+
<br>जेहिं तेरहुति तेहि समय निहारी। तेहि लघु लगहिं भुवन दस चारी॥
+
<br>जो संपदा नीच गृह सोहा। सो बिलोकि सुरनायक मोहा॥
+
<br>दो०-बसइ नगर जेहि लच्छ करि कपट नारि बर बेषु॥
+
<br>तेहि पुर कै सोभा कहत सकुचहिं सारद सेषु॥२८९॥
+
<br>–*–*–
+
<br>पहुँचे दूत राम पुर पावन। हरषे नगर बिलोकि सुहावन॥
+
<br>भूप द्वार तिन्ह खबरि जनाई। दसरथ नृप सुनि लिए बोलाई॥
+
<br>करि प्रनामु तिन्ह पाती दीन्ही। मुदित महीप आपु उठि लीन्ही॥
+
<br>बारि बिलोचन बाचत पाँती। पुलक गात आई भरि छाती॥
+
<br>रामु लखनु उर कर बर चीठी। रहि गए कहत न खाटी मीठी॥
+
<br>पुनि धरि धीर पत्रिका बाँची। हरषी सभा बात सुनि साँची॥
+
<br>खेलत रहे तहाँ सुधि पाई। आए भरतु सहित हित भाई॥
+
<br>पूछत अति सनेहँ सकुचाई। तात कहाँ तें पाती आई॥
+
<br>दो०-कुसल प्रानप्रिय बंधु दोउ अहहिं कहहु केहिं देस।
+
<br>सुनि सनेह साने बचन बाची बहुरि नरेस॥२९०॥
+
<br>–*–*–
+
<br>सुनि पाती पुलके दोउ भ्राता। अधिक सनेहु समात न गाता॥
+
<br>प्रीति पुनीत भरत कै देखी। सकल सभाँ सुखु लहेउ बिसेषी॥
+
<br>तब नृप दूत निकट बैठारे। मधुर मनोहर बचन उचारे॥
+
<br>भैया कहहु कुसल दोउ बारे। तुम्ह नीकें निज नयन निहारे॥
+
<br>स्यामल गौर धरें धनु भाथा। बय किसोर कौसिक मुनि साथा॥
+
<br>पहिचानहु तुम्ह कहहु सुभाऊ। प्रेम बिबस पुनि पुनि कह राऊ॥
+
<br>जा दिन तें मुनि गए लवाई। तब तें आजु साँचि सुधि पाई॥
+
<br>कहहु बिदेह कवन बिधि जाने। सुनि प्रिय बचन दूत मुसकाने॥
+
<br>दो०-सुनहु महीपति मुकुट मनि तुम्ह सम धन्य न कोउ।
+
<br>रामु लखनु जिन्ह के तनय बिस्व बिभूषन दोउ॥२९१॥
+
<br>–*–*–
+
<br>पूछन जोगु न तनय तुम्हारे। पुरुषसिंघ तिहु पुर उजिआरे॥
+
<br>जिन्ह के जस प्रताप कें आगे। ससि मलीन रबि सीतल लागे॥
+
<br>तिन्ह कहँ कहिअ नाथ किमि चीन्हे। देखिअ रबि कि दीप कर लीन्हे॥
+
<br>सीय स्वयंबर भूप अनेका। समिटे सुभट एक तें एका॥
+
<br>संभु सरासनु काहुँ न टारा। हारे सकल बीर बरिआरा॥
+
<br>तीनि लोक महँ जे भटमानी। सभ कै सकति संभु धनु भानी॥
+
<br>सकइ उठाइ सरासुर मेरू। सोउ हियँ हारि गयउ करि फेरू॥
+
<br>जेहि कौतुक सिवसैलु उठावा। सोउ तेहि सभाँ पराभउ पावा॥
+
<br>दो०-तहाँ राम रघुबंस मनि सुनिअ महा महिपाल।
+
<br>भंजेउ चाप प्रयास बिनु जिमि गज पंकज नाल॥२९२॥
+
<br>–*–*–
+
<br>सुनि सरोष भृगुनायकु आए। बहुत भाँति तिन्ह आँखि देखाए॥
+
<br>देखि राम बलु निज धनु दीन्हा। करि बहु बिनय गवनु बन कीन्हा॥
+
<br>राजन रामु अतुलबल जैसें। तेज निधान लखनु पुनि तैसें॥
+
<br>कंपहि भूप बिलोकत जाकें। जिमि गज हरि किसोर के ताकें॥
+
<br>देव देखि तव बालक दोऊ। अब न आँखि तर आवत कोऊ॥
+
<br>दूत बचन रचना प्रिय लागी। प्रेम प्रताप बीर रस पागी॥
+
<br>सभा समेत राउ अनुरागे। दूतन्ह देन निछावरि लागे॥
+
<br>कहि अनीति ते मूदहिं काना। धरमु बिचारि सबहिं सुख माना॥
+
<br>दो०-तब उठि भूप बसिष्ठ कहुँ दीन्हि पत्रिका जाइ।
+
<br>कथा सुनाई गुरहि सब सादर दूत बोलाइ॥२९३॥
+
<br>–*–*–
+
<br>सुनि बोले गुर अति सुखु पाई। पुन्य पुरुष कहुँ महि सुख छाई॥
+
<br>जिमि सरिता सागर महुँ जाहीं। जद्यपि ताहि कामना नाहीं॥
+
<br>तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाएँ। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ॥
+
<br>तुम्ह गुर बिप्र धेनु सुर सेबी। तसि पुनीत कौसल्या देबी॥
+
<br>सुकृती तुम्ह समान जग माहीं। भयउ न है कोउ होनेउ नाहीं॥
+
<br>तुम्ह ते अधिक पुन्य बड़ काकें। राजन राम सरिस सुत जाकें॥
+
<br>बीर बिनीत धरम ब्रत धारी। गुन सागर बर बालक चारी॥
+
<br>तुम्ह कहुँ सर्ब काल कल्याना। सजहु बरात बजाइ निसाना॥
+
<br>दो०-चलहु बेगि सुनि गुर बचन भलेहिं नाथ सिरु नाइ।
+
<br>भूपति गवने भवन तब दूतन्ह बासु देवाइ॥२९४॥
+
<br>–*–*–
+
<br>राजा सबु रनिवास बोलाई। जनक पत्रिका बाचि सुनाई॥
+
<br>सुनि संदेसु सकल हरषानीं। अपर कथा सब भूप बखानीं॥
+
<br>प्रेम प्रफुल्लित राजहिं रानी। मनहुँ सिखिनि सुनि बारिद बनी॥
+
<br>मुदित असीस देहिं गुरु नारीं। अति आनंद मगन महतारीं॥
+
<br>लेहिं परस्पर अति प्रिय पाती। हृदयँ लगाइ जुड़ावहिं छाती॥
+
<br>राम लखन कै कीरति करनी। बारहिं बार भूपबर बरनी॥
+
<br>मुनि प्रसादु कहि द्वार सिधाए। रानिन्ह तब महिदेव बोलाए॥
+
<br>दिए दान आनंद समेता। चले बिप्रबर आसिष देता॥
+
<br>सो०-जाचक लिए हँकारि दीन्हि निछावरि कोटि बिधि।
+
<br>चिरु जीवहुँ सुत चारि चक्रबर्ति दसरत्थ के॥२९५॥
+
<br>कहत चले पहिरें पट नाना। हरषि हने गहगहे निसाना॥
+
<br>समाचार सब लोगन्ह पाए। लागे घर घर होने बधाए॥
+
<br>भुवन चारि दस भरा उछाहू। जनकसुता रघुबीर बिआहू॥
+
<br>सुनि सुभ कथा लोग अनुरागे। मग गृह गलीं सँवारन लागे॥
+
<br>जद्यपि अवध सदैव सुहावनि। राम पुरी मंगलमय पावनि॥
+
<br>तदपि प्रीति कै प्रीति सुहाई। मंगल रचना रची बनाई॥
+
<br>ध्वज पताक पट चामर चारु। छावा परम बिचित्र बजारू॥
+
<br>कनक कलस तोरन मनि जाला। हरद दूब दधि अच्छत माला॥
+
<br>दो०-मंगलमय निज निज भवन लोगन्ह रचे बनाइ।
+
<br>बीथीं सीचीं चतुरसम चौकें चारु पुराइ॥२९६॥
+
<br>–*–*–
+
<br>जहँ तहँ जूथ जूथ मिलि भामिनि। सजि नव सप्त सकल दुति दामिनि॥
+
<br>बिधुबदनीं मृग सावक लोचनि। निज सरुप रति मानु बिमोचनि॥
+
<br>गावहिं मंगल मंजुल बानीं। सुनिकल रव कलकंठि लजानीं॥
+
<br>भूप भवन किमि जाइ बखाना। बिस्व बिमोहन रचेउ बिताना॥
+
<br>मंगल द्रब्य मनोहर नाना। राजत बाजत बिपुल निसाना॥
+
<br>कतहुँ बिरिद बंदी उच्चरहीं। कतहुँ बेद धुनि भूसुर करहीं॥
+
<br>गावहिं सुंदरि मंगल गीता। लै लै नामु रामु अरु सीता॥
+
<br>बहुत उछाहु भवनु अति थोरा। मानहुँ उमगि चला चहु ओरा॥
+
<br>दो०-सोभा दसरथ भवन कइ को कबि बरनै पार।
+
<br>जहाँ सकल सुर सीस मनि राम लीन्ह अवतार॥२९७॥
+
<br>–*–*–
+
<br>भूप भरत पुनि लिए बोलाई। हय गय स्यंदन साजहु जाई॥
+
<br>चलहु बेगि रघुबीर बराता। सुनत पुलक पूरे दोउ भ्राता॥
+
<br>भरत सकल साहनी बोलाए। आयसु दीन्ह मुदित उठि धाए॥
+
<br>रचि रुचि जीन तुरग तिन्ह साजे। बरन बरन बर बाजि बिराजे॥
+
<br>सुभग सकल सुठि चंचल करनी। अय इव जरत धरत पग धरनी॥
+
<br>नाना जाति न जाहिं बखाने। निदरि पवनु जनु चहत उड़ाने॥
+
<br>तिन्ह सब छयल भए असवारा। भरत सरिस बय राजकुमारा॥
+
<br>सब सुंदर सब भूषनधारी। कर सर चाप तून कटि भारी॥
+
<br>दो०- छरे छबीले छयल सब सूर सुजान नबीन।
+
<br>जुग पदचर असवार प्रति जे असिकला प्रबीन॥२९८॥
+
<br>–*–*–
+
<br>बाँधे बिरद बीर रन गाढ़े। निकसि भए पुर बाहेर ठाढ़े॥
+
<br>फेरहिं चतुर तुरग गति नाना। हरषहिं सुनि सुनि पवन निसाना॥
+
<br>रथ सारथिन्ह बिचित्र बनाए। ध्वज पताक मनि भूषन लाए॥
+
<br>चवँर चारु किंकिन धुनि करही। भानु जान सोभा अपहरहीं॥
+
<br>सावँकरन अगनित हय होते। ते तिन्ह रथन्ह सारथिन्ह जोते॥
+
<br>सुंदर सकल अलंकृत सोहे। जिन्हहि बिलोकत मुनि मन मोहे॥
+
<br>जे जल चलहिं थलहि की नाई। टाप न बूड़ बेग अधिकाई॥
+
<br>अस्त्र सस्त्र सबु साजु बनाई। रथी सारथिन्ह लिए बोलाई॥
+
<br>दो०-चढ़ि चढ़ि रथ बाहेर नगर लागी जुरन बरात।
+
<br>होत सगुन सुन्दर सबहि जो जेहि कारज जात॥२९९॥
+
<br>–*–*–
+
<br>कलित करिबरन्हि परीं अँबारीं। कहि न जाहिं जेहि भाँति सँवारीं॥
+
<br>चले मत्तगज घंट बिराजी। मनहुँ सुभग सावन घन राजी॥
+
<br>बाहन अपर अनेक बिधाना। सिबिका सुभग सुखासन जाना॥
+
<br>तिन्ह चढ़ि चले बिप्रबर बृन्दा। जनु तनु धरें सकल श्रुति छंदा॥
+
<br>मागध सूत बंदि गुनगायक। चले जान चढ़ि जो जेहि लायक॥
+
<br>बेसर ऊँट बृषभ बहु जाती। चले बस्तु भरि अगनित भाँती॥
+
<br>कोटिन्ह काँवरि चले कहारा। बिबिध बस्तु को बरनै पारा॥
+
<br>चले सकल सेवक समुदाई। निज निज साजु समाजु बनाई॥
+
<br>दो०-सब कें उर निर्भर हरषु पूरित पुलक सरीर।
+
<br>कबहिं देखिबे नयन भरि रामु लखनू दोउ बीर॥३००॥
+

11:53, 11 अप्रैल 2017 के समय का अवतरण

भूप सहस दस एकहि बारा। लगे उठावन टरइ न टारा॥
डगइ न संभु सरासन कैसें। कामी बचन सती मनु जैसें॥
सब नृप भए जोगु उपहासी। जैसें बिनु बिराग संन्यासी॥
कीरति बिजय बीरता भारी। चले चाप कर बरबस हारी॥
श्रीहत भए हारि हियँ राजा। बैठे निज निज जाइ समाजा॥
नृपन्ह बिलोकि जनकु अकुलाने। बोले बचन रोष जनु साने॥
दीप दीप के भूपति नाना। आए सुनि हम जो पनु ठाना॥
देव दनुज धरि मनुज सरीरा। बिपुल बीर आए रनधीरा॥
दो0-कुअँरि मनोहर बिजय बड़ि कीरति अति कमनीय।
पावनिहार बिरंचि जनु रचेउ न धनु दमनीय॥251॥

कहहु काहि यहु लाभु न भावा। काहुँ न संकर चाप चढ़ावा॥
रहउ चढ़ाउब तोरब भाई। तिलु भरि भूमि न सके छड़ाई॥
अब जनि कोउ माखै भट मानी। बीर बिहीन मही मैं जानी॥
तजहु आस निज निज गृह जाहू। लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू॥
सुकृत जाइ जौं पनु परिहरऊँ। कुअँरि कुआरि रहउ का करऊँ॥
जो जनतेउँ बिनु भट भुबि भाई। तौ पनु करि होतेउँ न हँसाई॥
जनक बचन सुनि सब नर नारी। देखि जानकिहि भए दुखारी॥
माखे लखनु कुटिल भइँ भौंहें। रदपट फरकत नयन रिसौंहें॥
दो0-कहि न सकत रघुबीर डर लगे बचन जनु बान।
नाइ राम पद कमल सिरु बोले गिरा प्रमान॥252॥

रघुबंसिन्ह महुँ जहँ कोउ होई। तेहिं समाज अस कहइ न कोई॥
कही जनक जसि अनुचित बानी। बिद्यमान रघुकुल मनि जानी॥
सुनहु भानुकुल पंकज भानू। कहउँ सुभाउ न कछु अभिमानू॥
जौ तुम्हारि अनुसासन पावौं। कंदुक इव ब्रह्मांड उठावौं॥
काचे घट जिमि डारौं फोरी। सकउँ मेरु मूलक जिमि तोरी॥
तव प्रताप महिमा भगवाना। को बापुरो पिनाक पुराना॥
नाथ जानि अस आयसु होऊ। कौतुकु करौं बिलोकिअ सोऊ॥
कमल नाल जिमि चाफ चढ़ावौं। जोजन सत प्रमान लै धावौं॥
दो0-तोरौं छत्रक दंड जिमि तव प्रताप बल नाथ।
जौं न करौं प्रभु पद सपथ कर न धरौं धनु भाथ॥253॥

लखन सकोप बचन जे बोले। डगमगानि महि दिग्गज डोले॥
सकल लोक सब भूप डेराने। सिय हियँ हरषु जनकु सकुचाने॥
गुर रघुपति सब मुनि मन माहीं। मुदित भए पुनि पुनि पुलकाहीं॥
सयनहिं रघुपति लखनु नेवारे। प्रेम समेत निकट बैठारे॥
बिस्वामित्र समय सुभ जानी। बोले अति सनेहमय बानी॥
उठहु राम भंजहु भवचापा। मेटहु तात जनक परितापा॥
सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा। हरषु बिषादु न कछु उर आवा॥
ठाढ़े भए उठि सहज सुभाएँ। ठवनि जुबा मृगराजु लजाएँ॥
दो0-उदित उदयगिरि मंच पर रघुबर बालपतंग।
बिकसे संत सरोज सब हरषे लोचन भृंग॥254॥

नृपन्ह केरि आसा निसि नासी। बचन नखत अवली न प्रकासी॥
मानी महिप कुमुद सकुचाने। कपटी भूप उलूक लुकाने॥
भए बिसोक कोक मुनि देवा। बरिसहिं सुमन जनावहिं सेवा॥
गुर पद बंदि सहित अनुरागा। राम मुनिन्ह सन आयसु मागा॥
सहजहिं चले सकल जग स्वामी। मत्त मंजु बर कुंजर गामी॥
चलत राम सब पुर नर नारी। पुलक पूरि तन भए सुखारी॥
बंदि पितर सुर सुकृत सँभारे। जौं कछु पुन्य प्रभाउ हमारे॥
तौ सिवधनु मृनाल की नाईं। तोरहुँ राम गनेस गोसाईं॥
दो0-रामहि प्रेम समेत लखि सखिन्ह समीप बोलाइ।
सीता मातु सनेह बस बचन कहइ बिलखाइ॥255॥

सखि सब कौतुक देखनिहारे। जेठ कहावत हितू हमारे॥
कोउ न बुझाइ कहइ गुर पाहीं। ए बालक असि हठ भलि नाहीं॥
रावन बान छुआ नहिं चापा। हारे सकल भूप करि दापा॥
सो धनु राजकुअँर कर देहीं। बाल मराल कि मंदर लेहीं॥
भूप सयानप सकल सिरानी। सखि बिधि गति कछु जाति न जानी॥
बोली चतुर सखी मृदु बानी। तेजवंत लघु गनिअ न रानी॥
कहँ कुंभज कहँ सिंधु अपारा। सोषेउ सुजसु सकल संसारा॥
रबि मंडल देखत लघु लागा। उदयँ तासु तिभुवन तम भागा॥
दो0-मंत्र परम लघु जासु बस बिधि हरि हर सुर सर्ब।
महामत्त गजराज कहुँ बस कर अंकुस खर्ब॥256॥

काम कुसुम धनु सायक लीन्हे। सकल भुवन अपने बस कीन्हे॥
देबि तजिअ संसउ अस जानी। भंजब धनुष रामु सुनु रानी॥
सखी बचन सुनि भै परतीती। मिटा बिषादु बढ़ी अति प्रीती॥
तब रामहि बिलोकि बैदेही। सभय हृदयँ बिनवति जेहि तेही॥
मनहीं मन मनाव अकुलानी। होहु प्रसन्न महेस भवानी॥
करहु सफल आपनि सेवकाई। करि हितु हरहु चाप गरुआई॥
गननायक बरदायक देवा। आजु लगें कीन्हिउँ तुअ सेवा॥
बार बार बिनती सुनि मोरी। करहु चाप गुरुता अति थोरी॥
दो0-देखि देखि रघुबीर तन सुर मनाव धरि धीर॥
भरे बिलोचन प्रेम जल पुलकावली सरीर॥257॥

नीकें निरखि नयन भरि सोभा। पितु पनु सुमिरि बहुरि मनु छोभा॥
अहह तात दारुनि हठ ठानी। समुझत नहिं कछु लाभु न हानी॥
सचिव सभय सिख देइ न कोई। बुध समाज बड़ अनुचित होई॥
कहँ धनु कुलिसहु चाहि कठोरा। कहँ स्यामल मृदुगात किसोरा॥
बिधि केहि भाँति धरौं उर धीरा। सिरस सुमन कन बेधिअ हीरा॥
सकल सभा कै मति भै भोरी। अब मोहि संभुचाप गति तोरी॥
निज जड़ता लोगन्ह पर डारी। होहि हरुअ रघुपतिहि निहारी॥
अति परिताप सीय मन माही। लव निमेष जुग सब सय जाहीं॥
दो0-प्रभुहि चितइ पुनि चितव महि राजत लोचन लोल।
खेलत मनसिज मीन जुग जनु बिधु मंडल डोल॥258॥

गिरा अलिनि मुख पंकज रोकी। प्रगट न लाज निसा अवलोकी॥
लोचन जलु रह लोचन कोना। जैसे परम कृपन कर सोना॥
सकुची ब्याकुलता बड़ि जानी। धरि धीरजु प्रतीति उर आनी॥
तन मन बचन मोर पनु साचा। रघुपति पद सरोज चितु राचा॥
तौ भगवानु सकल उर बासी। करिहिं मोहि रघुबर कै दासी॥
जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संहेहू॥
प्रभु तन चितइ प्रेम तन ठाना। कृपानिधान राम सबु जाना॥
सियहि बिलोकि तकेउ धनु कैसे। चितव गरुरु लघु ब्यालहि जैसे॥
दो0-लखन लखेउ रघुबंसमनि ताकेउ हर कोदंडु।
पुलकि गात बोले बचन चरन चापि ब्रह्मांडु॥259॥

दिसकुंजरहु कमठ अहि कोला। धरहु धरनि धरि धीर न डोला॥
रामु चहहिं संकर धनु तोरा। होहु सजग सुनि आयसु मोरा॥
चाप सपीप रामु जब आए। नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए॥
सब कर संसउ अरु अग्यानू। मंद महीपन्ह कर अभिमानू॥
भृगुपति केरि गरब गरुआई। सुर मुनिबरन्ह केरि कदराई॥
सिय कर सोचु जनक पछितावा। रानिन्ह कर दारुन दुख दावा॥
संभुचाप बड बोहितु पाई। चढे जाइ सब संगु बनाई॥
राम बाहुबल सिंधु अपारू। चहत पारु नहि कोउ कड़हारू॥
दो0-राम बिलोके लोग सब चित्र लिखे से देखि।
चितई सीय कृपायतन जानी बिकल बिसेषि॥260॥

देखी बिपुल बिकल बैदेही। निमिष बिहात कलप सम तेही॥
तृषित बारि बिनु जो तनु त्यागा। मुएँ करइ का सुधा तड़ागा॥
का बरषा सब कृषी सुखानें। समय चुकें पुनि का पछितानें॥
अस जियँ जानि जानकी देखी। प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी॥
गुरहि प्रनामु मनहि मन कीन्हा। अति लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा॥
दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ। पुनि नभ धनु मंडल सम भयऊ॥
लेत चढ़ावत खैंचत गाढ़ें। काहुँ न लखा देख सबु ठाढ़ें॥
तेहि छन राम मध्य धनु तोरा। भरे भुवन धुनि घोर कठोरा॥
छं0-भरे भुवन घोर कठोर रव रबि बाजि तजि मारगु चले।
चिक्करहिं दिग्गज डोल महि अहि कोल कूरुम कलमले॥
सुर असुर मुनि कर कान दीन्हें सकल बिकल बिचारहीं।
कोदंड खंडेउ राम तुलसी जयति बचन उचारही॥
सो0-संकर चापु जहाजु सागरु रघुबर बाहुबलु।
बूड़ सो सकल समाजु चढ़ा जो प्रथमहिं मोह बस॥261॥

प्रभु दोउ चापखंड महि डारे। देखि लोग सब भए सुखारे॥
कोसिकरुप पयोनिधि पावन। प्रेम बारि अवगाहु सुहावन॥
रामरूप राकेसु निहारी। बढ़त बीचि पुलकावलि भारी॥
बाजे नभ गहगहे निसाना। देवबधू नाचहिं करि गाना॥
ब्रह्मादिक सुर सिद्ध मुनीसा। प्रभुहि प्रसंसहि देहिं असीसा॥
बरिसहिं सुमन रंग बहु माला। गावहिं किंनर गीत रसाला॥
रही भुवन भरि जय जय बानी। धनुषभंग धुनि जात न जानी॥
मुदित कहहिं जहँ तहँ नर नारी। भंजेउ राम संभुधनु भारी॥
दो0-बंदी मागध सूतगन बिरुद बदहिं मतिधीर।
करहिं निछावरि लोग सब हय गय धन मनि चीर॥262॥

झाँझि मृदंग संख सहनाई। भेरि ढोल दुंदुभी सुहाई॥
बाजहिं बहु बाजने सुहाए। जहँ तहँ जुबतिन्ह मंगल गाए॥
सखिन्ह सहित हरषी अति रानी। सूखत धान परा जनु पानी॥
जनक लहेउ सुखु सोचु बिहाई। पैरत थकें थाह जनु पाई॥
श्रीहत भए भूप धनु टूटे। जैसें दिवस दीप छबि छूटे॥
सीय सुखहि बरनिअ केहि भाँती। जनु चातकी पाइ जलु स्वाती॥
रामहि लखनु बिलोकत कैसें। ससिहि चकोर किसोरकु जैसें॥
सतानंद तब आयसु दीन्हा। सीताँ गमनु राम पहिं कीन्हा॥
दो0-संग सखीं सुदंर चतुर गावहिं मंगलचार।
गवनी बाल मराल गति सुषमा अंग अपार॥263॥

सखिन्ह मध्य सिय सोहति कैसे। छबिगन मध्य महाछबि जैसें॥
कर सरोज जयमाल सुहाई। बिस्व बिजय सोभा जेहिं छाई॥
तन सकोचु मन परम उछाहू। गूढ़ प्रेमु लखि परइ न काहू॥
जाइ समीप राम छबि देखी। रहि जनु कुँअरि चित्र अवरेखी॥
चतुर सखीं लखि कहा बुझाई। पहिरावहु जयमाल सुहाई॥
सुनत जुगल कर माल उठाई। प्रेम बिबस पहिराइ न जाई॥
सोहत जनु जुग जलज सनाला। ससिहि सभीत देत जयमाला॥
गावहिं छबि अवलोकि सहेली। सियँ जयमाल राम उर मेली॥
सो0-रघुबर उर जयमाल देखि देव बरिसहिं सुमन।
सकुचे सकल भुआल जनु बिलोकि रबि कुमुदगन॥264॥

पुर अरु ब्योम बाजने बाजे। खल भए मलिन साधु सब राजे॥
सुर किंनर नर नाग मुनीसा। जय जय जय कहि देहिं असीसा॥
नाचहिं गावहिं बिबुध बधूटीं। बार बार कुसुमांजलि छूटीं॥
जहँ तहँ बिप्र बेदधुनि करहीं। बंदी बिरदावलि उच्चरहीं॥
महि पाताल नाक जसु ब्यापा। राम बरी सिय भंजेउ चापा॥
करहिं आरती पुर नर नारी। देहिं निछावरि बित्त बिसारी॥
सोहति सीय राम कै जौरी। छबि सिंगारु मनहुँ एक ठोरी॥
सखीं कहहिं प्रभुपद गहु सीता। करति न चरन परस अति भीता॥
दो0-गौतम तिय गति सुरति करि नहिं परसति पग पानि।
मन बिहसे रघुबंसमनि प्रीति अलौकिक जानि॥265॥

तब सिय देखि भूप अभिलाषे। कूर कपूत मूढ़ मन माखे॥
उठि उठि पहिरि सनाह अभागे। जहँ तहँ गाल बजावन लागे॥
लेहु छड़ाइ सीय कह कोऊ। धरि बाँधहु नृप बालक दोऊ॥
तोरें धनुषु चाड़ नहिं सरई। जीवत हमहि कुअँरि को बरई॥
जौं बिदेहु कछु करै सहाई। जीतहु समर सहित दोउ भाई॥
साधु भूप बोले सुनि बानी। राजसमाजहि लाज लजानी॥
बलु प्रतापु बीरता बड़ाई। नाक पिनाकहि संग सिधाई॥
सोइ सूरता कि अब कहुँ पाई। असि बुधि तौ बिधि मुहँ मसि लाई॥
दो0-देखहु रामहि नयन भरि तजि इरिषा मदु कोहु।
लखन रोषु पावकु प्रबल जानि सलभ जनि होहु॥266॥

बैनतेय बलि जिमि चह कागू। जिमि ससु चहै नाग अरि भागू॥
जिमि चह कुसल अकारन कोही। सब संपदा चहै सिवद्रोही॥
लोभी लोलुप कल कीरति चहई। अकलंकता कि कामी लहई॥
हरि पद बिमुख परम गति चाहा। तस तुम्हार लालचु नरनाहा॥
कोलाहलु सुनि सीय सकानी। सखीं लवाइ गईं जहँ रानी॥
रामु सुभायँ चले गुरु पाहीं। सिय सनेहु बरनत मन माहीं॥
रानिन्ह सहित सोचबस सीया। अब धौं बिधिहि काह करनीया॥
भूप बचन सुनि इत उत तकहीं। लखनु राम डर बोलि न सकहीं॥
दो0-अरुन नयन भृकुटी कुटिल चितवत नृपन्ह सकोप।
मनहुँ मत्त गजगन निरखि सिंघकिसोरहि चोप॥267॥

खरभरु देखि बिकल पुर नारीं। सब मिलि देहिं महीपन्ह गारीं॥
तेहिं अवसर सुनि सिव धनु भंगा। आयसु भृगुकुल कमल पतंगा॥
देखि महीप सकल सकुचाने। बाज झपट जनु लवा लुकाने॥
गौरि सरीर भूति भल भ्राजा। भाल बिसाल त्रिपुंड बिराजा॥
सीस जटा ससिबदनु सुहावा। रिसबस कछुक अरुन होइ आवा॥
भृकुटी कुटिल नयन रिस राते। सहजहुँ चितवत मनहुँ रिसाते॥
बृषभ कंध उर बाहु बिसाला। चारु जनेउ माल मृगछाला॥
कटि मुनि बसन तून दुइ बाँधें। धनु सर कर कुठारु कल काँधें॥
दो0-सांत बेषु करनी कठिन बरनि न जाइ सरुप।
धरि मुनितनु जनु बीर रसु आयउ जहँ सब भूप॥268॥

देखत भृगुपति बेषु कराला। उठे सकल भय बिकल भुआला॥
पितु समेत कहि कहि निज नामा। लगे करन सब दंड प्रनामा॥
जेहि सुभायँ चितवहिं हितु जानी। सो जानइ जनु आइ खुटानी॥
जनक बहोरि आइ सिरु नावा। सीय बोलाइ प्रनामु करावा॥
आसिष दीन्हि सखीं हरषानीं। निज समाज लै गई सयानीं॥
बिस्वामित्रु मिले पुनि आई। पद सरोज मेले दोउ भाई॥
रामु लखनु दसरथ के ढोटा। दीन्हि असीस देखि भल जोटा॥
रामहि चितइ रहे थकि लोचन। रूप अपार मार मद मोचन॥
दो0-बहुरि बिलोकि बिदेह सन कहहु काह अति भीर॥
पूछत जानि अजान जिमि ब्यापेउ कोपु सरीर॥269॥

समाचार कहि जनक सुनाए। जेहि कारन महीप सब आए॥
सुनत बचन फिरि अनत निहारे। देखे चापखंड महि डारे॥
अति रिस बोले बचन कठोरा। कहु जड़ जनक धनुष कै तोरा॥
बेगि देखाउ मूढ़ न त आजू। उलटउँ महि जहँ लहि तव राजू॥
अति डरु उतरु देत नृपु नाहीं। कुटिल भूप हरषे मन माहीं॥
सुर मुनि नाग नगर नर नारी॥सोचहिं सकल त्रास उर भारी॥
मन पछिताति सीय महतारी। बिधि अब सँवरी बात बिगारी॥
भृगुपति कर सुभाउ सुनि सीता। अरध निमेष कलप सम बीता॥
दो0-सभय बिलोके लोग सब जानि जानकी भीरु।
हृदयँ न हरषु बिषादु कछु बोले श्रीरघुबीरु॥270॥

मासपारायण, नवाँ विश्राम

नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा॥
आयसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही॥
सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरि करनी करि करिअ लराई॥
सुनहु राम जेहिं सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा॥
सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा॥
सुनि मुनि बचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अपमाने॥
बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं॥
एहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू॥
दो0-रे नृप बालक कालबस बोलत तोहि न सँमार॥
धनुही सम तिपुरारि धनु बिदित सकल संसार॥271॥

लखन कहा हँसि हमरें जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना॥
का छति लाभु जून धनु तौरें। देखा राम नयन के भोरें॥
छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू ।
बोले चितइ परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा॥
बालकु बोलि बधउँ नहिं तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही॥
बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्व बिदित छत्रियकुल द्रोही॥
भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही॥
सहसबाहु भुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा॥
दो0-मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।
गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर॥272॥

बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महा भटमानी॥
पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू। चहत उड़ावन फूँकि पहारू॥
इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं॥
देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना॥
भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहउँ रिस रोकी॥
सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरें कुल इन्ह पर न सुराई॥
बधें पापु अपकीरति हारें। मारतहूँ पा परिअ तुम्हारें॥
कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा। ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा॥
दो0-जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर।
सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गभीर॥273॥

कौसिक सुनहु मंद यहु बालकु। कुटिल कालबस निज कुल घालकु॥
भानु बंस राकेस कलंकू। निपट निरंकुस अबुध असंकू॥
काल कवलु होइहि छन माहीं। कहउँ पुकारि खोरि मोहि नाहीं॥
तुम्ह हटकउ जौं चहहु उबारा। कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा॥
लखन कहेउ मुनि सुजस तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा॥
अपने मुँह तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी॥
नहिं संतोषु त पुनि कछु कहहू। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू॥
बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा॥
दो0-सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।
बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु॥274॥

तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागि बोलावा॥
सुनत लखन के बचन कठोरा। परसु सुधारि धरेउ कर घोरा॥
अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू। कटुबादी बालकु बधजोगू॥
बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा। अब यहु मरनिहार भा साँचा॥
कौसिक कहा छमिअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिं न साधू॥
खर कुठार मैं अकरुन कोही। आगें अपराधी गुरुद्रोही॥
उतर देत छोड़उँ बिनु मारें। केवल कौसिक सील तुम्हारें॥
न त एहि काटि कुठार कठोरें। गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरें॥
दो0-गाधिसूनु कह हृदयँ हँसि मुनिहि हरिअरइ सूझ।
अयमय खाँड न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ॥275॥

कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहि जान बिदित संसारा॥
माता पितहि उरिन भए नीकें। गुर रिनु रहा सोचु बड़ जीकें॥
सो जनु हमरेहि माथे काढ़ा। दिन चलि गए ब्याज बड़ बाढ़ा॥
अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली॥
सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा॥
भृगुबर परसु देखावहु मोही। बिप्र बिचारि बचउँ नृपद्रोही॥
मिले न कबहुँ सुभट रन गाढ़े। द्विज देवता घरहि के बाढ़े॥
अनुचित कहि सब लोग पुकारे। रघुपति सयनहिं लखनु नेवारे॥
दो0-लखन उतर आहुति सरिस भृगुबर कोपु कृसानु।
बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु॥276॥

नाथ करहु बालक पर छोहू। सूध दूधमुख करिअ न कोहू॥
जौं पै प्रभु प्रभाउ कछु जाना। तौ कि बराबरि करत अयाना॥
जौं लरिका कछु अचगरि करहीं। गुर पितु मातु मोद मन भरहीं॥
करिअ कृपा सिसु सेवक जानी। तुम्ह सम सील धीर मुनि ग्यानी॥
राम बचन सुनि कछुक जुड़ाने। कहि कछु लखनु बहुरि मुसकाने॥
हँसत देखि नख सिख रिस ब्यापी। राम तोर भ्राता बड़ पापी॥
गौर सरीर स्याम मन माहीं। कालकूटमुख पयमुख नाहीं॥
सहज टेढ़ अनुहरइ न तोही। नीचु मीचु सम देख न मौहीं॥
दो0-लखन कहेउ हँसि सुनहु मुनि क्रोधु पाप कर मूल।
जेहि बस जन अनुचित करहिं चरहिं बिस्व प्रतिकूल॥277॥

मैं तुम्हार अनुचर मुनिराया। परिहरि कोपु करिअ अब दाया॥
टूट चाप नहिं जुरहि रिसाने। बैठिअ होइहिं पाय पिराने॥
जौ अति प्रिय तौ करिअ उपाई। जोरिअ कोउ बड़ गुनी बोलाई॥
बोलत लखनहिं जनकु डेराहीं। मष्ट करहु अनुचित भल नाहीं॥
थर थर कापहिं पुर नर नारी। छोट कुमार खोट बड़ भारी॥
भृगुपति सुनि सुनि निरभय बानी। रिस तन जरइ होइ बल हानी॥
बोले रामहि देइ निहोरा। बचउँ बिचारि बंधु लघु तोरा॥
मनु मलीन तनु सुंदर कैसें। बिष रस भरा कनक घटु जैसैं॥
दो0- सुनि लछिमन बिहसे बहुरि नयन तरेरे राम।
गुर समीप गवने सकुचि परिहरि बानी बाम॥278॥

अति बिनीत मृदु सीतल बानी। बोले रामु जोरि जुग पानी॥
सुनहु नाथ तुम्ह सहज सुजाना। बालक बचनु करिअ नहिं काना॥
बररै बालक एकु सुभाऊ। इन्हहि न संत बिदूषहिं काऊ॥
तेहिं नाहीं कछु काज बिगारा। अपराधी में नाथ तुम्हारा॥
कृपा कोपु बधु बँधब गोसाईं। मो पर करिअ दास की नाई॥
कहिअ बेगि जेहि बिधि रिस जाई। मुनिनायक सोइ करौं उपाई॥
कह मुनि राम जाइ रिस कैसें। अजहुँ अनुज तव चितव अनैसें॥
एहि के कंठ कुठारु न दीन्हा। तौ मैं काह कोपु करि कीन्हा॥
दो0-गर्भ स्त्रवहिं अवनिप रवनि सुनि कुठार गति घोर।
परसु अछत देखउँ जिअत बैरी भूपकिसोर॥279॥

बहइ न हाथु दहइ रिस छाती। भा कुठारु कुंठित नृपघाती॥
भयउ बाम बिधि फिरेउ सुभाऊ। मोरे हृदयँ कृपा कसि काऊ॥
आजु दया दुखु दुसह सहावा। सुनि सौमित्र बिहसि सिरु नावा॥
बाउ कृपा मूरति अनुकूला। बोलत बचन झरत जनु फूला॥
जौं पै कृपाँ जरिहिं मुनि गाता। क्रोध भएँ तनु राख बिधाता॥
देखु जनक हठि बालक एहू। कीन्ह चहत जड़ जमपुर गेहू॥
बेगि करहु किन आँखिन्ह ओटा। देखत छोट खोट नृप ढोटा॥
बिहसे लखनु कहा मन माहीं। मूदें आँखि कतहुँ कोउ नाहीं॥
दो0-परसुरामु तब राम प्रति बोले उर अति क्रोधु।
संभु सरासनु तोरि सठ करसि हमार प्रबोधु॥280॥

बंधु कहइ कटु संमत तोरें। तू छल बिनय करसि कर जोरें॥
करु परितोषु मोर संग्रामा। नाहिं त छाड़ कहाउब रामा॥
छलु तजि करहि समरु सिवद्रोही। बंधु सहित न त मारउँ तोही॥
भृगुपति बकहिं कुठार उठाएँ। मन मुसकाहिं रामु सिर नाएँ॥
गुनह लखन कर हम पर रोषू। कतहुँ सुधाइहु ते बड़ दोषू॥
टेढ़ जानि सब बंदइ काहू। बक्र चंद्रमहि ग्रसइ न राहू॥
राम कहेउ रिस तजिअ मुनीसा। कर कुठारु आगें यह सीसा॥
जेंहिं रिस जाइ करिअ सोइ स्वामी। मोहि जानि आपन अनुगामी॥
दो0-प्रभुहि सेवकहि समरु कस तजहु बिप्रबर रोसु।
बेषु बिलोकें कहेसि कछु बालकहू नहिं दोसु॥281॥

देखि कुठार बान धनु धारी। भै लरिकहि रिस बीरु बिचारी॥
नामु जान पै तुम्हहि न चीन्हा। बंस सुभायँ उतरु तेंहिं दीन्हा॥
जौं तुम्ह औतेहु मुनि की नाईं। पद रज सिर सिसु धरत गोसाईं॥
छमहु चूक अनजानत केरी। चहिअ बिप्र उर कृपा घनेरी॥
हमहि तुम्हहि सरिबरि कसि नाथा॥कहहु न कहाँ चरन कहँ माथा॥
राम मात्र लघु नाम हमारा। परसु सहित बड़ नाम तोहारा॥
देव एकु गुनु धनुष हमारें। नव गुन परम पुनीत तुम्हारें॥
सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे। छमहु बिप्र अपराध हमारे॥
दो0-बार बार मुनि बिप्रबर कहा राम सन राम।
बोले भृगुपति सरुष हसि तहूँ बंधु सम बाम॥282॥

निपटहिं द्विज करि जानहि मोही। मैं जस बिप्र सुनावउँ तोही॥
चाप स्त्रुवा सर आहुति जानू। कोप मोर अति घोर कृसानु॥
समिधि सेन चतुरंग सुहाई। महा महीप भए पसु आई॥
मै एहि परसु काटि बलि दीन्हे। समर जग्य जप कोटिन्ह कीन्हे॥
मोर प्रभाउ बिदित नहिं तोरें। बोलसि निदरि बिप्र के भोरें॥
भंजेउ चापु दापु बड़ बाढ़ा। अहमिति मनहुँ जीति जगु ठाढ़ा॥
राम कहा मुनि कहहु बिचारी। रिस अति बड़ि लघु चूक हमारी॥
छुअतहिं टूट पिनाक पुराना। मैं कहि हेतु करौं अभिमाना॥
दो0-जौं हम निदरहिं बिप्र बदि सत्य सुनहु भृगुनाथ।
तौ अस को जग सुभटु जेहि भय बस नावहिं माथ॥283॥

देव दनुज भूपति भट नाना। समबल अधिक होउ बलवाना॥
जौं रन हमहि पचारै कोऊ। लरहिं सुखेन कालु किन होऊ॥
छत्रिय तनु धरि समर सकाना। कुल कलंकु तेहिं पावँर आना॥
कहउँ सुभाउ न कुलहि प्रसंसी। कालहु डरहिं न रन रघुबंसी॥
बिप्रबंस कै असि प्रभुताई। अभय होइ जो तुम्हहि डेराई॥
सुनु मृदु गूढ़ बचन रघुपति के। उघरे पटल परसुधर मति के॥
राम रमापति कर धनु लेहू। खैंचहु मिटै मोर संदेहू॥
देत चापु आपुहिं चलि गयऊ। परसुराम मन बिसमय भयऊ॥
दो0-जाना राम प्रभाउ तब पुलक प्रफुल्लित गात।
जोरि पानि बोले बचन ह्दयँ न प्रेमु अमात॥284॥

जय रघुबंस बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृसानु॥
जय सुर बिप्र धेनु हितकारी। जय मद मोह कोह भ्रम हारी॥
बिनय सील करुना गुन सागर। जयति बचन रचना अति नागर॥
सेवक सुखद सुभग सब अंगा। जय सरीर छबि कोटि अनंगा॥
करौं काह मुख एक प्रसंसा। जय महेस मन मानस हंसा॥
अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता। छमहु छमामंदिर दोउ भ्राता॥
कहि जय जय जय रघुकुलकेतू। भृगुपति गए बनहि तप हेतू॥
अपभयँ कुटिल महीप डेराने। जहँ तहँ कायर गवँहिं पराने॥
दो0-देवन्ह दीन्हीं दुंदुभीं प्रभु पर बरषहिं फूल।
हरषे पुर नर नारि सब मिटी मोहमय सूल॥285॥

अति गहगहे बाजने बाजे। सबहिं मनोहर मंगल साजे॥
जूथ जूथ मिलि सुमुख सुनयनीं। करहिं गान कल कोकिलबयनी॥
सुखु बिदेह कर बरनि न जाई। जन्मदरिद्र मनहुँ निधि पाई॥
गत त्रास भइ सीय सुखारी। जनु बिधु उदयँ चकोरकुमारी॥
जनक कीन्ह कौसिकहि प्रनामा। प्रभु प्रसाद धनु भंजेउ रामा॥
मोहि कृतकृत्य कीन्ह दुहुँ भाईं। अब जो उचित सो कहिअ गोसाई॥
कह मुनि सुनु नरनाथ प्रबीना। रहा बिबाहु चाप आधीना॥
टूटतहीं धनु भयउ बिबाहू। सुर नर नाग बिदित सब काहु॥
दो0-तदपि जाइ तुम्ह करहु अब जथा बंस ब्यवहारु।
बूझि बिप्र कुलबृद्ध गुर बेद बिदित आचारु॥286॥

दूत अवधपुर पठवहु जाई। आनहिं नृप दसरथहि बोलाई॥
मुदित राउ कहि भलेहिं कृपाला। पठए दूत बोलि तेहि काला॥
बहुरि महाजन सकल बोलाए। आइ सबन्हि सादर सिर नाए॥
हाट बाट मंदिर सुरबासा। नगरु सँवारहु चारिहुँ पासा॥
हरषि चले निज निज गृह आए। पुनि परिचारक बोलि पठाए॥
रचहु बिचित्र बितान बनाई। सिर धरि बचन चले सचु पाई॥
पठए बोलि गुनी तिन्ह नाना। जे बितान बिधि कुसल सुजाना॥
बिधिहि बंदि तिन्ह कीन्ह अरंभा। बिरचे कनक कदलि के खंभा॥
दो0-हरित मनिन्ह के पत्र फल पदुमराग के फूल।
रचना देखि बिचित्र अति मनु बिरंचि कर भूल॥287॥

बेनि हरित मनिमय सब कीन्हे। सरल सपरब परहिं नहिं चीन्हे॥
कनक कलित अहिबेल बनाई। लखि नहि परइ सपरन सुहाई॥
तेहि के रचि पचि बंध बनाए। बिच बिच मुकता दाम सुहाए॥
मानिक मरकत कुलिस पिरोजा। चीरि कोरि पचि रचे सरोजा॥
किए भृंग बहुरंग बिहंगा। गुंजहिं कूजहिं पवन प्रसंगा॥
सुर प्रतिमा खंभन गढ़ी काढ़ी। मंगल द्रब्य लिएँ सब ठाढ़ी॥
चौंकें भाँति अनेक पुराईं। सिंधुर मनिमय सहज सुहाई॥
दो0-सौरभ पल्लव सुभग सुठि किए नीलमनि कोरि॥
हेम बौर मरकत घवरि लसत पाटमय डोरि॥288॥

रचे रुचिर बर बंदनिबारे। मनहुँ मनोभवँ फंद सँवारे॥
मंगल कलस अनेक बनाए। ध्वज पताक पट चमर सुहाए॥
दीप मनोहर मनिमय नाना। जाइ न बरनि बिचित्र बिताना॥
जेहिं मंडप दुलहिनि बैदेही। सो बरनै असि मति कबि केही॥
दूलहु रामु रूप गुन सागर। सो बितानु तिहुँ लोक उजागर॥
जनक भवन कै सौभा जैसी। गृह गृह प्रति पुर देखिअ तैसी॥
जेहिं तेरहुति तेहि समय निहारी। तेहि लघु लगहिं भुवन दस चारी॥
जो संपदा नीच गृह सोहा। सो बिलोकि सुरनायक मोहा॥
दो0-बसइ नगर जेहि लच्छ करि कपट नारि बर बेषु॥
तेहि पुर कै सोभा कहत सकुचहिं सारद सेषु॥289॥

पहुँचे दूत राम पुर पावन। हरषे नगर बिलोकि सुहावन॥
भूप द्वार तिन्ह खबरि जनाई। दसरथ नृप सुनि लिए बोलाई॥
करि प्रनामु तिन्ह पाती दीन्ही। मुदित महीप आपु उठि लीन्ही॥
बारि बिलोचन बाचत पाँती। पुलक गात आई भरि छाती॥
रामु लखनु उर कर बर चीठी। रहि गए कहत न खाटी मीठी॥
पुनि धरि धीर पत्रिका बाँची। हरषी सभा बात सुनि साँची॥
खेलत रहे तहाँ सुधि पाई। आए भरतु सहित हित भाई॥
पूछत अति सनेहँ सकुचाई। तात कहाँ तें पाती आई॥
दो0-कुसल प्रानप्रिय बंधु दोउ अहहिं कहहु केहिं देस।
सुनि सनेह साने बचन बाची बहुरि नरेस॥290॥

सुनि पाती पुलके दोउ भ्राता। अधिक सनेहु समात न गाता॥
प्रीति पुनीत भरत कै देखी। सकल सभाँ सुखु लहेउ बिसेषी॥
तब नृप दूत निकट बैठारे। मधुर मनोहर बचन उचारे॥
भैया कहहु कुसल दोउ बारे। तुम्ह नीकें निज नयन निहारे॥
स्यामल गौर धरें धनु भाथा। बय किसोर कौसिक मुनि साथा॥
पहिचानहु तुम्ह कहहु सुभाऊ। प्रेम बिबस पुनि पुनि कह राऊ॥
जा दिन तें मुनि गए लवाई। तब तें आजु साँचि सुधि पाई॥
कहहु बिदेह कवन बिधि जाने। सुनि प्रिय बचन दूत मुसकाने॥
दो0-सुनहु महीपति मुकुट मनि तुम्ह सम धन्य न कोउ।
रामु लखनु जिन्ह के तनय बिस्व बिभूषन दोउ॥291॥

पूछन जोगु न तनय तुम्हारे। पुरुषसिंघ तिहु पुर उजिआरे॥
जिन्ह के जस प्रताप कें आगे। ससि मलीन रबि सीतल लागे॥
तिन्ह कहँ कहिअ नाथ किमि चीन्हे। देखिअ रबि कि दीप कर लीन्हे॥
सीय स्वयंबर भूप अनेका। समिटे सुभट एक तें एका॥
संभु सरासनु काहुँ न टारा। हारे सकल बीर बरिआरा॥
तीनि लोक महँ जे भटमानी। सभ कै सकति संभु धनु भानी॥
सकइ उठाइ सरासुर मेरू। सोउ हियँ हारि गयउ करि फेरू॥
जेहि कौतुक सिवसैलु उठावा। सोउ तेहि सभाँ पराभउ पावा॥
दो0-तहाँ राम रघुबंस मनि सुनिअ महा महिपाल।
भंजेउ चाप प्रयास बिनु जिमि गज पंकज नाल॥292॥

सुनि सरोष भृगुनायकु आए। बहुत भाँति तिन्ह आँखि देखाए॥
देखि राम बलु निज धनु दीन्हा। करि बहु बिनय गवनु बन कीन्हा॥
राजन रामु अतुलबल जैसें। तेज निधान लखनु पुनि तैसें॥
कंपहि भूप बिलोकत जाकें। जिमि गज हरि किसोर के ताकें॥
देव देखि तव बालक दोऊ। अब न आँखि तर आवत कोऊ॥
दूत बचन रचना प्रिय लागी। प्रेम प्रताप बीर रस पागी॥
सभा समेत राउ अनुरागे। दूतन्ह देन निछावरि लागे॥
कहि अनीति ते मूदहिं काना। धरमु बिचारि सबहिं सुख माना॥
दो0-तब उठि भूप बसिष्ठ कहुँ दीन्हि पत्रिका जाइ।
कथा सुनाई गुरहि सब सादर दूत बोलाइ॥293॥

सुनि बोले गुर अति सुखु पाई। पुन्य पुरुष कहुँ महि सुख छाई॥
जिमि सरिता सागर महुँ जाहीं। जद्यपि ताहि कामना नाहीं॥
तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाएँ। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ॥
तुम्ह गुर बिप्र धेनु सुर सेबी। तसि पुनीत कौसल्या देबी॥
सुकृती तुम्ह समान जग माहीं। भयउ न है कोउ होनेउ नाहीं॥
तुम्ह ते अधिक पुन्य बड़ काकें। राजन राम सरिस सुत जाकें॥
बीर बिनीत धरम ब्रत धारी। गुन सागर बर बालक चारी॥
तुम्ह कहुँ सर्ब काल कल्याना। सजहु बरात बजाइ निसाना॥
दो0-चलहु बेगि सुनि गुर बचन भलेहिं नाथ सिरु नाइ।
भूपति गवने भवन तब दूतन्ह बासु देवाइ॥294॥

राजा सबु रनिवास बोलाई। जनक पत्रिका बाचि सुनाई॥
सुनि संदेसु सकल हरषानीं। अपर कथा सब भूप बखानीं॥
प्रेम प्रफुल्लित राजहिं रानी। मनहुँ सिखिनि सुनि बारिद बनी॥
मुदित असीस देहिं गुरु नारीं। अति आनंद मगन महतारीं॥
लेहिं परस्पर अति प्रिय पाती। हृदयँ लगाइ जुड़ावहिं छाती॥
राम लखन कै कीरति करनी। बारहिं बार भूपबर बरनी॥
मुनि प्रसादु कहि द्वार सिधाए। रानिन्ह तब महिदेव बोलाए॥
दिए दान आनंद समेता। चले बिप्रबर आसिष देता॥
सो0-जाचक लिए हँकारि दीन्हि निछावरि कोटि बिधि।
चिरु जीवहुँ सुत चारि चक्रबर्ति दसरत्थ के॥295॥

कहत चले पहिरें पट नाना। हरषि हने गहगहे निसाना॥
समाचार सब लोगन्ह पाए। लागे घर घर होने बधाए॥
भुवन चारि दस भरा उछाहू। जनकसुता रघुबीर बिआहू॥
सुनि सुभ कथा लोग अनुरागे। मग गृह गलीं सँवारन लागे॥
जद्यपि अवध सदैव सुहावनि। राम पुरी मंगलमय पावनि॥
तदपि प्रीति कै प्रीति सुहाई। मंगल रचना रची बनाई॥
ध्वज पताक पट चामर चारु। छावा परम बिचित्र बजारू॥
कनक कलस तोरन मनि जाला। हरद दूब दधि अच्छत माला॥
दो0-मंगलमय निज निज भवन लोगन्ह रचे बनाइ।
बीथीं सीचीं चतुरसम चौकें चारु पुराइ॥296॥

जहँ तहँ जूथ जूथ मिलि भामिनि। सजि नव सप्त सकल दुति दामिनि॥
बिधुबदनीं मृग सावक लोचनि। निज सरुप रति मानु बिमोचनि॥
गावहिं मंगल मंजुल बानीं। सुनिकल रव कलकंठि लजानीं॥
भूप भवन किमि जाइ बखाना। बिस्व बिमोहन रचेउ बिताना॥
मंगल द्रब्य मनोहर नाना। राजत बाजत बिपुल निसाना॥
कतहुँ बिरिद बंदी उच्चरहीं। कतहुँ बेद धुनि भूसुर करहीं॥
गावहिं सुंदरि मंगल गीता। लै लै नामु रामु अरु सीता॥
बहुत उछाहु भवनु अति थोरा। मानहुँ उमगि चला चहु ओरा॥
दो0-सोभा दसरथ भवन कइ को कबि बरनै पार।
जहाँ सकल सुर सीस मनि राम लीन्ह अवतार॥297॥

भूप भरत पुनि लिए बोलाई। हय गय स्यंदन साजहु जाई॥
चलहु बेगि रघुबीर बराता। सुनत पुलक पूरे दोउ भ्राता॥
भरत सकल साहनी बोलाए। आयसु दीन्ह मुदित उठि धाए॥
रचि रुचि जीन तुरग तिन्ह साजे। बरन बरन बर बाजि बिराजे॥
सुभग सकल सुठि चंचल करनी। अय इव जरत धरत पग धरनी॥
नाना जाति न जाहिं बखाने। निदरि पवनु जनु चहत उड़ाने॥
तिन्ह सब छयल भए असवारा। भरत सरिस बय राजकुमारा॥
सब सुंदर सब भूषनधारी। कर सर चाप तून कटि भारी॥
दो0- छरे छबीले छयल सब सूर सुजान नबीन।
जुग पदचर असवार प्रति जे असिकला प्रबीन॥298॥

बाँधे बिरद बीर रन गाढ़े। निकसि भए पुर बाहेर ठाढ़े॥
फेरहिं चतुर तुरग गति नाना। हरषहिं सुनि सुनि पवन निसाना॥
रथ सारथिन्ह बिचित्र बनाए। ध्वज पताक मनि भूषन लाए॥
चवँर चारु किंकिन धुनि करही। भानु जान सोभा अपहरहीं॥
सावँकरन अगनित हय होते। ते तिन्ह रथन्ह सारथिन्ह जोते॥
सुंदर सकल अलंकृत सोहे। जिन्हहि बिलोकत मुनि मन मोहे॥
जे जल चलहिं थलहि की नाई। टाप न बूड़ बेग अधिकाई॥
अस्त्र सस्त्र सबु साजु बनाई। रथी सारथिन्ह लिए बोलाई॥
दो0-चढ़ि चढ़ि रथ बाहेर नगर लागी जुरन बरात।
होत सगुन सुन्दर सबहि जो जेहि कारज जात॥299॥

कलित करिबरन्हि परीं अँबारीं। कहि न जाहिं जेहि भाँति सँवारीं॥
चले मत्तगज घंट बिराजी। मनहुँ सुभग सावन घन राजी॥
बाहन अपर अनेक बिधाना। सिबिका सुभग सुखासन जाना॥
तिन्ह चढ़ि चले बिप्रबर बृन्दा। जनु तनु धरें सकल श्रुति छंदा॥
मागध सूत बंदि गुनगायक। चले जान चढ़ि जो जेहि लायक॥
बेसर ऊँट बृषभ बहु जाती। चले बस्तु भरि अगनित भाँती॥
कोटिन्ह काँवरि चले कहारा। बिबिध बस्तु को बरनै पारा॥
चले सकल सेवक समुदाई। निज निज साजु समाजु बनाई॥
दो0-सब कें उर निर्भर हरषु पूरित पुलक सरीर।
कबहिं देखिबे नयन भरि रामु लखनू दोउ बीर॥300॥