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"अयोध्या काण्ड / भाग १ / रामचरितमानस / तुलसीदास" के अवतरणों में अंतर

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<poem>
 +
श्रीगणेशायनमः
 +
श्रीजानकीवल्लभो विजयते
 +
श्रीरामचरितमानस
  
<center><font size=5>अयोध्या काण्ड</font></center><br><br>
+
द्वितीय सोपान
 +
अयोध्या-काण्ड
  
श्रीगणेशायनमः'''<br>
+
श्लोक
श्रीजानकीवल्लभो विजयते<br>
+
यस्याङ्के च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके
श्रीरामचरितमानस'''<br>
+
भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट्।
द्वितीय सोपान<br>
+
सोऽयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा
अयोध्या-काण्ड'''<br>
+
शर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्रीशङ्करः पातु माम्॥1॥
श्लोक<br>
+
प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्तथा न मम्ले वनवासदुःखतः।
यस्याङ्के च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके<br>
+
मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य मे सदास्तु सा मञ्जुलमंगलप्रदा॥2॥
भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट्।<br>
+
नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्गं सीतासमारोपितवामभागम्।
सोऽयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा<br>
+
पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम्॥3॥
शर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्रीशङ्करः पातु माम्।।1।।<br><br>
+
 
प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्तथा न मम्ले वनवासदुःखतः।<br>
+
दो0-श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि।
मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य मे सदास्तु सा मञ्जुलमंगलप्रदा।।2।।<br><br>
+
बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि॥
<br>नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्गं सीतासमारोपितवामभागम्।<br>
+
जब तें रामु ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए॥
<br>पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम्।।3।।<br><br>
+
भुवन चारिदस भूधर भारी। सुकृत मेघ बरषहि सुख बारी॥
<br>दो0-श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि।
+
रिधि सिधि संपति नदीं सुहाई। उमगि अवध अंबुधि कहुँ आई॥
<br>बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि।।
+
मनिगन पुर नर नारि सुजाती। सुचि अमोल सुंदर सब भाँती॥
<br>जब तें रामु ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए।।
+
कहि न जाइ कछु नगर बिभूती। जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥
<br>भुवन चारिदस भूधर भारी। सुकृत मेघ बरषहि सुख बारी।। १ ।।
+
सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥
<br>रिधि सिधि संपति नदीं सुहाई। उमगि अवध अंबुधि कहुँ आई।।
+
मुदित मातु सब सखीं सहेली। फलित बिलोकि मनोरथ बेली॥
<br>मनिगन पुर नर नारि सुजाती। सुचि अमोल सुंदर सब भाँती।। २ ।।
+
राम रूपु गुनसीलु सुभाऊ। प्रमुदित होइ देखि सुनि राऊ॥
<br>कहि न जाइ कछु नगर बिभूती। जनु एतनिअ बिरंचि करतूती।।
+
दो0-सब कें उर अभिलाषु अस कहहिं मनाइ महेसु।
<br>सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी।। ३।।
+
आप अछत जुबराज पद रामहि देउ नरेसु॥1॥
<br>मुदित मातु सब सखीं सहेली। फलित बिलोकि मनोरथ बेली।।
+
 
<br>राम रूपु गुनसीलु सुभाऊ। प्रमुदित होइ देखि सुनि राऊ।। ४।।
+
एक समय सब सहित समाजा। राजसभाँ रघुराजु बिराजा॥
<br>दो0-सब कें उर अभिलाषु अस कहहिं मनाइ महेसु।
+
सकल सुकृत मूरति नरनाहू। राम सुजसु सुनि अतिहि उछाहू॥
<br>आप अछत जुबराज पद रामहि देउ नरेसु।।1।।<br><br>
+
नृप सब रहहिं कृपा अभिलाषें। लोकप करहिं प्रीति रुख राखें॥
एक समय सब सहित समाजा। राजसभाँ रघुराजु बिराजा।।<br>
+
तिभुवन तीनि काल जग माहीं। भूरि भाग दसरथ सम नाहीं॥
सकल सुकृत मूरति नरनाहू। राम सुजसु सुनि अतिहि उछाहू।। १।।<br>
+
मंगलमूल रामु सुत जासू। जो कछु कहिज थोर सबु तासू॥
नृप सब रहहिं कृपा अभिलाषें। लोकप करहिं प्रीति रुख राखें।।<br>
+
रायँ सुभायँ मुकुरु कर लीन्हा। बदनु बिलोकि मुकुट सम कीन्हा॥
तिभुवन तीनि काल जग माहीं। भूरि भाग दसरथ सम नाहीं।। २।। <br>
+
श्रवन समीप भए सित केसा। मनहुँ जरठपनु अस उपदेसा॥
मंगलमूल रामु सुत जासू। जो कछु कहिज थोर सबु तासू।।<br>
+
नृप जुबराज राम कहुँ देहू। जीवन जनम लाहु किन लेहू॥
रायँ सुभायँ मुकुरु कर लीन्हा। बदनु बिलोकि मुकुट सम कीन्हा।।३।।<br>
+
दो0-यह बिचारु उर आनि नृप सुदिनु सुअवसरु पाइ।
श्रवन समीप भए सित केसा। मनहुँ जरठपनु अस उपदेसा।।<br>
+
प्रेम पुलकि तन मुदित मन गुरहि सुनायउ जाइ॥2॥
नृप जुबराज राम कहुँ देहू। जीवन जनम लाहु किन लेहू।।४।। <br>
+
 
दो0-यह बिचारु उर आनि नृप सुदिनु सुअवसरु पाइ।<br>
+
कहइ भुआलु सुनिअ मुनिनायक। भए राम सब बिधि सब लायक॥
प्रेम पुलकि तन मुदित मन गुरहि सुनायउ जाइ।।2।।<br><br>
+
सेवक सचिव सकल पुरबासी। जे हमारे अरि मित्र उदासी॥
कहइ भुआलु सुनिअ मुनिनायक। भए राम सब बिधि सब लायक।।<br>
+
सबहि रामु प्रिय जेहि बिधि मोही। प्रभु असीस जनु तनु धरि सोही॥
सेवक सचिव सकल पुरबासी। जे हमारे अरि मित्र उदासी।। १ ।। <br>
+
बिप्र सहित परिवार गोसाईं। करहिं छोहु सब रौरिहि नाई॥
सबहि रामु प्रिय जेहि बिधि मोही। प्रभु असीस जनु तनु धरि सोही।।<br>
+
जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं। ते जनु सकल बिभव बस करहीं॥
बिप्र सहित परिवार गोसाईं। करहिं छोहु सब रौरिहि नाई।।२ ।।<br>
+
मोहि सम यहु अनुभयउ न दूजें। सबु पायउँ रज पावनि पूजें॥
जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं। ते जनु सकल बिभव बस करहीं।।<br>
+
अब अभिलाषु एकु मन मोरें। पूजहि नाथ अनुग्रह तोरें॥
मोहि सम यहु अनुभयउ न दूजें। सबु पायउँ रज पावनि पूजें।।३।। <br>
+
मुनि प्रसन्न लखि सहज सनेहू। कहेउ नरेस रजायसु देहू॥
अब अभिलाषु एकु मन मोरें। पूजहि नाथ अनुग्रह तोरें।।<br>
+
दो0-राजन राउर नामु जसु सब अभिमत दातार।
मुनि प्रसन्न लखि सहज सनेहू। कहेउ नरेस रजायसु देहू।।४।। <br>
+
फल अनुगामी महिप मनि मन अभिलाषु तुम्हार॥3॥
दो0-राजन राउर नामु जसु सब अभिमत दातार।<br>
+
 
फल अनुगामी महिप मनि मन अभिलाषु तुम्हार।।3।।<br><br>
+
सब बिधि गुरु प्रसन्न जियँ जानी। बोलेउ राउ रहँसि मृदु बानी॥
सब बिधि गुरु प्रसन्न जियँ जानी। बोलेउ राउ रहँसि मृदु बानी।।<br>
+
नाथ रामु करिअहिं जुबराजू। कहिअ कृपा करि करिअ समाजू॥
नाथ रामु करिअहिं जुबराजू। कहिअ कृपा करि करिअ समाजू।। १ ।। <br>
+
मोहि अछत यहु होइ उछाहू। लहहिं लोग सब लोचन लाहू॥
मोहि अछत यहु होइ उछाहू। लहहिं लोग सब लोचन लाहू।।<br>
+
प्रभु प्रसाद सिव सबइ निबाहीं। यह लालसा एक मन माहीं॥
प्रभु प्रसाद सिव सबइ निबाहीं। यह लालसा एक मन माहीं।।२ ।।<br>
+
पुनि न सोच तनु रहउ कि जाऊ। जेहिं न होइ पाछें पछिताऊ॥
पुनि न सोच तनु रहउ कि जाऊ। जेहिं न होइ पाछें पछिताऊ।। <br>
+
सुनि मुनि दसरथ बचन सुहाए। मंगल मोद मूल मन भाए॥
सुनि मुनि दसरथ बचन सुहाए। मंगल मोद मूल मन भाए।।३।।<br>
+
सुनु नृप जासु बिमुख पछिताहीं। जासु भजन बिनु जरनि न जाहीं॥
सुनु नृप जासु बिमुख पछिताहीं। जासु भजन बिनु जरनि न जाहीं।। <br>
+
भयउ तुम्हार तनय सोइ स्वामी। रामु पुनीत प्रेम अनुगामी॥
भयउ तुम्हार तनय सोइ स्वामी। रामु पुनीत प्रेम अनुगामी।।<४।।<br>
+
दो0-बेगि बिलंबु न करिअ नृप साजिअ सबुइ समाजु।
दो0-बेगि बिलंबु न करिअ नृप साजिअ सबुइ समाजु।<br>
+
सुदिन सुमंगलु तबहिं जब रामु होहिं जुबराजु॥4॥
सुदिन सुमंगलु तबहिं जब रामु होहिं जुबराजु।।4।।<br><br>
+
 
मुदित महिपति मंदिर आए। सेवक सचिव सुमंत्रु बोलाए।।<br>
+
मुदित महिपति मंदिर आए। सेवक सचिव सुमंत्रु बोलाए॥
कहि जयजीव सीस तिन्ह नाए। भूप सुमंगल बचन सुनाए।। १ ।। <br>
+
कहि जयजीव सीस तिन्ह नाए। भूप सुमंगल बचन सुनाए॥
जौं पाँचहि मत लागै नीका। करहु हरषि हियँ रामहि टीका।।२ ।।< br>
+
जौं पाँचहि मत लागै नीका। करहु हरषि हियँ रामहि टीका॥
मंत्री मुदित सुनत प्रिय बानी।अभिमत बिरवँ परेउ जनु पानी।।<br>
+
मंत्री मुदित सुनत प्रिय बानी। अभिमत बिरवँ परेउ जनु पानी॥
विनती सचिव करहि कर जोरी।जिअहु जगतपति बरिस करोरी।।३।।<br>
+
बिनती सचिव करहि कर जोरी। जिअहु जगतपति बरिस करोरी॥
जग मंगल भल काजु बिचारा। बेगिअ नाथ न लाइअ बारा।।<br>
+
जग मंगल भल काजु बिचारा। बेगिअ नाथ न लाइअ बारा॥
नृपहि मोदु सुनि सचिव सुभाषा। बढ़त बौंड़ जनु लही सुसाखा।।४।।<br>
+
नृपहि मोदु सुनि सचिव सुभाषा। बढ़त बौंड़ जनु लही सुसाखा॥
दो0-कहेउ भूप मुनिराज कर जोइ जोइ आयसु होइ।<br>
+
दो0-कहेउ भूप मुनिराज कर जोइ जोइ आयसु होइ।
राम राज अभिषेक हित बेगि करहु सोइ सोइ।।5।।<br><br>
+
राम राज अभिषेक हित बेगि करहु सोइ सोइ॥5॥
हरषि मुनीस कहेउ मृदु बानी। आनहु सकल सुतीरथ पानी।।<br>
+
 
औषध मूल फूल फल पाना। कहे नाम गनि मंगल नाना।। १ ।। <br>
+
हरषि मुनीस कहेउ मृदु बानी। आनहु सकल सुतीरथ पानी॥
चामर चरम बसन बहु भाँती। रोम पाट पट अगनित जाती।।<br>
+
औषध मूल फूल फल पाना। कहे नाम गनि मंगल नाना॥
मनिगन मंगल बस्तु अनेका। जो जग जोगु भूप अभिषेका।।२ ।।<br>
+
चामर चरम बसन बहु भाँती। रोम पाट पट अगनित जाती॥
बेद बिदित कहि सकल बिधाना। कहेउ रचहु पुर बिबिध बिताना।।<br>
+
मनिगन मंगल बस्तु अनेका। जो जग जोगु भूप अभिषेका॥
सफल रसाल पूगफल केरा। रोपहु बीथिन्ह पुर चहुँ फेरा।।३।।<br>
+
बेद बिदित कहि सकल बिधाना। कहेउ रचहु पुर बिबिध बिताना॥
रचहु मंजु मनि चौकें चारू। कहहु बनावन बेगि बजारू।।<br>
+
सफल रसाल पूगफल केरा। रोपहु बीथिन्ह पुर चहुँ फेरा॥
पूजहु गनपति गुर कुलदेवा। सब बिधि करहु भूमिसुर सेवा।।४।।<br>
+
रचहु मंजु मनि चौकें चारू। कहहु बनावन बेगि बजारू॥
दो0-ध्वज पताक तोरन कलस सजहु तुरग रथ नाग।<br>
+
पूजहु गनपति गुर कुलदेवा। सब बिधि करहु भूमिसुर सेवा॥
सिर धरि मुनिबर बचन सबु निज निज काजहिं लाग।।6।।<br><br>
+
दो0-ध्वज पताक तोरन कलस सजहु तुरग रथ नाग।
जो मुनीस जेहि आयसु दीन्हा। सो तेहिं काजु प्रथम जनु कीन्हा।।<br>
+
सिर धरि मुनिबर बचन सबु निज निज काजहिं लाग॥6॥
बिप्र साधु सुर पूजत राजा। करत राम हित मंगल काजा।।<br>
+
 
सुनत राम अभिषेक सुहावा। बाज गहागह अवध बधावा।।<br>
+
जो मुनीस जेहि आयसु दीन्हा। सो तेहिं काजु प्रथम जनु कीन्हा॥
राम सीय तन सगुन जनाए। फरकहिं मंगल अंग सुहाए।।<br>
+
बिप्र साधु सुर पूजत राजा। करत राम हित मंगल काजा॥
पुलकि सप्रेम परसपर कहहीं। भरत आगमनु सूचक अहहीं।।<br>
+
सुनत राम अभिषेक सुहावा। बाज गहागह अवध बधावा॥
भए बहुत दिन अति अवसेरी। सगुन प्रतीति भेंट प्रिय केरी।।<br>
+
राम सीय तन सगुन जनाए। फरकहिं मंगल अंग सुहाए॥
भरत सरिस प्रिय को जग माहीं। इहइ सगुन फलु दूसर नाहीं।।<br>
+
पुलकि सप्रेम परसपर कहहीं। भरत आगमनु सूचक अहहीं॥
रामहि बंधु सोच दिन राती। अंडन्हि कमठ ह्रदउ जेहि भाँती।।<br>
+
भए बहुत दिन अति अवसेरी। सगुन प्रतीति भेंट प्रिय केरी॥
दो0-एहि अवसर मंगलु परम सुनि रहँसेउ रनिवासु।<br>
+
भरत सरिस प्रिय को जग माहीं। इहइ सगुन फलु दूसर नाहीं॥
सोभत लखि बिधु बढ़त जनु बारिधि बीचि बिलासु।।7।।<br><br>
+
रामहि बंधु सोच दिन राती। अंडन्हि कमठ ह्रदउ जेहि भाँती॥
प्रथम जाइ जिन्ह बचन सुनाए। भूषन बसन भूरि तिन्ह पाए।।<br>
+
दो0-एहि अवसर मंगलु परम सुनि रहँसेउ रनिवासु।
प्रेम पुलकि तन मन अनुरागीं। मंगल कलस सजन सब लागीं।।<br>
+
सोभत लखि बिधु बढ़त जनु बारिधि बीचि बिलासु॥7॥
चौकें चारु सुमित्राँ पुरी। मनिमय बिबिध भाँति अति रुरी।।<br>
+
 
आनँद मगन राम महतारी। दिए दान बहु बिप्र हँकारी।।<br>
+
प्रथम जाइ जिन्ह बचन सुनाए। भूषन बसन भूरि तिन्ह पाए॥
पूजीं ग्रामदेबि सुर नागा। कहेउ बहोरि देन बलिभागा।।<br>
+
प्रेम पुलकि तन मन अनुरागीं। मंगल कलस सजन सब लागीं॥
जेहि बिधि होइ राम कल्यानू। देहु दया करि सो बरदानू।।<br>
+
चौकें चारु सुमित्राँ पुरी। मनिमय बिबिध भाँति अति रुरी॥
गावहिं मंगल कोकिलबयनीं। बिधुबदनीं मृगसावकनयनीं।।<br>
+
आनँद मगन राम महतारी। दिए दान बहु बिप्र हँकारी॥
दो0-राम राज अभिषेकु सुनि हियँ हरषे नर नारि।<br>
+
पूजीं ग्रामदेबि सुर नागा। कहेउ बहोरि देन बलिभागा॥
लगे सुमंगल सजन सब बिधि अनुकूल बिचारि।।8।।<br><br>
+
जेहि बिधि होइ राम कल्यानू। देहु दया करि सो बरदानू॥
तब नरनाहँ बसिष्ठु बोलाए। रामधाम सिख देन पठाए।।<br>
+
गावहिं मंगल कोकिलबयनीं। बिधुबदनीं मृगसावकनयनीं॥
गुर आगमनु सुनत रघुनाथा। द्वार आइ पद नायउ माथा।।<br>
+
दो0-राम राज अभिषेकु सुनि हियँ हरषे नर नारि।
सादर अरघ देइ घर आने। सोरह भाँति पूजि सनमाने।।<br>
+
लगे सुमंगल सजन सब बिधि अनुकूल बिचारि॥8॥
गहे चरन सिय सहित बहोरी। बोले रामु कमल कर जोरी।।<br>
+
 
सेवक सदन स्वामि आगमनू। मंगल मूल अमंगल दमनू।।<br>
+
तब नरनाहँ बसिष्ठु बोलाए। रामधाम सिख देन पठाए॥
तदपि उचित जनु बोलि सप्रीती। पठइअ काज नाथ असि नीती।।<br>
+
गुर आगमनु सुनत रघुनाथा। द्वार आइ पद नायउ माथा॥
प्रभुता तजि प्रभु कीन्ह सनेहू। भयउ पुनीत आजु यहु गेहू।।<br>
+
सादर अरघ देइ घर आने। सोरह भाँति पूजि सनमाने॥
आयसु होइ सो करौं गोसाई। सेवक लहइ स्वामि सेवकाई।।<br>
+
गहे चरन सिय सहित बहोरी। बोले रामु कमल कर जोरी॥
दो0-सुनि सनेह साने बचन मुनि रघुबरहि प्रसंस।<br>
+
सेवक सदन स्वामि आगमनू। मंगल मूल अमंगल दमनू॥
राम कस न तुम्ह कहहु अस हंस बंस अवतंस।।9।।<br><br>
+
तदपि उचित जनु बोलि सप्रीती। पठइअ काज नाथ असि नीती॥
बरनि राम गुन सीलु सुभाऊ। बोले प्रेम पुलकि मुनिराऊ।।<br>
+
प्रभुता तजि प्रभु कीन्ह सनेहू। भयउ पुनीत आजु यहु गेहू॥
भूप सजेउ अभिषेक समाजू। चाहत देन तुम्हहि जुबराजू।।<br>
+
आयसु होइ सो करौं गोसाई। सेवक लहइ स्वामि सेवकाई॥
राम करहु सब संजम आजू। जौं बिधि कुसल निबाहै काजू।।<br>
+
दो0-सुनि सनेह साने बचन मुनि रघुबरहि प्रसंस।
गुरु सिख देइ राय पहिं गयउ। राम हृदयँ अस बिसमउ भयऊ।।<br>
+
राम कस न तुम्ह कहहु अस हंस बंस अवतंस॥9॥
जनमे एक संग सब भाई। भोजन सयन केलि लरिकाई।।<br>
+
 
करनबेध उपबीत बिआहा। संग संग सब भए उछाहा।।<br>
+
बरनि राम गुन सीलु सुभाऊ। बोले प्रेम पुलकि मुनिराऊ॥
बिमल बंस यहु अनुचित एकू। बंधु बिहाइ बड़ेहि अभिषेकू।।<br>
+
भूप सजेउ अभिषेक समाजू। चाहत देन तुम्हहि जुबराजू॥
प्रभु सप्रेम पछितानि सुहाई। हरउ भगत मन कै कुटिलाई।।<br>
+
राम करहु सब संजम आजू। जौं बिधि कुसल निबाहै काजू॥
दो0-तेहि अवसर आए लखन मगन प्रेम आनंद।<br>
+
गुरु सिख देइ राय पहिं गयउ। राम हृदयँ अस बिसमउ भयऊ॥
सनमाने प्रिय बचन कहि रघुकुल कैरव चंद।।10।।<br><br>
+
जनमे एक संग सब भाई। भोजन सयन केलि लरिकाई॥
बाजहिं बाजने बिबिध बिधाना। पुर प्रमोदु नहिं जाइ बखाना।।<br />
+
करनबेध उपबीत बिआहा। संग संग सब भए उछाहा॥
भरत आगमनु सकल मनावहिं। आवहुँ बेगि नयन फलु पावहिं।।<br />
+
बिमल बंस यहु अनुचित एकू। बंधु बिहाइ बड़ेहि अभिषेकू॥
हाट बाट घर गलीं अथाई। कहहिं परसपर लोग लोगाई।।<br />
+
प्रभु सप्रेम पछितानि सुहाई। हरउ भगत मन कै कुटिलाई॥
कालि लगन भलि केतिक बारा। पूजिहि बिधि अभिलाषु हमारा।।<br />
+
दो0-तेहि अवसर आए लखन मगन प्रेम आनंद।
कनक सिंघासन सीय समेता। बैठहिं रामु होइ चित चेता।।<br />
+
सनमाने प्रिय बचन कहि रघुकुल कैरव चंद॥10॥
सकल कहहिं कब होइहि काली। बिघन मनावहिं देव कुचाली।।<br />
+
 
तिन्हहि सोहाइ न अवध बधावा। चोरहि चंदिनि राति न भावा।।<br />
+
बाजहिं बाजने बिबिध बिधाना। पुर प्रमोदु नहिं जाइ बखाना॥
सारद बोलि बिनय सुर करहीं। बारहिं बार पाय लै परहीं।।<br />
+
भरत आगमनु सकल मनावहिं। आवहुँ बेगि नयन फलु पावहिं॥
दो0-बिपति हमारि बिलोकि बड़ि मातु करिअ सोइ आजु।<br />
+
हाट बाट घर गलीं अथाई। कहहिं परसपर लोग लोगाई॥
रामु जाहिं बन राजु तजि होइ सकल सुरकाजु।।11।।<br />
+
कालि लगन भलि केतिक बारा। पूजिहि बिधि अभिलाषु हमारा॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
कनक सिंघासन सीय समेता। बैठहिं रामु होइ चित चेता॥
सुनि सुर बिनय ठाढ़ि पछिताती। भइउँ सरोज बिपिन हिमराती।।<br />
+
सकल कहहिं कब होइहि काली। बिघन मनावहिं देव कुचाली॥
देखि देव पुनि कहहिं निहोरी। मातु तोहि नहिं थोरिउ खोरी।।<br />
+
तिन्हहि सोहाइ न अवध बधावा। चोरहि चंदिनि राति न भावा॥
बिसमय हरष रहित रघुराऊ। तुम्ह जानहु सब राम प्रभाऊ।।<br />
+
सारद बोलि बिनय सुर करहीं। बारहिं बार पाय लै परहीं॥
जीव करम बस सुख दुख भागी। जाइअ अवध देव हित लागी।।<br />
+
दो0-बिपति हमारि बिलोकि बड़ि मातु करिअ सोइ आजु।
बार बार गहि चरन सँकोचौ। चली बिचारि बिबुध मति पोची।।<br />
+
रामु जाहिं बन राजु तजि होइ सकल सुरकाजु॥11॥
ऊँच निवासु नीचि करतूती। देखि न सकहिं पराइ बिभूती।।<br />
+
 
आगिल काजु बिचारि बहोरी। करहहिं चाह कुसल कबि मोरी।।<br />
+
सुनि सुर बिनय ठाढ़ि पछिताती। भइउँ सरोज बिपिन हिमराती॥
हरषि हृदयँ दसरथ पुर आई। जनु ग्रह दसा दुसह दुखदाई।।<br />
+
देखि देव पुनि कहहिं निहोरी। मातु तोहि नहिं थोरिउ खोरी॥
दो0-नामु मंथरा मंदमति चेरी कैकेइ केरि।<br />
+
बिसमय हरष रहित रघुराऊ। तुम्ह जानहु सब राम प्रभाऊ॥
  अजस पेटारी ताहि करि गई गिरा मति फेरि।।12।।<br />
+
जीव करम बस सुख दुख भागी। जाइअ अवध देव हित लागी॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
बार बार गहि चरन सँकोचौ। चली बिचारि बिबुध मति पोची॥
दीख मंथरा नगरु बनावा। मंजुल मंगल बाज बधावा।।<br />
+
ऊँच निवासु नीचि करतूती। देखि न सकहिं पराइ बिभूती॥
पूछेसि लोगन्ह काह उछाहू। राम तिलकु सुनि भा उर दाहू।।<br />
+
आगिल काजु बिचारि बहोरी। करहहिं चाह कुसल कबि मोरी॥
करइ बिचारु कुबुद्धि कुजाती। होइ अकाजु कवनि बिधि राती।।<br />
+
हरषि हृदयँ दसरथ पुर आई। जनु ग्रह दसा दुसह दुखदाई॥
देखि लागि मधु कुटिल किराती। जिमि गवँ तकइ लेउँ केहि भाँती।।<br />
+
दो0-नामु मंथरा मंदमति चेरी कैकेइ केरि।
भरत मातु पहिं गइ बिलखानी। का अनमनि हसि कह हँसि रानी।।<br />
+
अजस पेटारी ताहि करि गई गिरा मति फेरि॥12॥
ऊतरु देइ न लेइ उसासू। नारि चरित करि ढारइ आँसू।।<br />
+
 
हँसि कह रानि गालु बड़ तोरें। दीन्ह लखन सिख अस मन मोरें।।<br />
+
दीख मंथरा नगरु बनावा। मंजुल मंगल बाज बधावा॥
तबहुँ न बोल चेरि बड़ि पापिनि। छाड़इ स्वास कारि जनु साँपिनि।।<br />
+
पूछेसि लोगन्ह काह उछाहू। राम तिलकु सुनि भा उर दाहू॥
दो0-सभय रानि कह कहसि किन कुसल रामु महिपालु।<br />
+
करइ बिचारु कुबुद्धि कुजाती। होइ अकाजु कवनि बिधि राती॥
  लखनु भरतु रिपुदमनु सुनि भा कुबरी उर सालु।।13।।<br />
+
देखि लागि मधु कुटिल किराती। जिमि गवँ तकइ लेउँ केहि भाँती॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
भरत मातु पहिं गइ बिलखानी। का अनमनि हसि कह हँसि रानी॥
कत सिख देइ हमहि कोउ माई। गालु करब केहि कर बलु पाई।।<br />
+
ऊतरु देइ न लेइ उसासू। नारि चरित करि ढारइ आँसू॥
रामहि छाड़ि कुसल केहि आजू। जेहि जनेसु देइ जुबराजू।।<br />
+
हँसि कह रानि गालु बड़ तोरें। दीन्ह लखन सिख अस मन मोरें॥
भयउ कौसिलहि बिधि अति दाहिन। देखत गरब रहत उर नाहिन।।<br />
+
तबहुँ न बोल चेरि बड़ि पापिनि। छाड़इ स्वास कारि जनु साँपिनि॥
देखेहु कस न जाइ सब सोभा। जो अवलोकि मोर मनु छोभा।।<br />
+
दो0-सभय रानि कह कहसि किन कुसल रामु महिपालु।
पूतु बिदेस न सोचु तुम्हारें। जानति हहु बस नाहु हमारें।।<br />
+
लखनु भरतु रिपुदमनु सुनि भा कुबरी उर सालु॥13॥
नीद बहुत प्रिय सेज तुराई। लखहु न भूप कपट चतुराई।।<br />
+
 
सुनि प्रिय बचन मलिन मनु जानी। झुकी रानि अब रहु अरगानी।।<br />
+
कत सिख देइ हमहि कोउ माई। गालु करब केहि कर बलु पाई॥
पुनि अस कबहुँ कहसि घरफोरी। तब धरि जीभ कढ़ावउँ तोरी।।<br />
+
रामहि छाड़ि कुसल केहि आजू। जेहि जनेसु देइ जुबराजू॥
दो0-काने खोरे कूबरे कुटिल कुचाली जानि।<br />
+
भयउ कौसिलहि बिधि अति दाहिन। देखत गरब रहत उर नाहिन॥
  तिय बिसेषि पुनि चेरि कहि भरतमातु मुसुकानि।।14।।<br />
+
देखेहु कस न जाइ सब सोभा। जो अवलोकि मोर मनु छोभा॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
पूतु बिदेस न सोचु तुम्हारें। जानति हहु बस नाहु हमारें॥
प्रियबादिनि सिख दीन्हिउँ तोही। सपनेहुँ तो पर कोपु न मोही।।<br />
+
नीद बहुत प्रिय सेज तुराई। लखहु न भूप कपट चतुराई॥
सुदिनु सुमंगल दायकु सोई। तोर कहा फुर जेहि दिन होई।।<br />
+
सुनि प्रिय बचन मलिन मनु जानी। झुकी रानि अब रहु अरगानी॥
जेठ स्वामि सेवक लघु भाई। यह दिनकर कुल रीति सुहाई।।<br />
+
पुनि अस कबहुँ कहसि घरफोरी। तब धरि जीभ कढ़ावउँ तोरी॥
राम तिलकु जौं साँचेहुँ काली। देउँ मागु मन भावत आली।।<br />
+
दो0-काने खोरे कूबरे कुटिल कुचाली जानि।
कौसल्या सम सब महतारी। रामहि सहज सुभायँ पिआरी।।<br />
+
तिय बिसेषि पुनि चेरि कहि भरतमातु मुसुकानि॥14॥
मो पर करहिं सनेहु बिसेषी। मैं करि प्रीति परीछा देखी।।<br />
+
 
जौं बिधि जनमु देइ करि छोहू। होहुँ राम सिय पूत पुतोहू।।<br />
+
प्रियबादिनि सिख दीन्हिउँ तोही। सपनेहुँ तो पर कोपु न मोही॥
प्रान तें अधिक रामु प्रिय मोरें। तिन्ह कें तिलक छोभु कस तोरें।।<br />
+
सुदिनु सुमंगल दायकु सोई। तोर कहा फुर जेहि दिन होई॥
दो0-भरत सपथ तोहि सत्य कहु परिहरि कपट दुराउ।<br />
+
जेठ स्वामि सेवक लघु भाई। यह दिनकर कुल रीति सुहाई॥
  हरष समय बिसमउ करसि कारन मोहि सुनाउ।।15।।<br />
+
राम तिलकु जौं साँचेहुँ काली। देउँ मागु मन भावत आली॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
कौसल्या सम सब महतारी। रामहि सहज सुभायँ पिआरी॥
एकहिं बार आस सब पूजी। अब कछु कहब जीभ करि दूजी।।<br />
+
मो पर करहिं सनेहु बिसेषी। मैं करि प्रीति परीछा देखी॥
फोरै जोगु कपारु अभागा। भलेउ कहत दुख रउरेहि लागा।।<br />
+
जौं बिधि जनमु देइ करि छोहू। होहुँ राम सिय पूत पुतोहू॥
कहहिं झूठि फुरि बात बनाई। ते प्रिय तुम्हहि करुइ मैं माई।।<br />
+
प्रान तें अधिक रामु प्रिय मोरें। तिन्ह कें तिलक छोभु कस तोरें॥
हमहुँ कहबि अब ठकुरसोहाती। नाहिं त मौन रहब दिनु राती।।<br />
+
दो0-भरत सपथ तोहि सत्य कहु परिहरि कपट दुराउ।
करि कुरूप बिधि परबस कीन्हा। बवा सो लुनिअ लहिअ जो दीन्हा।।<br />
+
हरष समय बिसमउ करसि कारन मोहि सुनाउ॥15॥
कोउ नृप होउ हमहि का हानी। चेरि छाड़ि अब होब कि रानी।।<br />
+
 
जारै जोगु सुभाउ हमारा। अनभल देखि न जाइ तुम्हारा।।<br />
+
एकहिं बार आस सब पूजी। अब कछु कहब जीभ करि दूजी॥
तातें कछुक बात अनुसारी। छमिअ देबि बड़ि चूक हमारी।।<br />
+
फोरै जोगु कपारु अभागा। भलेउ कहत दुख रउरेहि लागा॥
दो0-गूढ़ कपट प्रिय बचन सुनि तीय अधरबुधि रानि।<br />
+
कहहिं झूठि फुरि बात बनाई। ते प्रिय तुम्हहि करुइ मैं माई॥
  सुरमाया बस बैरिनिहि सुह्द जानि पतिआनि।।16।।<br />
+
हमहुँ कहबि अब ठकुरसोहाती। नाहिं त मौन रहब दिनु राती॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
करि कुरूप बिधि परबस कीन्हा। बवा सो लुनिअ लहिअ जो दीन्हा॥
सादर पुनि पुनि पूँछति ओही। सबरी गान मृगी जनु मोही।।<br />
+
कोउ नृप होउ हमहि का हानी। चेरि छाड़ि अब होब कि रानी॥
तसि मति फिरी अहइ जसि भाबी। रहसी चेरि घात जनु फाबी।।<br />
+
जारै जोगु सुभाउ हमारा। अनभल देखि न जाइ तुम्हारा॥
तुम्ह पूँछहु मैं कहत डेराऊँ। धरेउ मोर घरफोरी नाऊँ।।<br />
+
तातें कछुक बात अनुसारी। छमिअ देबि बड़ि चूक हमारी॥
सजि प्रतीति बहुबिधि गढ़ि छोली। अवध साढ़साती तब बोली।।<br />
+
दो0-गूढ़ कपट प्रिय बचन सुनि तीय अधरबुधि रानि।
प्रिय सिय रामु कहा तुम्ह रानी। रामहि तुम्ह प्रिय सो फुरि बानी।।<br />
+
सुरमाया बस बैरिनिहि सुह्द जानि पतिआनि॥16॥
रहा प्रथम अब ते दिन बीते। समउ फिरें रिपु होहिं पिंरीते।।<br />
+
 
भानु कमल कुल पोषनिहारा। बिनु जल जारि करइ सोइ छारा।।<br />
+
सादर पुनि पुनि पूँछति ओही। सबरी गान मृगी जनु मोही॥
जरि तुम्हारि चह सवति उखारी। रूँधहु करि उपाउ बर बारी।।<br />
+
तसि मति फिरी अहइ जसि भाबी। रहसी चेरि घात जनु फाबी॥
दो0-तुम्हहि न सोचु सोहाग बल निज बस जानहु राउ।<br />
+
तुम्ह पूँछहु मैं कहत डेराऊँ। धरेउ मोर घरफोरी नाऊँ॥
    मन मलीन मुह मीठ नृप राउर सरल सुभाउ।।17।।<br />
+
सजि प्रतीति बहुबिधि गढ़ि छोली। अवध साढ़साती तब बोली॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
प्रिय सिय रामु कहा तुम्ह रानी। रामहि तुम्ह प्रिय सो फुरि बानी॥
चतुर गँभीर राम महतारी। बीचु पाइ निज बात सँवारी।।<br />
+
रहा प्रथम अब ते दिन बीते। समउ फिरें रिपु होहिं पिंरीते॥
पठए भरतु भूप ननिअउरें। राम मातु मत जानव रउरें।।<br />
+
भानु कमल कुल पोषनिहारा। बिनु जल जारि करइ सोइ छारा॥
सेवहिं सकल सवति मोहि नीकें। गरबित भरत मातु बल पी कें।।<br />
+
जरि तुम्हारि चह सवति उखारी। रूँधहु करि उपाउ बर बारी॥
सालु तुम्हार कौसिलहि माई। कपट चतुर नहिं होइ जनाई।।<br />
+
दो0-तुम्हहि न सोचु सोहाग बल निज बस जानहु राउ।
राजहि तुम्ह पर प्रेमु बिसेषी। सवति सुभाउ सकइ नहिं देखी।।<br />
+
मन मलीन मुह मीठ नृप राउर सरल सुभाउ॥17॥
रची प्रंपचु भूपहि अपनाई। राम तिलक हित लगन धराई।।<br />
+
 
यह कुल उचित राम कहुँ टीका। सबहि सोहाइ मोहि सुठि नीका।।<br />
+
चतुर गँभीर राम महतारी। बीचु पाइ निज बात सँवारी॥
आगिलि बात समुझि डरु मोही। देउ दैउ फिरि सो फलु ओही।।<br />
+
पठए भरतु भूप ननिअउरें। राम मातु मत जानव रउरें॥
दो0-रचि पचि कोटिक कुटिलपन कीन्हेसि कपट प्रबोधु।।<br />
+
सेवहिं सकल सवति मोहि नीकें। गरबित भरत मातु बल पी कें॥
  कहिसि कथा सत सवति कै जेहि बिधि बाढ़ बिरोधु।।18।।<br />
+
सालु तुम्हार कौसिलहि माई। कपट चतुर नहिं होइ जनाई॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
राजहि तुम्ह पर प्रेमु बिसेषी। सवति सुभाउ सकइ नहिं देखी॥
भावी बस प्रतीति उर आई। पूँछ रानि पुनि सपथ देवाई।।<br />
+
रची प्रंपचु भूपहि अपनाई। राम तिलक हित लगन धराई॥
का पूछहुँ तुम्ह अबहुँ न जाना। निज हित अनहित पसु पहिचाना।।<br />
+
यह कुल उचित राम कहुँ टीका। सबहि सोहाइ मोहि सुठि नीका॥
भयउ पाखु दिन सजत समाजू। तुम्ह पाई सुधि मोहि सन आजू।।<br />
+
आगिलि बात समुझि डरु मोही। देउ दैउ फिरि सो फलु ओही॥
खाइअ पहिरिअ राज तुम्हारें। सत्य कहें नहिं दोषु हमारें।।<br />
+
दो0-रचि पचि कोटिक कुटिलपन कीन्हेसि कपट प्रबोधु॥
जौं असत्य कछु कहब बनाई। तौ बिधि देइहि हमहि सजाई।।<br />
+
कहिसि कथा सत सवति कै जेहि बिधि बाढ़ बिरोधु॥18॥
रामहि तिलक कालि जौं भयऊ।þ तुम्ह कहुँ बिपति बीजु बिधि बयऊ।।<br />
+
 
रेख खँचाइ कहउँ बलु भाषी। भामिनि भइहु दूध कइ माखी।।<br />
+
भावी बस प्रतीति उर आई। पूँछ रानि पुनि सपथ देवाई॥
जौं सुत सहित करहु सेवकाई। तौ घर रहहु न आन उपाई।।<br />
+
का पूछहुँ तुम्ह अबहुँ न जाना। निज हित अनहित पसु पहिचाना॥
दो0-कद्रूँ बिनतहि दीन्ह दुखु तुम्हहि कौसिलाँ देब।<br />
+
भयउ पाखु दिन सजत समाजू। तुम्ह पाई सुधि मोहि सन आजू॥
    भरतु बंदिगृह सेइहहिं लखनु राम के नेब।।19।।<br />
+
खाइअ पहिरिअ राज तुम्हारें। सत्य कहें नहिं दोषु हमारें॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
जौं असत्य कछु कहब बनाई। तौ बिधि देइहि हमहि सजाई॥
कैकयसुता सुनत कटु बानी। कहि न सकइ कछु सहमि सुखानी।।<br />
+
रामहि तिलक कालि जौं भयऊ तुम्ह कहुँ बिपति बीजु बिधि बयऊ॥
तन पसेउ कदली जिमि काँपी। कुबरीं दसन जीभ तब चाँपी।।<br />
+
रेख खँचाइ कहउँ बलु भाषी। भामिनि भइहु दूध कइ माखी॥
कहि कहि कोटिक कपट कहानी। धीरजु धरहु प्रबोधिसि रानी।।<br />
+
जौं सुत सहित करहु सेवकाई। तौ घर रहहु न आन उपाई॥
फिरा करमु प्रिय लागि कुचाली। बकिहि सराहइ मानि मराली।।<br />
+
दो0-कद्रूँ बिनतहि दीन्ह दुखु तुम्हहि कौसिलाँ देब।
सुनु मंथरा बात फुरि तोरी। दहिनि आँखि नित फरकइ मोरी।।<br />
+
भरतु बंदिगृह सेइहहिं लखनु राम के नेब॥19॥
दिन प्रति देखउँ राति कुसपने। कहउँ न तोहि मोह बस अपने।।<br />
+
 
काह करौ सखि सूध सुभाऊ। दाहिन बाम न जानउँ काऊ।।<br />
+
कैकयसुता सुनत कटु बानी। कहि न सकइ कछु सहमि सुखानी॥
दो0-अपने चलत न आजु लगि अनभल काहुक कीन्ह।<br />
+
तन पसेउ कदली जिमि काँपी। कुबरीं दसन जीभ तब चाँपी॥
    केहिं अघ एकहि बार मोहि दैअँ दुसह दुखु दीन्ह।।20।।<br />
+
कहि कहि कोटिक कपट कहानी। धीरजु धरहु प्रबोधिसि रानी॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
फिरा करमु प्रिय लागि कुचाली। बकिहि सराहइ मानि मराली॥
नैहर जनमु भरब बरु जाइ। जिअत न करबि सवति सेवकाई।।<br />
+
सुनु मंथरा बात फुरि तोरी। दहिनि आँखि नित फरकइ मोरी॥
अरि बस दैउ जिआवत जाही। मरनु नीक तेहि जीवन चाही।।<br />
+
दिन प्रति देखउँ राति कुसपने। कहउँ न तोहि मोह बस अपने॥
दीन बचन कह बहुबिधि रानी। सुनि कुबरीं तियमाया ठानी।।<br />
+
काह करौ सखि सूध सुभाऊ। दाहिन बाम न जानउँ काऊ॥
अस कस कहहु मानि मन ऊना। सुखु सोहागु तुम्ह कहुँ दिन दूना।।<br />
+
दो0-अपने चलत न आजु लगि अनभल काहुक कीन्ह।
जेहिं राउर अति अनभल ताका। सोइ पाइहि यहु फलु परिपाका।।<br />
+
केहिं अघ एकहि बार मोहि दैअँ दुसह दुखु दीन्ह॥20॥
जब तें कुमत सुना मैं स्वामिनि। भूख न बासर नींद न जामिनि।।<br />
+
 
पूँछेउ गुनिन्ह रेख तिन्ह खाँची। भरत भुआल होहिं यह साँची।।<br />
+
नैहर जनमु भरब बरु जाइ। जिअत न करबि सवति सेवकाई॥
भामिनि करहु त कहौं उपाऊ। है तुम्हरीं सेवा बस राऊ।।<br />
+
अरि बस दैउ जिआवत जाही। मरनु नीक तेहि जीवन चाही॥
दो0-परउँ कूप तुअ बचन पर सकउँ पूत पति त्यागि।<br />
+
दीन बचन कह बहुबिधि रानी। सुनि कुबरीं तियमाया ठानी॥
  कहसि मोर दुखु देखि बड़ कस न करब हित लागि।।21।।<br />
+
अस कस कहहु मानि मन ऊना। सुखु सोहागु तुम्ह कहुँ दिन दूना॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
जेहिं राउर अति अनभल ताका। सोइ पाइहि यहु फलु परिपाका॥
कुबरीं करि कबुली कैकेई। कपट छुरी उर पाहन टेई।।<br />
+
जब तें कुमत सुना मैं स्वामिनि। भूख न बासर नींद न जामिनि॥
लखइ न रानि निकट दुखु कैंसे। चरइ हरित तिन बलिपसु जैसें।।<br />
+
पूँछेउ गुनिन्ह रेख तिन्ह खाँची। भरत भुआल होहिं यह साँची॥
सुनत बात मृदु अंत कठोरी। देति मनहुँ मधु माहुर घोरी।।<br />
+
भामिनि करहु त कहौं उपाऊ। है तुम्हरीं सेवा बस राऊ॥
कहइ चेरि सुधि अहइ कि नाही। स्वामिनि कहिहु कथा मोहि पाहीं।।<br />
+
दो0-परउँ कूप तुअ बचन पर सकउँ पूत पति त्यागि।
दुइ बरदान भूप सन थाती। मागहु आजु जुड़ावहु छाती।।<br />
+
कहसि मोर दुखु देखि बड़ कस न करब हित लागि॥21॥
सुतहि राजु रामहि बनवासू। देहु लेहु सब सवति हुलासु।।<br />
+
 
भूपति राम सपथ जब करई। तब मागेहु जेहिं बचनु न टरई।।<br />
+
कुबरीं करि कबुली कैकेई। कपट छुरी उर पाहन टेई॥
होइ अकाजु आजु निसि बीतें। बचनु मोर प्रिय मानेहु जी तें।।<br />
+
लखइ न रानि निकट दुखु कैंसे। चरइ हरित तिन बलिपसु जैसें॥
दो0-बड़ कुघातु करि पातकिनि कहेसि कोपगृहँ जाहु।<br />
+
सुनत बात मृदु अंत कठोरी। देति मनहुँ मधु माहुर घोरी॥
  काजु सँवारेहु सजग सबु सहसा जनि पतिआहु।।22।।<br />
+
कहइ चेरि सुधि अहइ कि नाही। स्वामिनि कहिहु कथा मोहि पाहीं॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
दुइ बरदान भूप सन थाती। मागहु आजु जुड़ावहु छाती॥
कुबरिहि रानि प्रानप्रिय जानी। बार बार बड़ि बुद्धि बखानी।।<br />
+
सुतहि राजु रामहि बनवासू। देहु लेहु सब सवति हुलासु॥
तोहि सम हित न मोर संसारा। बहे जात कइ भइसि अधारा।।<br />
+
भूपति राम सपथ जब करई। तब मागेहु जेहिं बचनु न टरई॥
जौं बिधि पुरब मनोरथु काली। करौं तोहि चख पूतरि आली।।<br />
+
होइ अकाजु आजु निसि बीतें। बचनु मोर प्रिय मानेहु जी तें॥
बहुबिधि चेरिहि आदरु देई। कोपभवन गवनि कैकेई।।<br />
+
दो0-बड़ कुघातु करि पातकिनि कहेसि कोपगृहँ जाहु।
बिपति बीजु बरषा रितु चेरी। भुइँ भइ कुमति कैकेई केरी।।<br />
+
काजु सँवारेहु सजग सबु सहसा जनि पतिआहु॥22॥
पाइ कपट जलु अंकुर जामा। बर दोउ दल दुख फल परिनामा।।<br />
+
 
कोप समाजु साजि सबु सोई। राजु करत निज कुमति बिगोई।।<br />
+
कुबरिहि रानि प्रानप्रिय जानी। बार बार बड़ि बुद्धि बखानी॥
राउर नगर कोलाहलु होई। यह कुचालि कछु जान न कोई।।<br />
+
तोहि सम हित न मोर संसारा। बहे जात कइ भइसि अधारा॥
दो0-प्रमुदित पुर नर नारि। सब सजहिं सुमंगलचार।<br />
+
जौं बिधि पुरब मनोरथु काली। करौं तोहि चख पूतरि आली॥
  एक प्रबिसहिं एक निर्गमहिं भीर भूप दरबार।।23।।<br />
+
बहुबिधि चेरिहि आदरु देई। कोपभवन गवनि कैकेई॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
बिपति बीजु बरषा रितु चेरी। भुइँ भइ कुमति कैकेई केरी॥
बाल सखा सुन हियँ हरषाहीं। मिलि दस पाँच राम पहिं जाहीं।।<br />
+
पाइ कपट जलु अंकुर जामा। बर दोउ दल दुख फल परिनामा॥
प्रभु आदरहिं प्रेमु पहिचानी। पूँछहिं कुसल खेम मृदु बानी।।<br />
+
कोप समाजु साजि सबु सोई। राजु करत निज कुमति बिगोई॥
फिरहिं भवन प्रिय आयसु पाई। करत परसपर राम बड़ाई।।<br />
+
राउर नगर कोलाहलु होई। यह कुचालि कछु जान न कोई॥
को रघुबीर सरिस संसारा। सीलु सनेह निबाहनिहारा।<br />
+
दो0-प्रमुदित पुर नर नारि। सब सजहिं सुमंगलचार।
जेंहि जेंहि जोनि करम बस भ्रमहीं। तहँ तहँ ईसु देउ यह हमहीं।।<br />
+
एक प्रबिसहिं एक निर्गमहिं भीर भूप दरबार॥23॥
सेवक हम स्वामी सियनाहू। होउ नात यह ओर निबाहू।।<br />
+
 
अस अभिलाषु नगर सब काहू। कैकयसुता ह्दयँ अति दाहू।।<br />
+
बाल सखा सुन हियँ हरषाहीं। मिलि दस पाँच राम पहिं जाहीं॥
को न कुसंगति पाइ नसाई। रहइ न नीच मतें चतुराई।।<br />
+
प्रभु आदरहिं प्रेमु पहिचानी। पूँछहिं कुसल खेम मृदु बानी॥
दो0-साँस समय सानंद नृपु गयउ कैकेई गेहँ।<br />
+
फिरहिं भवन प्रिय आयसु पाई। करत परसपर राम बड़ाई॥
  गवनु निठुरता निकट किय जनु धरि देह सनेहँ।।24।।<br />
+
को रघुबीर सरिस संसारा। सीलु सनेह निबाहनिहारा।
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
जेंहि जेंहि जोनि करम बस भ्रमहीं। तहँ तहँ ईसु देउ यह हमहीं॥
कोपभवन सुनि सकुचेउ राउ। भय बस अगहुड़ परइ न पाऊ।।<br />
+
सेवक हम स्वामी सियनाहू। होउ नात यह ओर निबाहू॥
सुरपति बसइ बाहँबल जाके। नरपति सकल रहहिं रुख ताकें।।<br />
+
अस अभिलाषु नगर सब काहू। कैकयसुता ह्दयँ अति दाहू॥
सो सुनि तिय रिस गयउ सुखाई। देखहु काम प्रताप बड़ाई।।<br />
+
को न कुसंगति पाइ नसाई। रहइ न नीच मतें चतुराई॥
सूल कुलिस असि अँगवनिहारे। ते रतिनाथ सुमन सर मारे।।<br />
+
दो0-साँस समय सानंद नृपु गयउ कैकेई गेहँ।
सभय नरेसु प्रिया पहिं गयऊ। देखि दसा दुखु दारुन भयऊ।।<br />
+
गवनु निठुरता निकट किय जनु धरि देह सनेहँ॥24॥
भूमि सयन पटु मोट पुराना। दिए डारि तन भूषण नाना।।<br />
+
 
कुमतिहि कसि कुबेषता फाबी। अन अहिवातु सूच जनु भाबी।।<br />
+
कोपभवन सुनि सकुचेउ राउ। भय बस अगहुड़ परइ न पाऊ॥
जाइ निकट नृपु कह मृदु बानी। प्रानप्रिया केहि हेतु रिसानी।।<br />
+
सुरपति बसइ बाहँबल जाके। नरपति सकल रहहिं रुख ताकें॥
छं0-केहि हेतु रानि रिसानि परसत पानि पतिहि नेवारई।<br />
+
सो सुनि तिय रिस गयउ सुखाई। देखहु काम प्रताप बड़ाई॥
  मानहुँ सरोष भुअंग भामिनि बिषम भाँति निहारई।।<br />
+
सूल कुलिस असि अँगवनिहारे। ते रतिनाथ सुमन सर मारे॥
  दोउ बासना रसना दसन बर मरम ठाहरु देखई।<br />
+
सभय नरेसु प्रिया पहिं गयऊ। देखि दसा दुखु दारुन भयऊ॥
  तुलसी नृपति भवतब्यता बस काम कौतुक लेखई।।<br />
+
भूमि सयन पटु मोट पुराना। दिए डारि तन भूषण नाना॥
सो0-बार बार कह राउ सुमुखि सुलोचिनि पिकबचनि।<br />
+
कुमतिहि कसि कुबेषता फाबी। अन अहिवातु सूच जनु भाबी॥
  कारन मोहि सुनाउ गजगामिनि निज कोप कर।।25।।<br />
+
जाइ निकट नृपु कह मृदु बानी। प्रानप्रिया केहि हेतु रिसानी॥
अनहित तोर प्रिया केइँ कीन्हा। केहि दुइ सिर केहि जमु चह लीन्हा।।<br />
+
छं0-केहि हेतु रानि रिसानि परसत पानि पतिहि नेवारई।
कहु केहि रंकहि करौ नरेसू। कहु केहि नृपहि निकासौं देसू।।<br />
+
मानहुँ सरोष भुअंग भामिनि बिषम भाँति निहारई॥
सकउँ तोर अरि अमरउ मारी। काह कीट बपुरे नर नारी।।<br />
+
दोउ बासना रसना दसन बर मरम ठाहरु देखई।
जानसि मोर सुभाउ बरोरू। मनु तव आनन चंद चकोरू।।<br />
+
तुलसी नृपति भवतब्यता बस काम कौतुक लेखई॥
प्रिया प्रान सुत सरबसु मोरें। परिजन प्रजा सकल बस तोरें।।<br />
+
सो0-बार बार कह राउ सुमुखि सुलोचिनि पिकबचनि।
जौं कछु कहौ कपटु करि तोही। भामिनि राम सपथ सत मोही।।<br />
+
कारन मोहि सुनाउ गजगामिनि निज कोप कर॥25॥
बिहसि मागु मनभावति बाता। भूषन सजहि मनोहर गाता।।<br />
+
 
घरी कुघरी समुझि जियँ देखू। बेगि प्रिया परिहरहि कुबेषू।।<br />
+
अनहित तोर प्रिया केइँ कीन्हा। केहि दुइ सिर केहि जमु चह लीन्हा॥
दो0-यह सुनि मन गुनि सपथ बड़ि बिहसि उठी मतिमंद।<br />
+
कहु केहि रंकहि करौ नरेसू। कहु केहि नृपहि निकासौं देसू॥
  भूषन सजति बिलोकि मृगु मनहुँ किरातिनि फंद।।26।।<br />
+
सकउँ तोर अरि अमरउ मारी। काह कीट बपुरे नर नारी॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
जानसि मोर सुभाउ बरोरू। मनु तव आनन चंद चकोरू॥
पुनि कह राउ सुह्रद जियँ जानी। प्रेम पुलकि मृदु मंजुल बानी।।<br />
+
प्रिया प्रान सुत सरबसु मोरें। परिजन प्रजा सकल बस तोरें॥
भामिनि भयउ तोर मनभावा। घर घर नगर अनंद बधावा।।<br />
+
जौं कछु कहौ कपटु करि तोही। भामिनि राम सपथ सत मोही॥
रामहि देउँ कालि जुबराजू। सजहि सुलोचनि मंगल साजू।।<br />
+
बिहसि मागु मनभावति बाता। भूषन सजहि मनोहर गाता॥
दलकि उठेउ सुनि ह्रदउ कठोरू। जनु छुइ गयउ पाक बरतोरू।।<br />
+
घरी कुघरी समुझि जियँ देखू। बेगि प्रिया परिहरहि कुबेषू॥
ऐसिउ पीर बिहसि तेहि गोई। चोर नारि जिमि प्रगटि न रोई।।<br />
+
दो0-यह सुनि मन गुनि सपथ बड़ि बिहसि उठी मतिमंद।
लखहिं न भूप कपट चतुराई। कोटि कुटिल मनि गुरू पढ़ाई।।<br />
+
भूषन सजति बिलोकि मृगु मनहुँ किरातिनि फंद॥26॥
जद्यपि नीति निपुन नरनाहू। नारिचरित जलनिधि अवगाहू।।<br />
+
 
कपट सनेहु बढ़ाइ बहोरी। बोली बिहसि नयन मुहु मोरी।।<br />
+
पुनि कह राउ सुह्रद जियँ जानी। प्रेम पुलकि मृदु मंजुल बानी॥
दो0-मागु मागु पै कहहु पिय कबहुँ न देहु न लेहु।<br />
+
भामिनि भयउ तोर मनभावा। घर घर नगर अनंद बधावा॥
  देन कहेहु बरदान दुइ तेउ पावत संदेहु।।27।।<br />
+
रामहि देउँ कालि जुबराजू। सजहि सुलोचनि मंगल साजू॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
दलकि उठेउ सुनि ह्रदउ कठोरू। जनु छुइ गयउ पाक बरतोरू॥
जानेउँ मरमु राउ हँसि कहई। तुम्हहि कोहाब परम प्रिय अहई।।<br />
+
ऐसिउ पीर बिहसि तेहि गोई। चोर नारि जिमि प्रगटि न रोई॥
थाति राखि न मागिहु काऊ। बिसरि गयउ मोहि भोर सुभाऊ।।<br />
+
लखहिं न भूप कपट चतुराई। कोटि कुटिल मनि गुरू पढ़ाई॥
झूठेहुँ हमहि दोषु जनि देहू। दुइ कै चारि मागि मकु लेहू।।<br />
+
जद्यपि नीति निपुन नरनाहू। नारिचरित जलनिधि अवगाहू॥
रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्रान जाहुँ बरु बचनु न जाई।।<br />
+
कपट सनेहु बढ़ाइ बहोरी। बोली बिहसि नयन मुहु मोरी॥
नहिं असत्य सम पातक पुंजा। गिरि सम होहिं कि कोटिक गुंजा।।<br />
+
दो0-मागु मागु पै कहहु पिय कबहुँ न देहु न लेहु।
सत्यमूल सब सुकृत सुहाए। बेद पुरान बिदित मनु गाए।।<br />
+
देन कहेहु बरदान दुइ तेउ पावत संदेहु॥27॥
तेहि पर राम सपथ करि आई। सुकृत सनेह अवधि रघुराई।।<br />
+
 
बात दृढ़ाइ कुमति हँसि बोली। कुमत कुबिहग कुलह जनु खोली।।<br />
+
जानेउँ मरमु राउ हँसि कहई। तुम्हहि कोहाब परम प्रिय अहई॥
दो0-भूप मनोरथ सुभग बनु सुख सुबिहंग समाजु।<br />
+
थाति राखि न मागिहु काऊ। बिसरि गयउ मोहि भोर सुभाऊ॥
  भिल्लनि जिमि छाड़न चहति बचनु भयंकरु बाजु।।28।।<br />
+
झूठेहुँ हमहि दोषु जनि देहू। दुइ कै चारि मागि मकु लेहू॥
            मासपारायण, तेरहवाँ विश्राम<br />
+
रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्रान जाहुँ बरु बचनु न जाई॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
नहिं असत्य सम पातक पुंजा। गिरि सम होहिं कि कोटिक गुंजा॥
सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का। देहु एक बर भरतहि टीका।।<br />
+
सत्यमूल सब सुकृत सुहाए। बेद पुरान बिदित मनु गाए॥
मागउँ दूसर बर कर जोरी। पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी।।<br />
+
तेहि पर राम सपथ करि आई। सुकृत सनेह अवधि रघुराई॥
तापस बेष बिसेषि उदासी। चौदह बरिस रामु बनबासी।।<br />
+
बात दृढ़ाइ कुमति हँसि बोली। कुमत कुबिहग कुलह जनु खोली॥
सुनि मृदु बचन भूप हियँ सोकू। ससि कर छुअत बिकल जिमि कोकू।।<br />
+
दो0-भूप मनोरथ सुभग बनु सुख सुबिहंग समाजु।
गयउ सहमि नहिं कछु कहि आवा। जनु सचान बन झपटेउ लावा।।<br />
+
भिल्लनि जिमि छाड़न चहति बचनु भयंकरु बाजु॥28॥
बिबरन भयउ निपट नरपालू। दामिनि हनेउ मनहुँ तरु तालू।।<br />
+
 
माथे हाथ मूदि दोउ लोचन। तनु धरि सोचु लाग जनु सोचन।।<br />
+
मासपारायण, तेरहवाँ विश्राम
मोर मनोरथु सुरतरु फूला। फरत करिनि जिमि हतेउ समूला।।<br />
+
 
अवध उजारि कीन्हि कैकेईं। दीन्हसि अचल बिपति कै नेईं।।<br />
+
सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का। देहु एक बर भरतहि टीका॥
दो0-कवनें अवसर का भयउ गयउँ नारि बिस्वास।<br />
+
मागउँ दूसर बर कर जोरी। पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी॥
  जोग सिद्धि फल समय जिमि जतिहि अबिद्या नास।।29।।<br />
+
तापस बेष बिसेषि उदासी। चौदह बरिस रामु बनबासी॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
सुनि मृदु बचन भूप हियँ सोकू। ससि कर छुअत बिकल जिमि कोकू॥
एहि बिधि राउ मनहिं मन झाँखा। देखि कुभाँति कुमति मन माखा।।<br />
+
गयउ सहमि नहिं कछु कहि आवा। जनु सचान बन झपटेउ लावा॥
भरतु कि राउर पूत न होहीं। आनेहु मोल बेसाहि कि मोही।।<br />
+
बिबरन भयउ निपट नरपालू। दामिनि हनेउ मनहुँ तरु तालू॥
जो सुनि सरु अस लाग तुम्हारें। काहे न बोलहु बचनु सँभारे।।<br />
+
माथे हाथ मूदि दोउ लोचन। तनु धरि सोचु लाग जनु सोचन॥
देहु उतरु अनु करहु कि नाहीं। सत्यसंध तुम्ह रघुकुल माहीं।।<br />
+
मोर मनोरथु सुरतरु फूला। फरत करिनि जिमि हतेउ समूला॥
देन कहेहु अब जनि बरु देहू। तजहुँ सत्य जग अपजसु लेहू।।<br />
+
अवध उजारि कीन्हि कैकेईं। दीन्हसि अचल बिपति कै नेईं॥
सत्य सराहि कहेहु बरु देना। जानेहु लेइहि मागि चबेना।।<br />
+
दो0-कवनें अवसर का भयउ गयउँ नारि बिस्वास।
सिबि दधीचि बलि जो कछु भाषा। तनु धनु तजेउ बचन पनु राखा।।<br />
+
जोग सिद्धि फल समय जिमि जतिहि अबिद्या नास॥29॥
अति कटु बचन कहति कैकेई। मानहुँ लोन जरे पर देई।।<br />
+
 
दो0-धरम धुरंधर धीर धरि नयन उघारे रायँ।<br />
+
एहि बिधि राउ मनहिं मन झाँखा। देखि कुभाँति कुमति मन माखा॥
  सिरु धुनि लीन्हि उसास असि मारेसि मोहि कुठायँ।।30।।<br />
+
भरतु कि राउर पूत न होहीं। आनेहु मोल बेसाहि कि मोही॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
जो सुनि सरु अस लाग तुम्हारें। काहे न बोलहु बचनु सँभारे॥
आगें दीखि जरत रिस भारी। मनहुँ रोष तरवारि उघारी।।<br />
+
देहु उतरु अनु करहु कि नाहीं। सत्यसंध तुम्ह रघुकुल माहीं॥
मूठि कुबुद्धि धार निठुराई। धरी कूबरीं सान बनाई।।<br />
+
देन कहेहु अब जनि बरु देहू। तजहुँ सत्य जग अपजसु लेहू॥
लखी महीप कराल कठोरा। सत्य कि जीवनु लेइहि मोरा।।<br />
+
सत्य सराहि कहेहु बरु देना। जानेहु लेइहि मागि चबेना॥
बोले राउ कठिन करि छाती। बानी सबिनय तासु सोहाती।।<br />
+
सिबि दधीचि बलि जो कछु भाषा। तनु धनु तजेउ बचन पनु राखा॥
प्रिया बचन कस कहसि कुभाँती। भीर प्रतीति प्रीति करि हाँती।।<br />
+
अति कटु बचन कहति कैकेई। मानहुँ लोन जरे पर देई॥
मोरें भरतु रामु दुइ आँखी। सत्य कहउँ करि संकरू साखी।।<br />
+
दो0-धरम धुरंधर धीर धरि नयन उघारे रायँ।
अवसि दूतु मैं पठइब प्राता। ऐहहिं बेगि सुनत दोउ भ्राता।।<br />
+
सिरु धुनि लीन्हि उसास असि मारेसि मोहि कुठायँ॥30॥
सुदिन सोधि सबु साजु सजाई। देउँ भरत कहुँ राजु बजाई।।<br />
+
 
दो0- लोभु न रामहि राजु कर बहुत भरत पर प्रीति।<br />
+
आगें दीखि जरत रिस भारी। मनहुँ रोष तरवारि उघारी॥
  मैं बड़ छोट बिचारि जियँ करत रहेउँ नृपनीति।।31।।<br />
+
मूठि कुबुद्धि धार निठुराई। धरी कूबरीं सान बनाई॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
लखी महीप कराल कठोरा। सत्य कि जीवनु लेइहि मोरा॥
राम सपथ सत कहुउँ सुभाऊ। राममातु कछु कहेउ न काऊ।।<br />
+
बोले राउ कठिन करि छाती। बानी सबिनय तासु सोहाती॥
मैं सबु कीन्ह तोहि बिनु पूँछें। तेहि तें परेउ मनोरथु छूछें।।<br />
+
प्रिया बचन कस कहसि कुभाँती। भीर प्रतीति प्रीति करि हाँती॥
रिस परिहरू अब मंगल साजू। कछु दिन गएँ भरत जुबराजू।।<br />
+
मोरें भरतु रामु दुइ आँखी। सत्य कहउँ करि संकरू साखी॥
एकहि बात मोहि दुखु लागा। बर दूसर असमंजस मागा।।<br />
+
अवसि दूतु मैं पठइब प्राता। ऐहहिं बेगि सुनत दोउ भ्राता॥
अजहुँ हृदय जरत तेहि आँचा। रिस परिहास कि साँचेहुँ साँचा।।<br />
+
सुदिन सोधि सबु साजु सजाई। देउँ भरत कहुँ राजु बजाई॥
कहु तजि रोषु राम अपराधू। सबु कोउ कहइ रामु सुठि साधू।।<br />
+
दो0- लोभु न रामहि राजु कर बहुत भरत पर प्रीति।
तुहूँ सराहसि करसि सनेहू। अब सुनि मोहि भयउ संदेहू।।<br />
+
मैं बड़ छोट बिचारि जियँ करत रहेउँ नृपनीति॥31॥
जासु सुभाउ अरिहि अनुकूला। सो किमि करिहि मातु प्रतिकूला।।<br />
+
 
दो0- प्रिया हास रिस परिहरहि मागु बिचारि बिबेकु।<br />
+
राम सपथ सत कहुउँ सुभाऊ। राममातु कछु कहेउ न काऊ॥
    जेहिं देखाँ अब नयन भरि भरत राज अभिषेकु।।32।।<br />
+
मैं सबु कीन्ह तोहि बिनु पूँछें। तेहि तें परेउ मनोरथु छूछें॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
रिस परिहरू अब मंगल साजू। कछु दिन गएँ भरत जुबराजू॥
जिऐ मीन बरू बारि बिहीना। मनि बिनु फनिकु जिऐ दुख दीना।।<br />
+
एकहि बात मोहि दुखु लागा। बर दूसर असमंजस मागा॥
कहउँ सुभाउ न छलु मन माहीं। जीवनु मोर राम बिनु नाहीं।।<br />
+
अजहुँ हृदय जरत तेहि आँचा। रिस परिहास कि साँचेहुँ साँचा॥
समुझि देखु जियँ प्रिया प्रबीना। जीवनु राम दरस आधीना।।<br />
+
कहु तजि रोषु राम अपराधू। सबु कोउ कहइ रामु सुठि साधू॥
सुनि म्रदु बचन कुमति अति जरई। मनहुँ अनल आहुति घृत परई।।<br />
+
तुहूँ सराहसि करसि सनेहू। अब सुनि मोहि भयउ संदेहू॥
कहइ करहु किन कोटि उपाया। इहाँ न लागिहि राउरि माया।।<br />
+
जासु सुभाउ अरिहि अनुकूला। सो किमि करिहि मातु प्रतिकूला॥
देहु कि लेहु अजसु करि नाहीं। मोहि न बहुत प्रपंच सोहाहीं।<br />
+
दो0- प्रिया हास रिस परिहरहि मागु बिचारि बिबेकु।
रामु साधु तुम्ह साधु सयाने। राममातु भलि सब पहिचाने।।<br />
+
जेहिं देखाँ अब नयन भरि भरत राज अभिषेकु॥32॥
जस कौसिलाँ मोर भल ताका। तस फलु उन्हहि देउँ करि साका।।<br />
+
 
दो0-होत प्रात मुनिबेष धरि जौं न रामु बन जाहिं।<br />
+
जिऐ मीन बरू बारि बिहीना। मनि बिनु फनिकु जिऐ दुख दीना॥
  मोर मरनु राउर अजस नृप समुझिअ मन माहिं।।33।।<br />
+
कहउँ सुभाउ न छलु मन माहीं। जीवनु मोर राम बिनु नाहीं॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
समुझि देखु जियँ प्रिया प्रबीना। जीवनु राम दरस आधीना॥
अस कहि कुटिल भई उठि ठाढ़ी। मानहुँ रोष तरंगिनि बाढ़ी।।<br />
+
सुनि म्रदु बचन कुमति अति जरई। मनहुँ अनल आहुति घृत परई॥
पाप पहार प्रगट भइ सोई। भरी क्रोध जल जाइ न जोई।।<br />
+
कहइ करहु किन कोटि उपाया। इहाँ न लागिहि राउरि माया॥
दोउ बर कूल कठिन हठ धारा। भवँर कूबरी बचन प्रचारा।।<br />
+
देहु कि लेहु अजसु करि नाहीं। मोहि न बहुत प्रपंच सोहाहीं।
ढाहत भूपरूप तरु मूला। चली बिपति बारिधि अनुकूला।।<br />
+
रामु साधु तुम्ह साधु सयाने। राममातु भलि सब पहिचाने॥
लखी नरेस बात फुरि साँची। तिय मिस मीचु सीस पर नाची।।<br />
+
जस कौसिलाँ मोर भल ताका। तस फलु उन्हहि देउँ करि साका॥
गहि पद बिनय कीन्ह बैठारी। जनि दिनकर कुल होसि कुठारी।।<br />
+
दो0-होत प्रात मुनिबेष धरि जौं न रामु बन जाहिं।
मागु माथ अबहीं देउँ तोही। राम बिरहँ जनि मारसि मोही।।<br />
+
मोर मरनु राउर अजस नृप समुझिअ मन माहिं॥33॥
राखु राम कहुँ जेहि तेहि भाँती। नाहिं त जरिहि जनम भरि छाती।।<br />
+
 
दो0-देखी ब्याधि असाध नृपु परेउ धरनि धुनि माथ।<br />
+
अस कहि कुटिल भई उठि ठाढ़ी। मानहुँ रोष तरंगिनि बाढ़ी॥
  कहत परम आरत बचन राम राम रघुनाथ।।34।।<br />
+
पाप पहार प्रगट भइ सोई। भरी क्रोध जल जाइ न जोई॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
दोउ बर कूल कठिन हठ धारा। भवँर कूबरी बचन प्रचारा॥
ब्याकुल राउ सिथिल सब गाता। करिनि कलपतरु मनहुँ निपाता।।<br />
+
ढाहत भूपरूप तरु मूला। चली बिपति बारिधि अनुकूला॥
कंठु सूख मुख आव न बानी। जनु पाठीनु दीन बिनु पानी।।<br />
+
लखी नरेस बात फुरि साँची। तिय मिस मीचु सीस पर नाची॥
पुनि कह कटु कठोर कैकेई। मनहुँ घाय महुँ माहुर देई।।<br />
+
गहि पद बिनय कीन्ह बैठारी। जनि दिनकर कुल होसि कुठारी॥
जौं अंतहुँ अस करतबु रहेऊ। मागु मागु तुम्ह केहिं बल कहेऊ।।<br />
+
मागु माथ अबहीं देउँ तोही। राम बिरहँ जनि मारसि मोही॥
दुइ कि होइ एक समय भुआला। हँसब ठठाइ फुलाउब गाला।।<br />
+
राखु राम कहुँ जेहि तेहि भाँती। नाहिं त जरिहि जनम भरि छाती॥
दानि कहाउब अरु कृपनाई। होइ कि खेम कुसल रौताई।।<br />
+
दो0-देखी ब्याधि असाध नृपु परेउ धरनि धुनि माथ।
छाड़हु बचनु कि धीरजु धरहू। जनि अबला जिमि करुना करहू।।<br />
+
कहत परम आरत बचन राम राम रघुनाथ॥34॥
तनु तिय तनय धामु धनु धरनी। सत्यसंध कहुँ तृन सम बरनी।।<br />
+
 
दो0-मरम बचन सुनि राउ कह कहु कछु दोषु न तोर।<br />
+
ब्याकुल राउ सिथिल सब गाता। करिनि कलपतरु मनहुँ निपाता॥
  लागेउ तोहि पिसाच जिमि कालु कहावत मोर।।35।।û<br />
+
कंठु सूख मुख आव न बानी। जनु पाठीनु दीन बिनु पानी॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
पुनि कह कटु कठोर कैकेई। मनहुँ घाय महुँ माहुर देई॥
चहत न भरत भूपतहि भोरें। बिधि बस कुमति बसी जिय तोरें।।<br />
+
जौं अंतहुँ अस करतबु रहेऊ। मागु मागु तुम्ह केहिं बल कहेऊ॥
सो सबु मोर पाप परिनामू। भयउ कुठाहर जेहिं बिधि बामू।।<br />
+
दुइ कि होइ एक समय भुआला। हँसब ठठाइ फुलाउब गाला॥
सुबस बसिहि फिरि अवध सुहाई। सब गुन धाम राम प्रभुताई।।<br />
+
दानि कहाउब अरु कृपनाई। होइ कि खेम कुसल रौताई॥
करिहहिं भाइ सकल सेवकाई। होइहि तिहुँ पुर राम बड़ाई।।<br />
+
छाड़हु बचनु कि धीरजु धरहू। जनि अबला जिमि करुना करहू॥
तोर कलंकु मोर पछिताऊ। मुएहुँ न मिटहि न जाइहि काऊ।।<br />
+
तनु तिय तनय धामु धनु धरनी। सत्यसंध कहुँ तृन सम बरनी॥
अब तोहि नीक लाग करु सोई। लोचन ओट बैठु मुहु गोई।।<br />
+
दो0-मरम बचन सुनि राउ कह कहु कछु दोषु न तोर।
जब लगि जिऔं कहउँ कर जोरी। तब लगि जनि कछु कहसि बहोरी।।<br />
+
लागेउ तोहि पिसाच जिमि कालु कहावत मोर॥35॥
फिरि पछितैहसि अंत अभागी। मारसि गाइ नहारु लागी।।<br />
+
 
दो0-परेउ राउ कहि कोटि बिधि काहे करसि निदानु।<br />
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चहत न भरत भूपतहि भोरें। बिधि बस कुमति बसी जिय तोरें॥
  कपट सयानि न कहति कछु जागति मनहुँ मसानु।।36।।<br />
+
सो सबु मोर पाप परिनामू। भयउ कुठाहर जेहिं बिधि बामू॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
सुबस बसिहि फिरि अवध सुहाई। सब गुन धाम राम प्रभुताई॥
राम राम रट बिकल भुआलू। जनु बिनु पंख बिहंग बेहालू।।<br />
+
करिहहिं भाइ सकल सेवकाई। होइहि तिहुँ पुर राम बड़ाई॥
हृदयँ मनाव भोरु जनि होई। रामहि जाइ कहै जनि कोई।।<br />
+
तोर कलंकु मोर पछिताऊ। मुएहुँ न मिटहि न जाइहि काऊ॥
उदउ करहु जनि रबि रघुकुल गुर। अवध बिलोकि सूल होइहि उर।।<br />
+
अब तोहि नीक लाग करु सोई। लोचन ओट बैठु मुहु गोई॥
भूप प्रीति कैकइ कठिनाई। उभय अवधि बिधि रची बनाई।।<br />
+
जब लगि जिऔं कहउँ कर जोरी। तब लगि जनि कछु कहसि बहोरी॥
बिलपत नृपहि भयउ भिनुसारा। बीना बेनु संख धुनि द्वारा।।<br />
+
फिरि पछितैहसि अंत अभागी। मारसि गाइ नहारु लागी॥
पढ़हिं भाट गुन गावहिं गायक। सुनत नृपहि जनु लागहिं सायक।।<br />
+
दो0-परेउ राउ कहि कोटि बिधि काहे करसि निदानु।
मंगल सकल सोहाहिं न कैसें। सहगामिनिहि बिभूषन जैसें।।<br />
+
कपट सयानि न कहति कछु जागति मनहुँ मसानु॥36॥
तेहिं निसि नीद परी नहि काहू। राम दरस लालसा उछाहू।।<br />
+
 
दो0-द्वार भीर सेवक सचिव कहहिं उदित रबि देखि।<br />
+
राम राम रट बिकल भुआलू। जनु बिनु पंख बिहंग बेहालू॥
  जागेउ अजहुँ न अवधपति कारनु कवनु बिसेषि।।37।।<br />
+
हृदयँ मनाव भोरु जनि होई। रामहि जाइ कहै जनि कोई॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
उदउ करहु जनि रबि रघुकुल गुर। अवध बिलोकि सूल होइहि उर॥
पछिले पहर भूपु नित जागा। आजु हमहि बड़ अचरजु लागा।।<br />
+
भूप प्रीति कैकइ कठिनाई। उभय अवधि बिधि रची बनाई॥
जाहु सुमंत्र जगावहु जाई। कीजिअ काजु रजायसु पाई।।<br />
+
बिलपत नृपहि भयउ भिनुसारा। बीना बेनु संख धुनि द्वारा॥
गए सुमंत्रु तब राउर माही। देखि भयावन जात डेराहीं।।<br />
+
पढ़हिं भाट गुन गावहिं गायक। सुनत नृपहि जनु लागहिं सायक॥
धाइ खाइ जनु जाइ न हेरा। मानहुँ बिपति बिषाद बसेरा।।<br />
+
मंगल सकल सोहाहिं न कैसें। सहगामिनिहि बिभूषन जैसें॥
पूछें कोउ न ऊतरु देई। गए जेंहिं भवन भूप कैकैई।।<br />
+
तेहिं निसि नीद परी नहि काहू। राम दरस लालसा उछाहू॥
कहि जयजीव बैठ सिरु नाई। दैखि भूप गति गयउ सुखाई।।<br />
+
दो0-द्वार भीर सेवक सचिव कहहिं उदित रबि देखि।
सोच बिकल बिबरन महि परेऊ। मानहुँ कमल मूलु परिहरेऊ।।<br />
+
जागेउ अजहुँ न अवधपति कारनु कवनु बिसेषि॥37॥
सचिउ सभीत सकइ नहिं पूँछी। बोली असुभ भरी सुभ छूछी।।<br />
+
 
दो0-परी न राजहि नीद निसि हेतु जान जगदीसु।<br />
+
पछिले पहर भूपु नित जागा। आजु हमहि बड़ अचरजु लागा॥
    रामु रामु रटि भोरु किय कहइ न मरमु महीसु।।38।।<br />
+
जाहु सुमंत्र जगावहु जाई। कीजिअ काजु रजायसु पाई॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
गए सुमंत्रु तब राउर माही। देखि भयावन जात डेराहीं॥
आनहु रामहि बेगि बोलाई। समाचार तब पूँछेहु आई।।<br />
+
धाइ खाइ जनु जाइ न हेरा। मानहुँ बिपति बिषाद बसेरा॥
चलेउ सुमंत्र राय रूख जानी। लखी कुचालि कीन्हि कछु रानी।।<br />
+
पूछें कोउ न ऊतरु देई। गए जेंहिं भवन भूप कैकैई॥
सोच बिकल मग परइ न पाऊ। रामहि बोलि कहिहि का राऊ।।<br />
+
कहि जयजीव बैठ सिरु नाई। दैखि भूप गति गयउ सुखाई॥
उर धरि धीरजु गयउ दुआरें। पूछँहिं सकल देखि मनु मारें।।<br />
+
सोच बिकल बिबरन महि परेऊ। मानहुँ कमल मूलु परिहरेऊ॥
समाधानु करि सो सबही का। गयउ जहाँ दिनकर कुल टीका।।<br />
+
सचिउ सभीत सकइ नहिं पूँछी। बोली असुभ भरी सुभ छूछी॥
रामु सुमंत्रहि आवत देखा। आदरु कीन्ह पिता सम लेखा।।<br />
+
दो0-परी न राजहि नीद निसि हेतु जान जगदीसु।
निरखि बदनु कहि भूप रजाई। रघुकुलदीपहि चलेउ लेवाई।।<br />
+
रामु रामु रटि भोरु किय कहइ न मरमु महीसु॥38॥
रामु कुभाँति सचिव सँग जाहीं। देखि लोग जहँ तहँ बिलखाहीं।।<br />
+
 
दो0-जाइ दीख रघुबंसमनि नरपति निपट कुसाजु।।<br />
+
आनहु रामहि बेगि बोलाई। समाचार तब पूँछेहु आई॥
    सहमि परेउ लखि सिंघिनिहि मनहुँ बृद्ध गजराजु।।39।।<br />
+
चलेउ सुमंत्र राय रूख जानी। लखी कुचालि कीन्हि कछु रानी॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
सोच बिकल मग परइ न पाऊ। रामहि बोलि कहिहि का राऊ॥
सूखहिं अधर जरइ सबु अंगू। मनहुँ दीन मनिहीन भुअंगू।।<br />
+
उर धरि धीरजु गयउ दुआरें। पूछँहिं सकल देखि मनु मारें॥
सरुष समीप दीखि कैकेई। मानहुँ मीचु घरी गनि लेई।।<br />
+
समाधानु करि सो सबही का। गयउ जहाँ दिनकर कुल टीका॥
करुनामय मृदु राम सुभाऊ। प्रथम दीख दुखु सुना न काऊ।।<br />
+
रामु सुमंत्रहि आवत देखा। आदरु कीन्ह पिता सम लेखा॥
तदपि धीर धरि समउ बिचारी। पूँछी मधुर बचन महतारी।।<br />
+
निरखि बदनु कहि भूप रजाई। रघुकुलदीपहि चलेउ लेवाई॥
मोहि कहु मातु तात दुख कारन। करिअ जतन जेहिं होइ निवारन।।<br />
+
रामु कुभाँति सचिव सँग जाहीं। देखि लोग जहँ तहँ बिलखाहीं॥
सुनहु राम सबु कारन एहू। राजहि तुम पर बहुत सनेहू।।<br />
+
दो0-जाइ दीख रघुबंसमनि नरपति निपट कुसाजु॥
देन कहेन्हि मोहि दुइ बरदाना। मागेउँ जो कछु मोहि सोहाना।<br />
+
सहमि परेउ लखि सिंघिनिहि मनहुँ बृद्ध गजराजु॥39॥
सो सुनि भयउ भूप उर सोचू। छाड़ि न सकहिं तुम्हार सँकोचू।।<br />
+
 
दो0-सुत सनेह इत बचनु उत संकट परेउ नरेसु।<br />
+
सूखहिं अधर जरइ सबु अंगू। मनहुँ दीन मनिहीन भुअंगू॥
    सकहु न आयसु धरहु सिर मेटहु कठिन कलेसु।।40।।<br />
+
सरुष समीप दीखि कैकेई। मानहुँ मीचु घरी गनि लेई॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
करुनामय मृदु राम सुभाऊ। प्रथम दीख दुखु सुना न काऊ॥
निधरक बैठि कहइ कटु बानी। सुनत कठिनता अति अकुलानी।।<br />
+
तदपि धीर धरि समउ बिचारी। पूँछी मधुर बचन महतारी॥
जीभ कमान बचन सर नाना। मनहुँ महिप मृदु लच्छ समाना।।<br />
+
मोहि कहु मातु तात दुख कारन। करिअ जतन जेहिं होइ निवारन॥
जनु कठोरपनु धरें सरीरू। सिखइ धनुषबिद्या बर बीरू।।<br />
+
सुनहु राम सबु कारन एहू। राजहि तुम पर बहुत सनेहू॥
सब प्रसंगु रघुपतिहि सुनाई। बैठि मनहुँ तनु धरि निठुराई।।<br />
+
देन कहेन्हि मोहि दुइ बरदाना। मागेउँ जो कछु मोहि सोहाना।
मन मुसकाइ भानुकुल भानु। रामु सहज आनंद निधानू।।<br />
+
सो सुनि भयउ भूप उर सोचू। छाड़ि न सकहिं तुम्हार सँकोचू॥
बोले बचन बिगत सब दूषन। मृदु मंजुल जनु बाग बिभूषन।।<br />
+
दो0-सुत सनेह इत बचनु उत संकट परेउ नरेसु।
सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी।।<br />
+
सकहु न आयसु धरहु सिर मेटहु कठिन कलेसु॥40॥
तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा।।<br />
+
 
दो0-मुनिगन मिलनु बिसेषि बन सबहि भाँति हित मोर।<br />
+
निधरक बैठि कहइ कटु बानी। सुनत कठिनता अति अकुलानी॥
    तेहि महँ पितु आयसु बहुरि संमत जननी तोर।।41।।<br />
+
जीभ कमान बचन सर नाना। मनहुँ महिप मृदु लच्छ समाना॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
जनु कठोरपनु धरें सरीरू। सिखइ धनुषबिद्या बर बीरू॥
भरत प्रानप्रिय पावहिं राजू। बिधि सब बिधि मोहि सनमुख आजु।<br />
+
सब प्रसंगु रघुपतिहि सुनाई। बैठि मनहुँ तनु धरि निठुराई॥
जों न जाउँ बन ऐसेहु काजा। प्रथम गनिअ मोहि मूढ़ समाजा।।<br />
+
मन मुसकाइ भानुकुल भानु। रामु सहज आनंद निधानू॥
सेवहिं अरँडु कलपतरु त्यागी। परिहरि अमृत लेहिं बिषु मागी।।<br />
+
बोले बचन बिगत सब दूषन। मृदु मंजुल जनु बाग बिभूषन॥
तेउ न पाइ अस समउ चुकाहीं। देखु बिचारि मातु मन माहीं।।<br />
+
सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी॥
अंब एक दुखु मोहि बिसेषी। निपट बिकल नरनायकु देखी।।<br />
+
तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा॥
थोरिहिं बात पितहि दुख भारी। होति प्रतीति न मोहि महतारी।।<br />
+
दो0-मुनिगन मिलनु बिसेषि बन सबहि भाँति हित मोर।
राउ धीर गुन उदधि अगाधू। भा मोहि ते कछु बड़ अपराधू।।<br />
+
तेहि महँ पितु आयसु बहुरि संमत जननी तोर॥41॥
जातें मोहि न कहत कछु राऊ। मोरि सपथ तोहि कहु सतिभाऊ।।<br />
+
 
दो0-सहज सरल रघुबर बचन कुमति कुटिल करि जान।<br />
+
भरत प्रानप्रिय पावहिं राजू। बिधि सब बिधि मोहि सनमुख आजु।
  चलइ जोंक जल बक्रगति जद्यपि सलिलु समान।।42।।<br />
+
जों न जाउँ बन ऐसेहु काजा। प्रथम गनिअ मोहि मूढ़ समाजा॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
सेवहिं अरँडु कलपतरु त्यागी। परिहरि अमृत लेहिं बिषु मागी॥
रहसी रानि राम रुख पाई। बोली कपट सनेहु जनाई।।<br />
+
तेउ न पाइ अस समउ चुकाहीं। देखु बिचारि मातु मन माहीं॥
सपथ तुम्हार भरत कै आना। हेतु न दूसर मै कछु जाना।।<br />
+
अंब एक दुखु मोहि बिसेषी। निपट बिकल नरनायकु देखी॥
तुम्ह अपराध जोगु नहिं ताता। जननी जनक बंधु सुखदाता।।<br />
+
थोरिहिं बात पितहि दुख भारी। होति प्रतीति न मोहि महतारी॥
राम सत्य सबु जो कछु कहहू। तुम्ह पितु मातु बचन रत अहहू।।<br />
+
राउ धीर गुन उदधि अगाधू। भा मोहि ते कछु बड़ अपराधू॥
पितहि बुझाइ कहहु बलि सोई। चौथेंपन जेहिं अजसु न होई।।<br />
+
जातें मोहि न कहत कछु राऊ। मोरि सपथ तोहि कहु सतिभाऊ॥
तुम्ह सम सुअन सुकृत जेहिं दीन्हे। उचित न तासु निरादरु कीन्हे।।<br />
+
दो0-सहज सरल रघुबर बचन कुमति कुटिल करि जान।
लागहिं कुमुख बचन सुभ कैसे। मगहँ गयादिक तीरथ जैसे।।<br />
+
चलइ जोंक जल बक्रगति जद्यपि सलिलु समान॥42॥
रामहि मातु बचन सब भाए। जिमि सुरसरि गत सलिल सुहाए।।<br />
+
 
दो0-गइ मुरुछा रामहि सुमिरि नृप फिरि करवट लीन्ह।<br />
+
रहसी रानि राम रुख पाई। बोली कपट सनेहु जनाई॥
  सचिव राम आगमन कहि बिनय समय सम कीन्ह।।43।।<br />
+
सपथ तुम्हार भरत कै आना। हेतु न दूसर मै कछु जाना॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
तुम्ह अपराध जोगु नहिं ताता। जननी जनक बंधु सुखदाता॥
अवनिप अकनि रामु पगु धारे। धरि धीरजु तब नयन उघारे।।<br />
+
राम सत्य सबु जो कछु कहहू। तुम्ह पितु मातु बचन रत अहहू॥
सचिवँ सँभारि राउ बैठारे। चरन परत नृप रामु निहारे।।<br />
+
पितहि बुझाइ कहहु बलि सोई। चौथेंपन जेहिं अजसु न होई॥
लिए सनेह बिकल उर लाई। गै मनि मनहुँ फनिक फिरि पाई।।<br />
+
तुम्ह सम सुअन सुकृत जेहिं दीन्हे। उचित न तासु निरादरु कीन्हे॥
रामहि चितइ रहेउ नरनाहू। चला बिलोचन बारि प्रबाहू।।<br />
+
लागहिं कुमुख बचन सुभ कैसे। मगहँ गयादिक तीरथ जैसे॥
सोक बिबस कछु कहै न पारा। हृदयँ लगावत बारहिं बारा।।<br />
+
रामहि मातु बचन सब भाए। जिमि सुरसरि गत सलिल सुहाए॥
बिधिहि मनाव राउ मन माहीं। जेहिं रघुनाथ न कानन जाहीं।।<br />
+
दो0-गइ मुरुछा रामहि सुमिरि नृप फिरि करवट लीन्ह।
सुमिरि महेसहि कहइ निहोरी। बिनती सुनहु सदासिव मोरी।।<br />
+
सचिव राम आगमन कहि बिनय समय सम कीन्ह॥43॥
आसुतोष तुम्ह अवढर दानी। आरति हरहु दीन जनु जानी।।<br />
+
 
दो0-तुम्ह प्रेरक सब के हृदयँ सो मति रामहि देहु।<br />
+
अवनिप अकनि रामु पगु धारे। धरि धीरजु तब नयन उघारे॥
  बचनु मोर तजि रहहि घर परिहरि सीलु सनेहु।।44।।<br />
+
सचिवँ सँभारि राउ बैठारे। चरन परत नृप रामु निहारे॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
लिए सनेह बिकल उर लाई। गै मनि मनहुँ फनिक फिरि पाई॥
अजसु होउ जग सुजसु नसाऊ। नरक परौ बरु सुरपुरु जाऊ।।<br />
+
रामहि चितइ रहेउ नरनाहू। चला बिलोचन बारि प्रबाहू॥
सब दुख दुसह सहावहु मोही। लोचन ओट रामु जनि होंही।।<br />
+
सोक बिबस कछु कहै न पारा। हृदयँ लगावत बारहिं बारा॥
अस मन गुनइ राउ नहिं बोला। पीपर पात सरिस मनु डोला।।<br />
+
बिधिहि मनाव राउ मन माहीं। जेहिं रघुनाथ न कानन जाहीं॥
रघुपति पितहि प्रेमबस जानी। पुनि कछु कहिहि मातु अनुमानी।।<br />
+
सुमिरि महेसहि कहइ निहोरी। बिनती सुनहु सदासिव मोरी॥
देस काल अवसर अनुसारी। बोले बचन बिनीत बिचारी।।<br />
+
आसुतोष तुम्ह अवढर दानी। आरति हरहु दीन जनु जानी॥
तात कहउँ कछु करउँ ढिठाई। अनुचितु छमब जानि लरिकाई।।<br />
+
दो0-तुम्ह प्रेरक सब के हृदयँ सो मति रामहि देहु।
अति लघु बात लागि दुखु पावा। काहुँ न मोहि कहि प्रथम जनावा।।<br />
+
बचनु मोर तजि रहहि घर परिहरि सीलु सनेहु॥44॥
देखि गोसाइँहि पूँछिउँ माता। सुनि प्रसंगु भए सीतल गाता।।<br />
+
 
दो0-मंगल समय सनेह बस सोच परिहरिअ तात।<br />
+
अजसु होउ जग सुजसु नसाऊ। नरक परौ बरु सुरपुरु जाऊ॥
  आयसु देइअ हरषि हियँ कहि पुलके प्रभु गात।।45।।<br />
+
सब दुख दुसह सहावहु मोही। लोचन ओट रामु जनि होंही॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
अस मन गुनइ राउ नहिं बोला। पीपर पात सरिस मनु डोला॥
धन्य जनमु जगतीतल तासू। पितहि प्रमोदु चरित सुनि जासू।।<br />
+
रघुपति पितहि प्रेमबस जानी। पुनि कछु कहिहि मातु अनुमानी॥
चारि पदारथ करतल ताकें। प्रिय पितु मातु प्रान सम जाकें।।<br />
+
देस काल अवसर अनुसारी। बोले बचन बिनीत बिचारी॥
आयसु पालि जनम फलु पाई। ऐहउँ बेगिहिं होउ रजाई।।<br />
+
तात कहउँ कछु करउँ ढिठाई। अनुचितु छमब जानि लरिकाई॥
बिदा मातु सन आवउँ मागी। चलिहउँ बनहि बहुरि पग लागी।।<br />
+
अति लघु बात लागि दुखु पावा। काहुँ न मोहि कहि प्रथम जनावा॥
अस कहि राम गवनु तब कीन्हा। भूप सोक बसु उतरु न दीन्हा।।<br />
+
देखि गोसाइँहि पूँछिउँ माता। सुनि प्रसंगु भए सीतल गाता॥
नगर ब्यापि गइ बात सुतीछी। छुअत चढ़ी जनु सब तन बीछी।।<br />
+
दो0-मंगल समय सनेह बस सोच परिहरिअ तात।
सुनि भए बिकल सकल नर नारी। बेलि बिटप जिमि देखि दवारी।।<br />
+
आयसु देइअ हरषि हियँ कहि पुलके प्रभु गात॥45॥
जो जहँ सुनइ धुनइ सिरु सोई। बड़ बिषादु नहिं धीरजु होई।।<br />
+
 
दो0-मुख सुखाहिं लोचन स्त्रवहि सोकु न हृदयँ समाइ।<br />
+
धन्य जनमु जगतीतल तासू। पितहि प्रमोदु चरित सुनि जासू॥
  मनहुँ ०करुन रस कटकई उतरी अवध बजाइ।।46।।<br />
+
चारि पदारथ करतल ताकें। प्रिय पितु मातु प्रान सम जाकें॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
आयसु पालि जनम फलु पाई। ऐहउँ बेगिहिं होउ रजाई॥
मिलेहि माझ बिधि बात बेगारी। जहँ तहँ देहिं कैकेइहि गारी।।<br />
+
बिदा मातु सन आवउँ मागी। चलिहउँ बनहि बहुरि पग लागी॥
एहि पापिनिहि बूझि का परेऊ। छाइ भवन पर पावकु धरेऊ।।<br />
+
अस कहि राम गवनु तब कीन्हा। भूप सोक बसु उतरु न दीन्हा॥
निज कर नयन काढ़ि चह दीखा। डारि सुधा बिषु चाहत चीखा।।<br />
+
नगर ब्यापि गइ बात सुतीछी। छुअत चढ़ी जनु सब तन बीछी॥
कुटिल कठोर कुबुद्धि अभागी। भइ रघुबंस बेनु बन आगी।।<br />
+
सुनि भए बिकल सकल नर नारी। बेलि बिटप जिमि देखि दवारी॥
पालव बैठि पेड़ु एहिं काटा। सुख महुँ सोक ठाटु धरि ठाटा।।<br />
+
जो जहँ सुनइ धुनइ सिरु सोई। बड़ बिषादु नहिं धीरजु होई॥
सदा रामु एहि प्रान समाना। कारन कवन कुटिलपनु ठाना।।<br />
+
दो0-मुख सुखाहिं लोचन स्त्रवहि सोकु न हृदयँ समाइ।
सत्य कहहिं कबि नारि सुभाऊ। सब बिधि अगहु अगाध दुराऊ।।<br />
+
मनहुँ ०करुन रस कटकई उतरी अवध बजाइ॥46॥
निज प्रतिबिंबु बरुकु गहि जाई। जानि न जाइ नारि गति भाई।।<br />
+
 
दो0-काह न पावकु जारि सक का न समुद्र समाइ।<br />
+
मिलेहि माझ बिधि बात बेगारी। जहँ तहँ देहिं कैकेइहि गारी॥
  का न करै अबला प्रबल केहि जग कालु न खाइ।।47।।<br />
+
एहि पापिनिहि बूझि का परेऊ। छाइ भवन पर पावकु धरेऊ॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
निज कर नयन काढ़ि चह दीखा। डारि सुधा बिषु चाहत चीखा॥
का सुनाइ बिधि काह सुनावा। का देखाइ चह काह देखावा।।<br />
+
कुटिल कठोर कुबुद्धि अभागी। भइ रघुबंस बेनु बन आगी॥
एक कहहिं भल भूप न कीन्हा। बरु बिचारि नहिं कुमतिहि दीन्हा।।<br />
+
पालव बैठि पेड़ु एहिं काटा। सुख महुँ सोक ठाटु धरि ठाटा॥
जो हठि भयउ सकल दुख भाजनु। अबला बिबस ग्यानु गुनु गा जनु।।<br />
+
सदा रामु एहि प्रान समाना। कारन कवन कुटिलपनु ठाना॥
एक धरम परमिति पहिचाने। नृपहि दोसु नहिं देहिं सयाने।।<br />
+
सत्य कहहिं कबि नारि सुभाऊ। सब बिधि अगहु अगाध दुराऊ॥
सिबि दधीचि हरिचंद कहानी। एक एक सन कहहिं बखानी।।<br />
+
निज प्रतिबिंबु बरुकु गहि जाई। जानि न जाइ नारि गति भाई॥
एक भरत कर संमत कहहीं। एक उदास भायँ सुनि रहहीं।।<br />
+
दो0-काह न पावकु जारि सक का न समुद्र समाइ।
कान मूदि कर रद गहि जीहा। एक कहहिं यह बात अलीहा।।<br />
+
का न करै अबला प्रबल केहि जग कालु न खाइ॥47॥
सुकृत जाहिं अस कहत तुम्हारे। रामु भरत कहुँ प्रानपिआरे।।<br />
+
 
दो0-चंदु चवै बरु अनल कन सुधा होइ बिषतूल।<br />
+
का सुनाइ बिधि काह सुनावा। का देखाइ चह काह देखावा॥
  सपनेहुँ कबहुँ न करहिं किछु भरतु राम प्रतिकूल।।48।।<br />
+
एक कहहिं भल भूप न कीन्हा। बरु बिचारि नहिं कुमतिहि दीन्हा॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
जो हठि भयउ सकल दुख भाजनु। अबला बिबस ग्यानु गुनु गा जनु॥
एक बिधातहिं दूषनु देंहीं। सुधा देखाइ दीन्ह बिषु जेहीं।।<br />
+
एक धरम परमिति पहिचाने। नृपहि दोसु नहिं देहिं सयाने॥
खरभरु नगर सोचु सब काहू। दुसह दाहु उर मिटा उछाहू।।<br />
+
सिबि दधीचि हरिचंद कहानी। एक एक सन कहहिं बखानी॥
बिप्रबधू कुलमान्य जठेरी। जे प्रिय परम कैकेई केरी।।<br />
+
एक भरत कर संमत कहहीं। एक उदास भायँ सुनि रहहीं॥
लगीं देन सिख सीलु सराही। बचन बानसम लागहिं ताही।।<br />
+
कान मूदि कर रद गहि जीहा। एक कहहिं यह बात अलीहा॥
भरतु न मोहि प्रिय राम समाना। सदा कहहु यहु सबु जगु जाना।।<br />
+
सुकृत जाहिं अस कहत तुम्हारे। रामु भरत कहुँ प्रानपिआरे॥
करहु राम पर सहज सनेहू। केहिं अपराध आजु बनु देहू।।<br />
+
दो0-चंदु चवै बरु अनल कन सुधा होइ बिषतूल।
कबहुँ न कियहु सवति आरेसू। प्रीति प्रतीति जान सबु देसू।।<br />
+
सपनेहुँ कबहुँ न करहिं किछु भरतु राम प्रतिकूल॥48॥
कौसल्याँ अब काह बिगारा। तुम्ह जेहि लागि बज्र पुर पारा।।<br />
+
 
दो0-सीय कि पिय सँगु परिहरिहि लखनु कि रहिहहिं धाम।<br />
+
एक बिधातहिं दूषनु देंहीं। सुधा देखाइ दीन्ह बिषु जेहीं॥
  राजु कि भूँजब भरत पुर नृपु कि जिइहि बिनु राम।।49।।<br />
+
खरभरु नगर सोचु सब काहू। दुसह दाहु उर मिटा उछाहू॥
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+
बिप्रबधू कुलमान्य जठेरी। जे प्रिय परम कैकेई केरी॥
अस बिचारि उर छाड़हु कोहू। सोक कलंक कोठि जनि होहू।।<br />
+
लगीं देन सिख सीलु सराही। बचन बानसम लागहिं ताही॥
भरतहि अवसि देहु जुबराजू। कानन काह राम कर काजू।।<br />
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भरतु न मोहि प्रिय राम समाना। सदा कहहु यहु सबु जगु जाना॥
नाहिन रामु राज के भूखे। धरम धुरीन बिषय रस रूखे।।<br />
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करहु राम पर सहज सनेहू। केहिं अपराध आजु बनु देहू॥
गुर गृह बसहुँ रामु तजि गेहू। नृप सन अस बरु दूसर लेहू।।<br />
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कबहुँ न कियहु सवति आरेसू। प्रीति प्रतीति जान सबु देसू॥
जौं नहिं लगिहहु कहें हमारे। नहिं लागिहि कछु हाथ तुम्हारे।।<br />
+
कौसल्याँ अब काह बिगारा। तुम्ह जेहि लागि बज्र पुर पारा॥
जौं परिहास कीन्हि कछु होई। तौ कहि प्रगट जनावहु सोई।।<br />
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दो0-सीय कि पिय सँगु परिहरिहि लखनु कि रहिहहिं धाम।
राम सरिस सुत कानन जोगू। काह कहिहि सुनि तुम्ह कहुँ लोगू।।<br />
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राजु कि भूँजब भरत पुर नृपु कि जिइहि बिनु राम॥49॥
उठहु बेगि सोइ करहु उपाई। जेहि बिधि सोकु कलंकु नसाई।।<br />
+
 
छं0-जेहि भाँति सोकु कलंकु जाइ उपाय करि कुल पालही।<br />
+
अस बिचारि उर छाड़हु कोहू। सोक कलंक कोठि जनि होहू॥
  हठि फेरु रामहि जात बन जनि बात दूसरि चालही।।<br />
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भरतहि अवसि देहु जुबराजू। कानन काह राम कर काजू॥
  जिमि भानु बिनु दिनु प्रान बिनु तनु चंद बिनु जिमि जामिनी।<br />
+
नाहिन रामु राज के भूखे। धरम धुरीन बिषय रस रूखे॥
  तिमि अवध तुलसीदास प्रभु बिनु समुझि धौं जियँ भामिनी।।<br />
+
गुर गृह बसहुँ रामु तजि गेहू। नृप सन अस बरु दूसर लेहू॥
सो0-सखिन्ह सिखावनु दीन्ह सुनत मधुर परिनाम हित।<br />
+
जौं नहिं लगिहहु कहें हमारे। नहिं लागिहि कछु हाथ तुम्हारे॥
    तेइँ कछु कान न कीन्ह कुटिल प्रबोधी कूबरी।।50।।<br />
+
जौं परिहास कीन्हि कछु होई। तौ कहि प्रगट जनावहु सोई॥
 +
राम सरिस सुत कानन जोगू। काह कहिहि सुनि तुम्ह कहुँ लोगू॥
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उठहु बेगि सोइ करहु उपाई। जेहि बिधि सोकु कलंकु नसाई॥
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छं0-जेहि भाँति सोकु कलंकु जाइ उपाय करि कुल पालही।
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हठि फेरु रामहि जात बन जनि बात दूसरि चालही॥
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जिमि भानु बिनु दिनु प्रान बिनु तनु चंद बिनु जिमि जामिनी।
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तिमि अवध तुलसीदास प्रभु बिनु समुझि धौं जियँ भामिनी॥
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सो0-सखिन्ह सिखावनु दीन्ह सुनत मधुर परिनाम हित।
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तेइँ कछु कान न कीन्ह कुटिल प्रबोधी कूबरी॥50॥
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12:04, 11 अप्रैल 2017 के समय का अवतरण

श्रीगणेशायनमः
श्रीजानकीवल्लभो विजयते
श्रीरामचरितमानस

द्वितीय सोपान
अयोध्या-काण्ड

श्लोक
यस्याङ्के च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके
भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट्।
सोऽयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा
शर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्रीशङ्करः पातु माम्॥1॥
प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्तथा न मम्ले वनवासदुःखतः।
मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य मे सदास्तु सा मञ्जुलमंगलप्रदा॥2॥
नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्गं सीतासमारोपितवामभागम्।
पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम्॥3॥

दो0-श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि।
बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि॥
जब तें रामु ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए॥
भुवन चारिदस भूधर भारी। सुकृत मेघ बरषहि सुख बारी॥
रिधि सिधि संपति नदीं सुहाई। उमगि अवध अंबुधि कहुँ आई॥
मनिगन पुर नर नारि सुजाती। सुचि अमोल सुंदर सब भाँती॥
कहि न जाइ कछु नगर बिभूती। जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥
सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥
मुदित मातु सब सखीं सहेली। फलित बिलोकि मनोरथ बेली॥
राम रूपु गुनसीलु सुभाऊ। प्रमुदित होइ देखि सुनि राऊ॥
दो0-सब कें उर अभिलाषु अस कहहिं मनाइ महेसु।
आप अछत जुबराज पद रामहि देउ नरेसु॥1॥

एक समय सब सहित समाजा। राजसभाँ रघुराजु बिराजा॥
सकल सुकृत मूरति नरनाहू। राम सुजसु सुनि अतिहि उछाहू॥
नृप सब रहहिं कृपा अभिलाषें। लोकप करहिं प्रीति रुख राखें॥
तिभुवन तीनि काल जग माहीं। भूरि भाग दसरथ सम नाहीं॥
मंगलमूल रामु सुत जासू। जो कछु कहिज थोर सबु तासू॥
रायँ सुभायँ मुकुरु कर लीन्हा। बदनु बिलोकि मुकुट सम कीन्हा॥
श्रवन समीप भए सित केसा। मनहुँ जरठपनु अस उपदेसा॥
नृप जुबराज राम कहुँ देहू। जीवन जनम लाहु किन लेहू॥
दो0-यह बिचारु उर आनि नृप सुदिनु सुअवसरु पाइ।
प्रेम पुलकि तन मुदित मन गुरहि सुनायउ जाइ॥2॥

कहइ भुआलु सुनिअ मुनिनायक। भए राम सब बिधि सब लायक॥
सेवक सचिव सकल पुरबासी। जे हमारे अरि मित्र उदासी॥
सबहि रामु प्रिय जेहि बिधि मोही। प्रभु असीस जनु तनु धरि सोही॥
बिप्र सहित परिवार गोसाईं। करहिं छोहु सब रौरिहि नाई॥
जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं। ते जनु सकल बिभव बस करहीं॥
मोहि सम यहु अनुभयउ न दूजें। सबु पायउँ रज पावनि पूजें॥
अब अभिलाषु एकु मन मोरें। पूजहि नाथ अनुग्रह तोरें॥
मुनि प्रसन्न लखि सहज सनेहू। कहेउ नरेस रजायसु देहू॥
दो0-राजन राउर नामु जसु सब अभिमत दातार।
फल अनुगामी महिप मनि मन अभिलाषु तुम्हार॥3॥

सब बिधि गुरु प्रसन्न जियँ जानी। बोलेउ राउ रहँसि मृदु बानी॥
नाथ रामु करिअहिं जुबराजू। कहिअ कृपा करि करिअ समाजू॥
मोहि अछत यहु होइ उछाहू। लहहिं लोग सब लोचन लाहू॥
प्रभु प्रसाद सिव सबइ निबाहीं। यह लालसा एक मन माहीं॥
पुनि न सोच तनु रहउ कि जाऊ। जेहिं न होइ पाछें पछिताऊ॥
सुनि मुनि दसरथ बचन सुहाए। मंगल मोद मूल मन भाए॥
सुनु नृप जासु बिमुख पछिताहीं। जासु भजन बिनु जरनि न जाहीं॥
भयउ तुम्हार तनय सोइ स्वामी। रामु पुनीत प्रेम अनुगामी॥
दो0-बेगि बिलंबु न करिअ नृप साजिअ सबुइ समाजु।
सुदिन सुमंगलु तबहिं जब रामु होहिं जुबराजु॥4॥

मुदित महिपति मंदिर आए। सेवक सचिव सुमंत्रु बोलाए॥
कहि जयजीव सीस तिन्ह नाए। भूप सुमंगल बचन सुनाए॥
जौं पाँचहि मत लागै नीका। करहु हरषि हियँ रामहि टीका॥
मंत्री मुदित सुनत प्रिय बानी। अभिमत बिरवँ परेउ जनु पानी॥
बिनती सचिव करहि कर जोरी। जिअहु जगतपति बरिस करोरी॥
जग मंगल भल काजु बिचारा। बेगिअ नाथ न लाइअ बारा॥
नृपहि मोदु सुनि सचिव सुभाषा। बढ़त बौंड़ जनु लही सुसाखा॥
दो0-कहेउ भूप मुनिराज कर जोइ जोइ आयसु होइ।
राम राज अभिषेक हित बेगि करहु सोइ सोइ॥5॥

हरषि मुनीस कहेउ मृदु बानी। आनहु सकल सुतीरथ पानी॥
औषध मूल फूल फल पाना। कहे नाम गनि मंगल नाना॥
चामर चरम बसन बहु भाँती। रोम पाट पट अगनित जाती॥
मनिगन मंगल बस्तु अनेका। जो जग जोगु भूप अभिषेका॥
बेद बिदित कहि सकल बिधाना। कहेउ रचहु पुर बिबिध बिताना॥
सफल रसाल पूगफल केरा। रोपहु बीथिन्ह पुर चहुँ फेरा॥
रचहु मंजु मनि चौकें चारू। कहहु बनावन बेगि बजारू॥
पूजहु गनपति गुर कुलदेवा। सब बिधि करहु भूमिसुर सेवा॥
दो0-ध्वज पताक तोरन कलस सजहु तुरग रथ नाग।
सिर धरि मुनिबर बचन सबु निज निज काजहिं लाग॥6॥

जो मुनीस जेहि आयसु दीन्हा। सो तेहिं काजु प्रथम जनु कीन्हा॥
बिप्र साधु सुर पूजत राजा। करत राम हित मंगल काजा॥
सुनत राम अभिषेक सुहावा। बाज गहागह अवध बधावा॥
राम सीय तन सगुन जनाए। फरकहिं मंगल अंग सुहाए॥
पुलकि सप्रेम परसपर कहहीं। भरत आगमनु सूचक अहहीं॥
भए बहुत दिन अति अवसेरी। सगुन प्रतीति भेंट प्रिय केरी॥
भरत सरिस प्रिय को जग माहीं। इहइ सगुन फलु दूसर नाहीं॥
रामहि बंधु सोच दिन राती। अंडन्हि कमठ ह्रदउ जेहि भाँती॥
दो0-एहि अवसर मंगलु परम सुनि रहँसेउ रनिवासु।
सोभत लखि बिधु बढ़त जनु बारिधि बीचि बिलासु॥7॥

प्रथम जाइ जिन्ह बचन सुनाए। भूषन बसन भूरि तिन्ह पाए॥
प्रेम पुलकि तन मन अनुरागीं। मंगल कलस सजन सब लागीं॥
चौकें चारु सुमित्राँ पुरी। मनिमय बिबिध भाँति अति रुरी॥
आनँद मगन राम महतारी। दिए दान बहु बिप्र हँकारी॥
पूजीं ग्रामदेबि सुर नागा। कहेउ बहोरि देन बलिभागा॥
जेहि बिधि होइ राम कल्यानू। देहु दया करि सो बरदानू॥
गावहिं मंगल कोकिलबयनीं। बिधुबदनीं मृगसावकनयनीं॥
दो0-राम राज अभिषेकु सुनि हियँ हरषे नर नारि।
लगे सुमंगल सजन सब बिधि अनुकूल बिचारि॥8॥

तब नरनाहँ बसिष्ठु बोलाए। रामधाम सिख देन पठाए॥
गुर आगमनु सुनत रघुनाथा। द्वार आइ पद नायउ माथा॥
सादर अरघ देइ घर आने। सोरह भाँति पूजि सनमाने॥
गहे चरन सिय सहित बहोरी। बोले रामु कमल कर जोरी॥
सेवक सदन स्वामि आगमनू। मंगल मूल अमंगल दमनू॥
तदपि उचित जनु बोलि सप्रीती। पठइअ काज नाथ असि नीती॥
प्रभुता तजि प्रभु कीन्ह सनेहू। भयउ पुनीत आजु यहु गेहू॥
आयसु होइ सो करौं गोसाई। सेवक लहइ स्वामि सेवकाई॥
दो0-सुनि सनेह साने बचन मुनि रघुबरहि प्रसंस।
राम कस न तुम्ह कहहु अस हंस बंस अवतंस॥9॥

बरनि राम गुन सीलु सुभाऊ। बोले प्रेम पुलकि मुनिराऊ॥
भूप सजेउ अभिषेक समाजू। चाहत देन तुम्हहि जुबराजू॥
राम करहु सब संजम आजू। जौं बिधि कुसल निबाहै काजू॥
गुरु सिख देइ राय पहिं गयउ। राम हृदयँ अस बिसमउ भयऊ॥
जनमे एक संग सब भाई। भोजन सयन केलि लरिकाई॥
करनबेध उपबीत बिआहा। संग संग सब भए उछाहा॥
बिमल बंस यहु अनुचित एकू। बंधु बिहाइ बड़ेहि अभिषेकू॥
प्रभु सप्रेम पछितानि सुहाई। हरउ भगत मन कै कुटिलाई॥
दो0-तेहि अवसर आए लखन मगन प्रेम आनंद।
सनमाने प्रिय बचन कहि रघुकुल कैरव चंद॥10॥

बाजहिं बाजने बिबिध बिधाना। पुर प्रमोदु नहिं जाइ बखाना॥
भरत आगमनु सकल मनावहिं। आवहुँ बेगि नयन फलु पावहिं॥
हाट बाट घर गलीं अथाई। कहहिं परसपर लोग लोगाई॥
कालि लगन भलि केतिक बारा। पूजिहि बिधि अभिलाषु हमारा॥
कनक सिंघासन सीय समेता। बैठहिं रामु होइ चित चेता॥
सकल कहहिं कब होइहि काली। बिघन मनावहिं देव कुचाली॥
तिन्हहि सोहाइ न अवध बधावा। चोरहि चंदिनि राति न भावा॥
सारद बोलि बिनय सुर करहीं। बारहिं बार पाय लै परहीं॥
दो0-बिपति हमारि बिलोकि बड़ि मातु करिअ सोइ आजु।
रामु जाहिं बन राजु तजि होइ सकल सुरकाजु॥11॥

सुनि सुर बिनय ठाढ़ि पछिताती। भइउँ सरोज बिपिन हिमराती॥
देखि देव पुनि कहहिं निहोरी। मातु तोहि नहिं थोरिउ खोरी॥
बिसमय हरष रहित रघुराऊ। तुम्ह जानहु सब राम प्रभाऊ॥
जीव करम बस सुख दुख भागी। जाइअ अवध देव हित लागी॥
बार बार गहि चरन सँकोचौ। चली बिचारि बिबुध मति पोची॥
ऊँच निवासु नीचि करतूती। देखि न सकहिं पराइ बिभूती॥
आगिल काजु बिचारि बहोरी। करहहिं चाह कुसल कबि मोरी॥
हरषि हृदयँ दसरथ पुर आई। जनु ग्रह दसा दुसह दुखदाई॥
दो0-नामु मंथरा मंदमति चेरी कैकेइ केरि।
अजस पेटारी ताहि करि गई गिरा मति फेरि॥12॥

दीख मंथरा नगरु बनावा। मंजुल मंगल बाज बधावा॥
पूछेसि लोगन्ह काह उछाहू। राम तिलकु सुनि भा उर दाहू॥
करइ बिचारु कुबुद्धि कुजाती। होइ अकाजु कवनि बिधि राती॥
देखि लागि मधु कुटिल किराती। जिमि गवँ तकइ लेउँ केहि भाँती॥
भरत मातु पहिं गइ बिलखानी। का अनमनि हसि कह हँसि रानी॥
ऊतरु देइ न लेइ उसासू। नारि चरित करि ढारइ आँसू॥
हँसि कह रानि गालु बड़ तोरें। दीन्ह लखन सिख अस मन मोरें॥
तबहुँ न बोल चेरि बड़ि पापिनि। छाड़इ स्वास कारि जनु साँपिनि॥
दो0-सभय रानि कह कहसि किन कुसल रामु महिपालु।
लखनु भरतु रिपुदमनु सुनि भा कुबरी उर सालु॥13॥

कत सिख देइ हमहि कोउ माई। गालु करब केहि कर बलु पाई॥
रामहि छाड़ि कुसल केहि आजू। जेहि जनेसु देइ जुबराजू॥
भयउ कौसिलहि बिधि अति दाहिन। देखत गरब रहत उर नाहिन॥
देखेहु कस न जाइ सब सोभा। जो अवलोकि मोर मनु छोभा॥
पूतु बिदेस न सोचु तुम्हारें। जानति हहु बस नाहु हमारें॥
नीद बहुत प्रिय सेज तुराई। लखहु न भूप कपट चतुराई॥
सुनि प्रिय बचन मलिन मनु जानी। झुकी रानि अब रहु अरगानी॥
पुनि अस कबहुँ कहसि घरफोरी। तब धरि जीभ कढ़ावउँ तोरी॥
दो0-काने खोरे कूबरे कुटिल कुचाली जानि।
तिय बिसेषि पुनि चेरि कहि भरतमातु मुसुकानि॥14॥

प्रियबादिनि सिख दीन्हिउँ तोही। सपनेहुँ तो पर कोपु न मोही॥
सुदिनु सुमंगल दायकु सोई। तोर कहा फुर जेहि दिन होई॥
जेठ स्वामि सेवक लघु भाई। यह दिनकर कुल रीति सुहाई॥
राम तिलकु जौं साँचेहुँ काली। देउँ मागु मन भावत आली॥
कौसल्या सम सब महतारी। रामहि सहज सुभायँ पिआरी॥
मो पर करहिं सनेहु बिसेषी। मैं करि प्रीति परीछा देखी॥
जौं बिधि जनमु देइ करि छोहू। होहुँ राम सिय पूत पुतोहू॥
प्रान तें अधिक रामु प्रिय मोरें। तिन्ह कें तिलक छोभु कस तोरें॥
दो0-भरत सपथ तोहि सत्य कहु परिहरि कपट दुराउ।
हरष समय बिसमउ करसि कारन मोहि सुनाउ॥15॥

एकहिं बार आस सब पूजी। अब कछु कहब जीभ करि दूजी॥
फोरै जोगु कपारु अभागा। भलेउ कहत दुख रउरेहि लागा॥
कहहिं झूठि फुरि बात बनाई। ते प्रिय तुम्हहि करुइ मैं माई॥
हमहुँ कहबि अब ठकुरसोहाती। नाहिं त मौन रहब दिनु राती॥
करि कुरूप बिधि परबस कीन्हा। बवा सो लुनिअ लहिअ जो दीन्हा॥
कोउ नृप होउ हमहि का हानी। चेरि छाड़ि अब होब कि रानी॥
जारै जोगु सुभाउ हमारा। अनभल देखि न जाइ तुम्हारा॥
तातें कछुक बात अनुसारी। छमिअ देबि बड़ि चूक हमारी॥
दो0-गूढ़ कपट प्रिय बचन सुनि तीय अधरबुधि रानि।
सुरमाया बस बैरिनिहि सुह्द जानि पतिआनि॥16॥

सादर पुनि पुनि पूँछति ओही। सबरी गान मृगी जनु मोही॥
तसि मति फिरी अहइ जसि भाबी। रहसी चेरि घात जनु फाबी॥
तुम्ह पूँछहु मैं कहत डेराऊँ। धरेउ मोर घरफोरी नाऊँ॥
सजि प्रतीति बहुबिधि गढ़ि छोली। अवध साढ़साती तब बोली॥
प्रिय सिय रामु कहा तुम्ह रानी। रामहि तुम्ह प्रिय सो फुरि बानी॥
रहा प्रथम अब ते दिन बीते। समउ फिरें रिपु होहिं पिंरीते॥
भानु कमल कुल पोषनिहारा। बिनु जल जारि करइ सोइ छारा॥
जरि तुम्हारि चह सवति उखारी। रूँधहु करि उपाउ बर बारी॥
दो0-तुम्हहि न सोचु सोहाग बल निज बस जानहु राउ।
मन मलीन मुह मीठ नृप राउर सरल सुभाउ॥17॥

चतुर गँभीर राम महतारी। बीचु पाइ निज बात सँवारी॥
पठए भरतु भूप ननिअउरें। राम मातु मत जानव रउरें॥
सेवहिं सकल सवति मोहि नीकें। गरबित भरत मातु बल पी कें॥
सालु तुम्हार कौसिलहि माई। कपट चतुर नहिं होइ जनाई॥
राजहि तुम्ह पर प्रेमु बिसेषी। सवति सुभाउ सकइ नहिं देखी॥
रची प्रंपचु भूपहि अपनाई। राम तिलक हित लगन धराई॥
यह कुल उचित राम कहुँ टीका। सबहि सोहाइ मोहि सुठि नीका॥
आगिलि बात समुझि डरु मोही। देउ दैउ फिरि सो फलु ओही॥
दो0-रचि पचि कोटिक कुटिलपन कीन्हेसि कपट प्रबोधु॥
कहिसि कथा सत सवति कै जेहि बिधि बाढ़ बिरोधु॥18॥

भावी बस प्रतीति उर आई। पूँछ रानि पुनि सपथ देवाई॥
का पूछहुँ तुम्ह अबहुँ न जाना। निज हित अनहित पसु पहिचाना॥
भयउ पाखु दिन सजत समाजू। तुम्ह पाई सुधि मोहि सन आजू॥
खाइअ पहिरिअ राज तुम्हारें। सत्य कहें नहिं दोषु हमारें॥
जौं असत्य कछु कहब बनाई। तौ बिधि देइहि हमहि सजाई॥
रामहि तिलक कालि जौं भयऊ तुम्ह कहुँ बिपति बीजु बिधि बयऊ॥
रेख खँचाइ कहउँ बलु भाषी। भामिनि भइहु दूध कइ माखी॥
जौं सुत सहित करहु सेवकाई। तौ घर रहहु न आन उपाई॥
दो0-कद्रूँ बिनतहि दीन्ह दुखु तुम्हहि कौसिलाँ देब।
भरतु बंदिगृह सेइहहिं लखनु राम के नेब॥19॥

कैकयसुता सुनत कटु बानी। कहि न सकइ कछु सहमि सुखानी॥
तन पसेउ कदली जिमि काँपी। कुबरीं दसन जीभ तब चाँपी॥
कहि कहि कोटिक कपट कहानी। धीरजु धरहु प्रबोधिसि रानी॥
फिरा करमु प्रिय लागि कुचाली। बकिहि सराहइ मानि मराली॥
सुनु मंथरा बात फुरि तोरी। दहिनि आँखि नित फरकइ मोरी॥
दिन प्रति देखउँ राति कुसपने। कहउँ न तोहि मोह बस अपने॥
काह करौ सखि सूध सुभाऊ। दाहिन बाम न जानउँ काऊ॥
दो0-अपने चलत न आजु लगि अनभल काहुक कीन्ह।
केहिं अघ एकहि बार मोहि दैअँ दुसह दुखु दीन्ह॥20॥

नैहर जनमु भरब बरु जाइ। जिअत न करबि सवति सेवकाई॥
अरि बस दैउ जिआवत जाही। मरनु नीक तेहि जीवन चाही॥
दीन बचन कह बहुबिधि रानी। सुनि कुबरीं तियमाया ठानी॥
अस कस कहहु मानि मन ऊना। सुखु सोहागु तुम्ह कहुँ दिन दूना॥
जेहिं राउर अति अनभल ताका। सोइ पाइहि यहु फलु परिपाका॥
जब तें कुमत सुना मैं स्वामिनि। भूख न बासर नींद न जामिनि॥
पूँछेउ गुनिन्ह रेख तिन्ह खाँची। भरत भुआल होहिं यह साँची॥
भामिनि करहु त कहौं उपाऊ। है तुम्हरीं सेवा बस राऊ॥
दो0-परउँ कूप तुअ बचन पर सकउँ पूत पति त्यागि।
कहसि मोर दुखु देखि बड़ कस न करब हित लागि॥21॥

कुबरीं करि कबुली कैकेई। कपट छुरी उर पाहन टेई॥
लखइ न रानि निकट दुखु कैंसे। चरइ हरित तिन बलिपसु जैसें॥
सुनत बात मृदु अंत कठोरी। देति मनहुँ मधु माहुर घोरी॥
कहइ चेरि सुधि अहइ कि नाही। स्वामिनि कहिहु कथा मोहि पाहीं॥
दुइ बरदान भूप सन थाती। मागहु आजु जुड़ावहु छाती॥
सुतहि राजु रामहि बनवासू। देहु लेहु सब सवति हुलासु॥
भूपति राम सपथ जब करई। तब मागेहु जेहिं बचनु न टरई॥
होइ अकाजु आजु निसि बीतें। बचनु मोर प्रिय मानेहु जी तें॥
दो0-बड़ कुघातु करि पातकिनि कहेसि कोपगृहँ जाहु।
काजु सँवारेहु सजग सबु सहसा जनि पतिआहु॥22॥

कुबरिहि रानि प्रानप्रिय जानी। बार बार बड़ि बुद्धि बखानी॥
तोहि सम हित न मोर संसारा। बहे जात कइ भइसि अधारा॥
जौं बिधि पुरब मनोरथु काली। करौं तोहि चख पूतरि आली॥
बहुबिधि चेरिहि आदरु देई। कोपभवन गवनि कैकेई॥
बिपति बीजु बरषा रितु चेरी। भुइँ भइ कुमति कैकेई केरी॥
पाइ कपट जलु अंकुर जामा। बर दोउ दल दुख फल परिनामा॥
कोप समाजु साजि सबु सोई। राजु करत निज कुमति बिगोई॥
राउर नगर कोलाहलु होई। यह कुचालि कछु जान न कोई॥
दो0-प्रमुदित पुर नर नारि। सब सजहिं सुमंगलचार।
एक प्रबिसहिं एक निर्गमहिं भीर भूप दरबार॥23॥

बाल सखा सुन हियँ हरषाहीं। मिलि दस पाँच राम पहिं जाहीं॥
प्रभु आदरहिं प्रेमु पहिचानी। पूँछहिं कुसल खेम मृदु बानी॥
फिरहिं भवन प्रिय आयसु पाई। करत परसपर राम बड़ाई॥
को रघुबीर सरिस संसारा। सीलु सनेह निबाहनिहारा।
जेंहि जेंहि जोनि करम बस भ्रमहीं। तहँ तहँ ईसु देउ यह हमहीं॥
सेवक हम स्वामी सियनाहू। होउ नात यह ओर निबाहू॥
अस अभिलाषु नगर सब काहू। कैकयसुता ह्दयँ अति दाहू॥
को न कुसंगति पाइ नसाई। रहइ न नीच मतें चतुराई॥
दो0-साँस समय सानंद नृपु गयउ कैकेई गेहँ।
गवनु निठुरता निकट किय जनु धरि देह सनेहँ॥24॥

कोपभवन सुनि सकुचेउ राउ। भय बस अगहुड़ परइ न पाऊ॥
सुरपति बसइ बाहँबल जाके। नरपति सकल रहहिं रुख ताकें॥
सो सुनि तिय रिस गयउ सुखाई। देखहु काम प्रताप बड़ाई॥
सूल कुलिस असि अँगवनिहारे। ते रतिनाथ सुमन सर मारे॥
सभय नरेसु प्रिया पहिं गयऊ। देखि दसा दुखु दारुन भयऊ॥
भूमि सयन पटु मोट पुराना। दिए डारि तन भूषण नाना॥
कुमतिहि कसि कुबेषता फाबी। अन अहिवातु सूच जनु भाबी॥
जाइ निकट नृपु कह मृदु बानी। प्रानप्रिया केहि हेतु रिसानी॥
छं0-केहि हेतु रानि रिसानि परसत पानि पतिहि नेवारई।
मानहुँ सरोष भुअंग भामिनि बिषम भाँति निहारई॥
दोउ बासना रसना दसन बर मरम ठाहरु देखई।
तुलसी नृपति भवतब्यता बस काम कौतुक लेखई॥
सो0-बार बार कह राउ सुमुखि सुलोचिनि पिकबचनि।
कारन मोहि सुनाउ गजगामिनि निज कोप कर॥25॥

अनहित तोर प्रिया केइँ कीन्हा। केहि दुइ सिर केहि जमु चह लीन्हा॥
कहु केहि रंकहि करौ नरेसू। कहु केहि नृपहि निकासौं देसू॥
सकउँ तोर अरि अमरउ मारी। काह कीट बपुरे नर नारी॥
जानसि मोर सुभाउ बरोरू। मनु तव आनन चंद चकोरू॥
प्रिया प्रान सुत सरबसु मोरें। परिजन प्रजा सकल बस तोरें॥
जौं कछु कहौ कपटु करि तोही। भामिनि राम सपथ सत मोही॥
बिहसि मागु मनभावति बाता। भूषन सजहि मनोहर गाता॥
घरी कुघरी समुझि जियँ देखू। बेगि प्रिया परिहरहि कुबेषू॥
दो0-यह सुनि मन गुनि सपथ बड़ि बिहसि उठी मतिमंद।
भूषन सजति बिलोकि मृगु मनहुँ किरातिनि फंद॥26॥

पुनि कह राउ सुह्रद जियँ जानी। प्रेम पुलकि मृदु मंजुल बानी॥
भामिनि भयउ तोर मनभावा। घर घर नगर अनंद बधावा॥
रामहि देउँ कालि जुबराजू। सजहि सुलोचनि मंगल साजू॥
दलकि उठेउ सुनि ह्रदउ कठोरू। जनु छुइ गयउ पाक बरतोरू॥
ऐसिउ पीर बिहसि तेहि गोई। चोर नारि जिमि प्रगटि न रोई॥
लखहिं न भूप कपट चतुराई। कोटि कुटिल मनि गुरू पढ़ाई॥
जद्यपि नीति निपुन नरनाहू। नारिचरित जलनिधि अवगाहू॥
कपट सनेहु बढ़ाइ बहोरी। बोली बिहसि नयन मुहु मोरी॥
दो0-मागु मागु पै कहहु पिय कबहुँ न देहु न लेहु।
देन कहेहु बरदान दुइ तेउ पावत संदेहु॥27॥

जानेउँ मरमु राउ हँसि कहई। तुम्हहि कोहाब परम प्रिय अहई॥
थाति राखि न मागिहु काऊ। बिसरि गयउ मोहि भोर सुभाऊ॥
झूठेहुँ हमहि दोषु जनि देहू। दुइ कै चारि मागि मकु लेहू॥
रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्रान जाहुँ बरु बचनु न जाई॥
नहिं असत्य सम पातक पुंजा। गिरि सम होहिं कि कोटिक गुंजा॥
सत्यमूल सब सुकृत सुहाए। बेद पुरान बिदित मनु गाए॥
तेहि पर राम सपथ करि आई। सुकृत सनेह अवधि रघुराई॥
बात दृढ़ाइ कुमति हँसि बोली। कुमत कुबिहग कुलह जनु खोली॥
दो0-भूप मनोरथ सुभग बनु सुख सुबिहंग समाजु।
भिल्लनि जिमि छाड़न चहति बचनु भयंकरु बाजु॥28॥

मासपारायण, तेरहवाँ विश्राम

सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का। देहु एक बर भरतहि टीका॥
मागउँ दूसर बर कर जोरी। पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी॥
तापस बेष बिसेषि उदासी। चौदह बरिस रामु बनबासी॥
सुनि मृदु बचन भूप हियँ सोकू। ससि कर छुअत बिकल जिमि कोकू॥
गयउ सहमि नहिं कछु कहि आवा। जनु सचान बन झपटेउ लावा॥
बिबरन भयउ निपट नरपालू। दामिनि हनेउ मनहुँ तरु तालू॥
माथे हाथ मूदि दोउ लोचन। तनु धरि सोचु लाग जनु सोचन॥
मोर मनोरथु सुरतरु फूला। फरत करिनि जिमि हतेउ समूला॥
अवध उजारि कीन्हि कैकेईं। दीन्हसि अचल बिपति कै नेईं॥
दो0-कवनें अवसर का भयउ गयउँ नारि बिस्वास।
जोग सिद्धि फल समय जिमि जतिहि अबिद्या नास॥29॥

एहि बिधि राउ मनहिं मन झाँखा। देखि कुभाँति कुमति मन माखा॥
भरतु कि राउर पूत न होहीं। आनेहु मोल बेसाहि कि मोही॥
जो सुनि सरु अस लाग तुम्हारें। काहे न बोलहु बचनु सँभारे॥
देहु उतरु अनु करहु कि नाहीं। सत्यसंध तुम्ह रघुकुल माहीं॥
देन कहेहु अब जनि बरु देहू। तजहुँ सत्य जग अपजसु लेहू॥
सत्य सराहि कहेहु बरु देना। जानेहु लेइहि मागि चबेना॥
सिबि दधीचि बलि जो कछु भाषा। तनु धनु तजेउ बचन पनु राखा॥
अति कटु बचन कहति कैकेई। मानहुँ लोन जरे पर देई॥
दो0-धरम धुरंधर धीर धरि नयन उघारे रायँ।
सिरु धुनि लीन्हि उसास असि मारेसि मोहि कुठायँ॥30॥

आगें दीखि जरत रिस भारी। मनहुँ रोष तरवारि उघारी॥
मूठि कुबुद्धि धार निठुराई। धरी कूबरीं सान बनाई॥
लखी महीप कराल कठोरा। सत्य कि जीवनु लेइहि मोरा॥
बोले राउ कठिन करि छाती। बानी सबिनय तासु सोहाती॥
प्रिया बचन कस कहसि कुभाँती। भीर प्रतीति प्रीति करि हाँती॥
मोरें भरतु रामु दुइ आँखी। सत्य कहउँ करि संकरू साखी॥
अवसि दूतु मैं पठइब प्राता। ऐहहिं बेगि सुनत दोउ भ्राता॥
सुदिन सोधि सबु साजु सजाई। देउँ भरत कहुँ राजु बजाई॥
दो0- लोभु न रामहि राजु कर बहुत भरत पर प्रीति।
मैं बड़ छोट बिचारि जियँ करत रहेउँ नृपनीति॥31॥

राम सपथ सत कहुउँ सुभाऊ। राममातु कछु कहेउ न काऊ॥
मैं सबु कीन्ह तोहि बिनु पूँछें। तेहि तें परेउ मनोरथु छूछें॥
रिस परिहरू अब मंगल साजू। कछु दिन गएँ भरत जुबराजू॥
एकहि बात मोहि दुखु लागा। बर दूसर असमंजस मागा॥
अजहुँ हृदय जरत तेहि आँचा। रिस परिहास कि साँचेहुँ साँचा॥
कहु तजि रोषु राम अपराधू। सबु कोउ कहइ रामु सुठि साधू॥
तुहूँ सराहसि करसि सनेहू। अब सुनि मोहि भयउ संदेहू॥
जासु सुभाउ अरिहि अनुकूला। सो किमि करिहि मातु प्रतिकूला॥
दो0- प्रिया हास रिस परिहरहि मागु बिचारि बिबेकु।
जेहिं देखाँ अब नयन भरि भरत राज अभिषेकु॥32॥

जिऐ मीन बरू बारि बिहीना। मनि बिनु फनिकु जिऐ दुख दीना॥
कहउँ सुभाउ न छलु मन माहीं। जीवनु मोर राम बिनु नाहीं॥
समुझि देखु जियँ प्रिया प्रबीना। जीवनु राम दरस आधीना॥
सुनि म्रदु बचन कुमति अति जरई। मनहुँ अनल आहुति घृत परई॥
कहइ करहु किन कोटि उपाया। इहाँ न लागिहि राउरि माया॥
देहु कि लेहु अजसु करि नाहीं। मोहि न बहुत प्रपंच सोहाहीं।
रामु साधु तुम्ह साधु सयाने। राममातु भलि सब पहिचाने॥
जस कौसिलाँ मोर भल ताका। तस फलु उन्हहि देउँ करि साका॥
दो0-होत प्रात मुनिबेष धरि जौं न रामु बन जाहिं।
मोर मरनु राउर अजस नृप समुझिअ मन माहिं॥33॥

अस कहि कुटिल भई उठि ठाढ़ी। मानहुँ रोष तरंगिनि बाढ़ी॥
पाप पहार प्रगट भइ सोई। भरी क्रोध जल जाइ न जोई॥
दोउ बर कूल कठिन हठ धारा। भवँर कूबरी बचन प्रचारा॥
ढाहत भूपरूप तरु मूला। चली बिपति बारिधि अनुकूला॥
लखी नरेस बात फुरि साँची। तिय मिस मीचु सीस पर नाची॥
गहि पद बिनय कीन्ह बैठारी। जनि दिनकर कुल होसि कुठारी॥
मागु माथ अबहीं देउँ तोही। राम बिरहँ जनि मारसि मोही॥
राखु राम कहुँ जेहि तेहि भाँती। नाहिं त जरिहि जनम भरि छाती॥
दो0-देखी ब्याधि असाध नृपु परेउ धरनि धुनि माथ।
कहत परम आरत बचन राम राम रघुनाथ॥34॥

ब्याकुल राउ सिथिल सब गाता। करिनि कलपतरु मनहुँ निपाता॥
कंठु सूख मुख आव न बानी। जनु पाठीनु दीन बिनु पानी॥
पुनि कह कटु कठोर कैकेई। मनहुँ घाय महुँ माहुर देई॥
जौं अंतहुँ अस करतबु रहेऊ। मागु मागु तुम्ह केहिं बल कहेऊ॥
दुइ कि होइ एक समय भुआला। हँसब ठठाइ फुलाउब गाला॥
दानि कहाउब अरु कृपनाई। होइ कि खेम कुसल रौताई॥
छाड़हु बचनु कि धीरजु धरहू। जनि अबला जिमि करुना करहू॥
तनु तिय तनय धामु धनु धरनी। सत्यसंध कहुँ तृन सम बरनी॥
दो0-मरम बचन सुनि राउ कह कहु कछु दोषु न तोर।
लागेउ तोहि पिसाच जिमि कालु कहावत मोर॥35॥

चहत न भरत भूपतहि भोरें। बिधि बस कुमति बसी जिय तोरें॥
सो सबु मोर पाप परिनामू। भयउ कुठाहर जेहिं बिधि बामू॥
सुबस बसिहि फिरि अवध सुहाई। सब गुन धाम राम प्रभुताई॥
करिहहिं भाइ सकल सेवकाई। होइहि तिहुँ पुर राम बड़ाई॥
तोर कलंकु मोर पछिताऊ। मुएहुँ न मिटहि न जाइहि काऊ॥
अब तोहि नीक लाग करु सोई। लोचन ओट बैठु मुहु गोई॥
जब लगि जिऔं कहउँ कर जोरी। तब लगि जनि कछु कहसि बहोरी॥
फिरि पछितैहसि अंत अभागी। मारसि गाइ नहारु लागी॥
दो0-परेउ राउ कहि कोटि बिधि काहे करसि निदानु।
कपट सयानि न कहति कछु जागति मनहुँ मसानु॥36॥

राम राम रट बिकल भुआलू। जनु बिनु पंख बिहंग बेहालू॥
हृदयँ मनाव भोरु जनि होई। रामहि जाइ कहै जनि कोई॥
उदउ करहु जनि रबि रघुकुल गुर। अवध बिलोकि सूल होइहि उर॥
भूप प्रीति कैकइ कठिनाई। उभय अवधि बिधि रची बनाई॥
बिलपत नृपहि भयउ भिनुसारा। बीना बेनु संख धुनि द्वारा॥
पढ़हिं भाट गुन गावहिं गायक। सुनत नृपहि जनु लागहिं सायक॥
मंगल सकल सोहाहिं न कैसें। सहगामिनिहि बिभूषन जैसें॥
तेहिं निसि नीद परी नहि काहू। राम दरस लालसा उछाहू॥
दो0-द्वार भीर सेवक सचिव कहहिं उदित रबि देखि।
जागेउ अजहुँ न अवधपति कारनु कवनु बिसेषि॥37॥

पछिले पहर भूपु नित जागा। आजु हमहि बड़ अचरजु लागा॥
जाहु सुमंत्र जगावहु जाई। कीजिअ काजु रजायसु पाई॥
गए सुमंत्रु तब राउर माही। देखि भयावन जात डेराहीं॥
धाइ खाइ जनु जाइ न हेरा। मानहुँ बिपति बिषाद बसेरा॥
पूछें कोउ न ऊतरु देई। गए जेंहिं भवन भूप कैकैई॥
कहि जयजीव बैठ सिरु नाई। दैखि भूप गति गयउ सुखाई॥
सोच बिकल बिबरन महि परेऊ। मानहुँ कमल मूलु परिहरेऊ॥
सचिउ सभीत सकइ नहिं पूँछी। बोली असुभ भरी सुभ छूछी॥
दो0-परी न राजहि नीद निसि हेतु जान जगदीसु।
रामु रामु रटि भोरु किय कहइ न मरमु महीसु॥38॥

आनहु रामहि बेगि बोलाई। समाचार तब पूँछेहु आई॥
चलेउ सुमंत्र राय रूख जानी। लखी कुचालि कीन्हि कछु रानी॥
सोच बिकल मग परइ न पाऊ। रामहि बोलि कहिहि का राऊ॥
उर धरि धीरजु गयउ दुआरें। पूछँहिं सकल देखि मनु मारें॥
समाधानु करि सो सबही का। गयउ जहाँ दिनकर कुल टीका॥
रामु सुमंत्रहि आवत देखा। आदरु कीन्ह पिता सम लेखा॥
निरखि बदनु कहि भूप रजाई। रघुकुलदीपहि चलेउ लेवाई॥
रामु कुभाँति सचिव सँग जाहीं। देखि लोग जहँ तहँ बिलखाहीं॥
दो0-जाइ दीख रघुबंसमनि नरपति निपट कुसाजु॥
सहमि परेउ लखि सिंघिनिहि मनहुँ बृद्ध गजराजु॥39॥

सूखहिं अधर जरइ सबु अंगू। मनहुँ दीन मनिहीन भुअंगू॥
सरुष समीप दीखि कैकेई। मानहुँ मीचु घरी गनि लेई॥
करुनामय मृदु राम सुभाऊ। प्रथम दीख दुखु सुना न काऊ॥
तदपि धीर धरि समउ बिचारी। पूँछी मधुर बचन महतारी॥
मोहि कहु मातु तात दुख कारन। करिअ जतन जेहिं होइ निवारन॥
सुनहु राम सबु कारन एहू। राजहि तुम पर बहुत सनेहू॥
देन कहेन्हि मोहि दुइ बरदाना। मागेउँ जो कछु मोहि सोहाना।
सो सुनि भयउ भूप उर सोचू। छाड़ि न सकहिं तुम्हार सँकोचू॥
दो0-सुत सनेह इत बचनु उत संकट परेउ नरेसु।
सकहु न आयसु धरहु सिर मेटहु कठिन कलेसु॥40॥

निधरक बैठि कहइ कटु बानी। सुनत कठिनता अति अकुलानी॥
जीभ कमान बचन सर नाना। मनहुँ महिप मृदु लच्छ समाना॥
जनु कठोरपनु धरें सरीरू। सिखइ धनुषबिद्या बर बीरू॥
सब प्रसंगु रघुपतिहि सुनाई। बैठि मनहुँ तनु धरि निठुराई॥
मन मुसकाइ भानुकुल भानु। रामु सहज आनंद निधानू॥
बोले बचन बिगत सब दूषन। मृदु मंजुल जनु बाग बिभूषन॥
सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी॥
तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा॥
दो0-मुनिगन मिलनु बिसेषि बन सबहि भाँति हित मोर।
तेहि महँ पितु आयसु बहुरि संमत जननी तोर॥41॥

भरत प्रानप्रिय पावहिं राजू। बिधि सब बिधि मोहि सनमुख आजु।
जों न जाउँ बन ऐसेहु काजा। प्रथम गनिअ मोहि मूढ़ समाजा॥
सेवहिं अरँडु कलपतरु त्यागी। परिहरि अमृत लेहिं बिषु मागी॥
तेउ न पाइ अस समउ चुकाहीं। देखु बिचारि मातु मन माहीं॥
अंब एक दुखु मोहि बिसेषी। निपट बिकल नरनायकु देखी॥
थोरिहिं बात पितहि दुख भारी। होति प्रतीति न मोहि महतारी॥
राउ धीर गुन उदधि अगाधू। भा मोहि ते कछु बड़ अपराधू॥
जातें मोहि न कहत कछु राऊ। मोरि सपथ तोहि कहु सतिभाऊ॥
दो0-सहज सरल रघुबर बचन कुमति कुटिल करि जान।
चलइ जोंक जल बक्रगति जद्यपि सलिलु समान॥42॥

रहसी रानि राम रुख पाई। बोली कपट सनेहु जनाई॥
सपथ तुम्हार भरत कै आना। हेतु न दूसर मै कछु जाना॥
तुम्ह अपराध जोगु नहिं ताता। जननी जनक बंधु सुखदाता॥
राम सत्य सबु जो कछु कहहू। तुम्ह पितु मातु बचन रत अहहू॥
पितहि बुझाइ कहहु बलि सोई। चौथेंपन जेहिं अजसु न होई॥
तुम्ह सम सुअन सुकृत जेहिं दीन्हे। उचित न तासु निरादरु कीन्हे॥
लागहिं कुमुख बचन सुभ कैसे। मगहँ गयादिक तीरथ जैसे॥
रामहि मातु बचन सब भाए। जिमि सुरसरि गत सलिल सुहाए॥
दो0-गइ मुरुछा रामहि सुमिरि नृप फिरि करवट लीन्ह।
सचिव राम आगमन कहि बिनय समय सम कीन्ह॥43॥

अवनिप अकनि रामु पगु धारे। धरि धीरजु तब नयन उघारे॥
सचिवँ सँभारि राउ बैठारे। चरन परत नृप रामु निहारे॥
लिए सनेह बिकल उर लाई। गै मनि मनहुँ फनिक फिरि पाई॥
रामहि चितइ रहेउ नरनाहू। चला बिलोचन बारि प्रबाहू॥
सोक बिबस कछु कहै न पारा। हृदयँ लगावत बारहिं बारा॥
बिधिहि मनाव राउ मन माहीं। जेहिं रघुनाथ न कानन जाहीं॥
सुमिरि महेसहि कहइ निहोरी। बिनती सुनहु सदासिव मोरी॥
आसुतोष तुम्ह अवढर दानी। आरति हरहु दीन जनु जानी॥
दो0-तुम्ह प्रेरक सब के हृदयँ सो मति रामहि देहु।
बचनु मोर तजि रहहि घर परिहरि सीलु सनेहु॥44॥

अजसु होउ जग सुजसु नसाऊ। नरक परौ बरु सुरपुरु जाऊ॥
सब दुख दुसह सहावहु मोही। लोचन ओट रामु जनि होंही॥
अस मन गुनइ राउ नहिं बोला। पीपर पात सरिस मनु डोला॥
रघुपति पितहि प्रेमबस जानी। पुनि कछु कहिहि मातु अनुमानी॥
देस काल अवसर अनुसारी। बोले बचन बिनीत बिचारी॥
तात कहउँ कछु करउँ ढिठाई। अनुचितु छमब जानि लरिकाई॥
अति लघु बात लागि दुखु पावा। काहुँ न मोहि कहि प्रथम जनावा॥
देखि गोसाइँहि पूँछिउँ माता। सुनि प्रसंगु भए सीतल गाता॥
दो0-मंगल समय सनेह बस सोच परिहरिअ तात।
आयसु देइअ हरषि हियँ कहि पुलके प्रभु गात॥45॥

धन्य जनमु जगतीतल तासू। पितहि प्रमोदु चरित सुनि जासू॥
चारि पदारथ करतल ताकें। प्रिय पितु मातु प्रान सम जाकें॥
आयसु पालि जनम फलु पाई। ऐहउँ बेगिहिं होउ रजाई॥
बिदा मातु सन आवउँ मागी। चलिहउँ बनहि बहुरि पग लागी॥
अस कहि राम गवनु तब कीन्हा। भूप सोक बसु उतरु न दीन्हा॥
नगर ब्यापि गइ बात सुतीछी। छुअत चढ़ी जनु सब तन बीछी॥
सुनि भए बिकल सकल नर नारी। बेलि बिटप जिमि देखि दवारी॥
जो जहँ सुनइ धुनइ सिरु सोई। बड़ बिषादु नहिं धीरजु होई॥
दो0-मुख सुखाहिं लोचन स्त्रवहि सोकु न हृदयँ समाइ।
मनहुँ ०करुन रस कटकई उतरी अवध बजाइ॥46॥

मिलेहि माझ बिधि बात बेगारी। जहँ तहँ देहिं कैकेइहि गारी॥
एहि पापिनिहि बूझि का परेऊ। छाइ भवन पर पावकु धरेऊ॥
निज कर नयन काढ़ि चह दीखा। डारि सुधा बिषु चाहत चीखा॥
कुटिल कठोर कुबुद्धि अभागी। भइ रघुबंस बेनु बन आगी॥
पालव बैठि पेड़ु एहिं काटा। सुख महुँ सोक ठाटु धरि ठाटा॥
सदा रामु एहि प्रान समाना। कारन कवन कुटिलपनु ठाना॥
सत्य कहहिं कबि नारि सुभाऊ। सब बिधि अगहु अगाध दुराऊ॥
निज प्रतिबिंबु बरुकु गहि जाई। जानि न जाइ नारि गति भाई॥
दो0-काह न पावकु जारि सक का न समुद्र समाइ।
का न करै अबला प्रबल केहि जग कालु न खाइ॥47॥

का सुनाइ बिधि काह सुनावा। का देखाइ चह काह देखावा॥
एक कहहिं भल भूप न कीन्हा। बरु बिचारि नहिं कुमतिहि दीन्हा॥
जो हठि भयउ सकल दुख भाजनु। अबला बिबस ग्यानु गुनु गा जनु॥
एक धरम परमिति पहिचाने। नृपहि दोसु नहिं देहिं सयाने॥
सिबि दधीचि हरिचंद कहानी। एक एक सन कहहिं बखानी॥
एक भरत कर संमत कहहीं। एक उदास भायँ सुनि रहहीं॥
कान मूदि कर रद गहि जीहा। एक कहहिं यह बात अलीहा॥
सुकृत जाहिं अस कहत तुम्हारे। रामु भरत कहुँ प्रानपिआरे॥
दो0-चंदु चवै बरु अनल कन सुधा होइ बिषतूल।
सपनेहुँ कबहुँ न करहिं किछु भरतु राम प्रतिकूल॥48॥

एक बिधातहिं दूषनु देंहीं। सुधा देखाइ दीन्ह बिषु जेहीं॥
खरभरु नगर सोचु सब काहू। दुसह दाहु उर मिटा उछाहू॥
बिप्रबधू कुलमान्य जठेरी। जे प्रिय परम कैकेई केरी॥
लगीं देन सिख सीलु सराही। बचन बानसम लागहिं ताही॥
भरतु न मोहि प्रिय राम समाना। सदा कहहु यहु सबु जगु जाना॥
करहु राम पर सहज सनेहू। केहिं अपराध आजु बनु देहू॥
कबहुँ न कियहु सवति आरेसू। प्रीति प्रतीति जान सबु देसू॥
कौसल्याँ अब काह बिगारा। तुम्ह जेहि लागि बज्र पुर पारा॥
दो0-सीय कि पिय सँगु परिहरिहि लखनु कि रहिहहिं धाम।
राजु कि भूँजब भरत पुर नृपु कि जिइहि बिनु राम॥49॥

अस बिचारि उर छाड़हु कोहू। सोक कलंक कोठि जनि होहू॥
भरतहि अवसि देहु जुबराजू। कानन काह राम कर काजू॥
नाहिन रामु राज के भूखे। धरम धुरीन बिषय रस रूखे॥
गुर गृह बसहुँ रामु तजि गेहू। नृप सन अस बरु दूसर लेहू॥
जौं नहिं लगिहहु कहें हमारे। नहिं लागिहि कछु हाथ तुम्हारे॥
जौं परिहास कीन्हि कछु होई। तौ कहि प्रगट जनावहु सोई॥
राम सरिस सुत कानन जोगू। काह कहिहि सुनि तुम्ह कहुँ लोगू॥
उठहु बेगि सोइ करहु उपाई। जेहि बिधि सोकु कलंकु नसाई॥
छं0-जेहि भाँति सोकु कलंकु जाइ उपाय करि कुल पालही।
हठि फेरु रामहि जात बन जनि बात दूसरि चालही॥
जिमि भानु बिनु दिनु प्रान बिनु तनु चंद बिनु जिमि जामिनी।
तिमि अवध तुलसीदास प्रभु बिनु समुझि धौं जियँ भामिनी॥
सो0-सखिन्ह सिखावनु दीन्ह सुनत मधुर परिनाम हित।
तेइँ कछु कान न कीन्ह कुटिल प्रबोधी कूबरी॥50॥