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नाथ ! तुम कब से हुए विरागी?
कब से टेक दया की छूटी , यह असंगता जागी?
जग की चिंता से मुँह मोड़ा
दीनबंधु कहलाना छोड़ा
कब से सूत्र भक्ति का तोड़ा करुणा, ममता, त्यागी ?
माना मुझे न सद्गुण भाये
दोष न मेरे जायँ गिनाये
जो अपमान-व्यंग-शर खाये था उनका ही भागी
याद करो पर निज प्रण भारी
क्या न क्षमा का हूँ अधिकारी!
मैंने सब कुछ छोड़, तुम्हारी पदरज ही, प्रभु! माँगी
नाथ ! तुम कब से हुए विरागी?
कब से टेक दया की छूटी , यह असंगता जागी?