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इस उड़ती हुई पहाड़ी तलहटी में ही तो
वह नदी बहती थी,
जिसके तीर पर हवामहल में
एक राजकुमारी रहती थी
अपने लम्बे, घने बालों में कनेर के फूल खोंसे
उसीने तो मुझे पुकारा था,
और मैं भी तो दिन भर का थका-हारा था,
उसकी पलकों की छाया में
रुकता कैसे नहीं भला!
परन्तु अब तो यहाँ नदी भी नहीं, महल भी नहीं,
राजकुमारी भी नहीं;
मैंने कोई सपने तो नहीं देखा था!