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|सारणी=कठोपनिषद / मृदुल कीर्ति
}}
 
<span class="upnishad_mantra">
अन्यच्छेयोऽन्यदुतैव प्रेयस्ते उभे नानार्भे पुरुषं सिनीतः।<br>
तयोः श्रेय आददानस्य साधु भवति हीयतेऽर्थाद्य उ प्रेयो वृणीते ॥१॥ <br>
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श्रेय कल्याणक अलौकिक, परे सुख संसार है,<br>
श्रेय नित्य है सौख्य सिंधु, प्रेम दुःख व्यापार है॥ [ १ ]<br><br>
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::श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ सम्परीत्य विविनक्ति धीरः।<br>
::श्रेयो हि धीरोऽभिप्रेयसो वृणीते प्रेयो मन्दो योगक्षेमाद् वृणीते ॥२॥<br>
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<span class="mantra_translation">
::अति धीर ज्ञानी प्रेय श्रेय के रूप का चिंतन करें,<br>::दोनों का अन्तर समझ कर ही श्रेय का साधन करें।<br>::मंद बुद्धि मनुष्य भौतिक, योगक्षेम में लींन हैं,<br>::तत्व ज्ञानी नीर क्षीर विवेक प्रभु तल्लीन हैं॥ [ २ ]<br><br></span> <span class="upnishad_mantra">स त्वं प्रियान् प्रियरूपांश्च कामानभिध्यायन्नचिकेतोऽत्यस्त्राक्षीः।<br>नैतां सृडकां वित्तमयीमवाप्तो यस्यां मज्जन्ति बहवो मनुष्याः ॥३॥<br>
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धन लोभ में तो विश्व के जन बद्ध, पर तुम मुक्त हो<br>
नचिकेता अधिकारी तुम्हीं, शुचि दिव्य निःस्पृह भक्त हो॥ [ ३ ]<br><br>
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::दूरमेते विपरीत विषूची अविद्या या च विद्येति ज्ञाता।<br>
::विद्याभीप्सितं नचिकेतसं मन्ये न त्वा कामा बहवोऽलोलुपन्त ॥४॥<br>
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::विख्यात दो साधन प्रमुख, विद्या - अविद्या नाम से,<br>::एक भोगों से सलग, और एक प्रेरित ज्ञान से।<br>::नचिकेता प्रिय विद्या का में, अभिलाषी तुमको मानता,<br>::अविचल तितिक्षामय विवेकी, आत्मज्ञान प्रधानता॥ [ ४ ]<br><br></span> <span class="upnishad_mantra">अविद्यायामन्तरे वर्तमानः स्वयं धीराः पण्डितम्मन्यमानाः।<br>दन्द्रम्यमाणाः परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः ॥५॥<br>
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अंधे को अंधा मार्ग दर्शक , ठीक गति उनकी वही,<br>
बहु योनियों की दुखद भटकन, लक्ष्य क्या मिलता कहीं॥ [ ५ ]<br><br>
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::न साम्परायः प्रतिभाति बालं प्रमाद्यन्तं वित्तमोहेन मूढम्।<br>
::अयं लोको नास्ति पर इति मानी पुनः पुनर्वशमापद्यते मे ।। ६।।<br>
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<span class="mantra_translation">
::भौतिक प्रमादी मूढ़ जो, धन मोह में मदमत्त हैं,<br>::परलोक की चिंता नहीं, अदृश्य उनको सत्य हैं।<br>::भौतिक क्षणिक सुख मान शाश्वत, भ्रमित हो हँसते रहे,<br>::पुनरपि जनम और मरण के, दुष्चक्र में फँसते रहे॥ [ ६ ]<br><br></span> <span class="upnishad_mantra">श्रवणायापि बहुरभिर्यो न लक्ष्यः श्रृण्वन्तोपि बहवो यं न विद्युः।<br>आश्चर्यो वक्ता कुशलोस्य लब्धाश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टः ।। ७ ।।<br>
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