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"कतरा भर धूप (कविता) / अनुभूति गुप्ता" के अवतरणों में अंतर

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दरख़्त की  
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मेरे हिस्से की
शुष्क शाखाओं से
+
कतरा भर धूप
बेसुध-बेबस
+
वो भी
लटकी रहती हैं
+
मित्र छीन ले गया
बूढ़ी दादी,
+
आत्मीय सहयात्री
इस उम्मीद में
+
हितैषी मेरा था
कि
+
जो पहले
कोई तो एक प्रहर
+
धूर्त अकुलीन हो गया
वहाँ से गुजरेगा,
+
उनको देखकर
+
पसीजेगा।
+
हाथ बढ़ाकर
+
तन्हाई की कील से
+
नीचे उतारेगा।
+
  
आँगन के  
+
समन्दर के किनारे पर
बासी अँधेरे कोने में
+
खड़ी मैं
गुमसुम तन्हा
+
विक्षोभित लहरों को
अटकी रहती हैं
+
मायूसी से देखती हूँ
बूढ़ी दादी,
+
और सोच में
इस उम्मीद में
+
पड़ जाती हूँ मैं
कि
+
कोई तो एक प्रहर
+
उन्हें अपने हाथों से  
+
स्नेह की रोटी परोसेगा
+
  आदर से पुकारेगा।
+
बड़े चाव से
+
खाना वह खाएगी
+
और, सुकून भरी
+
मीठी नींद ले पायेंगी।
+
  
बूढ़ी दादी का मन
+
कि:
व्यथित था-
+
सफलता के शिखर पर
देखकर अपनों का दोगलापन
+
पहुँची तो सही
अपने बच्चों का सौतेलापन,
+
पर
बच्चों ने
+
इतनी ऊँचाई से मकान में
सारी संपत्ति छीनकर
+
रहने वालों के दिल भी
सड़कों पर भटकने को
+
दरिद्र हो गये
छोड़ दिया,
+
अपनों ने उनसे
+
मुँह मोड़ लिया।
+
  
हजार अटकलें आयीं
+
रिश्तों का मर्म समझना
मगर....
+
वाक़ई आसान काम नहीं
ऐसा दिन कभी नहीं आया
+
स्नेह-नेत्रों में विश्वास नहीं
वह तूफानों से जूझती रहीं
+
सन्धि की कोई आस नहीं
बस न खोया, न कुछ पाया।
+
मेरे ही अन्तःस्थित संवेदन
 
+
मुझपर ही
दिन-प्रतिदिन,
+
गरजते हैं
नैराश्य के कुहासे से घिरती गयी।
+
बरसते हैं
सूख चुका था,
+
कड़कते हैं
उनकी आँखों का पानी।
+
कहते हैं कि,
    फिर उस दिन...
+
अब यह...मित्र
बगीचे में,
+
मौलिक रूप से
एक अनाथ लड़की ने
+
तुम्हारे होकर भी  
बूढ़ी दादी को
+
तुम्हारे नहीं।
’दादी जी’ कहकर पुकारा,  
+
बूढ़ी दादी ने भी
+
लड़की को प्यार से दुलारा।
+
   
+
  एक वही सुबह...
+
जीवन में
+
उजियारा लेकर आयी थी,
+
बूढ़ी दादी का मन हर्षाया
+
चलो-
+
किसी ने तो ’दादी जी’ बुलाया।
+
कम से कम जीते जी
+
’दादी जी’ तो कहलायी।
+
बिना एक क्षण गँवाये
+
बूढ़ी दादी ने लड़की का हाथ
+
ममता से थाम लिया
+
पति के
+
स्वर्ग सिधारने के बाद
+
अपने बच्चों के
+
दुत्कारने के बाद
+
 
+
आखिर में-
+
बूढ़ी दादी को भी,
+
एक रिश्ता
+
अपनेपन का मिला,
+
जिसने सूनेपन की
+
उधड़ी चादर को
+
अधिकारों से सिला।
+
 
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16:57, 2 मई 2017 के समय का अवतरण

मेरे हिस्से की
कतरा भर धूप
वो भी
मित्र छीन ले गया
आत्मीय सहयात्री
हितैषी मेरा था
जो पहले
धूर्त अकुलीन हो गया

समन्दर के किनारे पर
खड़ी मैं
विक्षोभित लहरों को
मायूसी से देखती हूँ
और सोच में
पड़ जाती हूँ मैं

कि:
सफलता के शिखर पर
पहुँची तो सही
पर
इतनी ऊँचाई से मकान में
रहने वालों के दिल भी
दरिद्र हो गये

रिश्तों का मर्म समझना
वाक़ई आसान काम नहीं
स्नेह-नेत्रों में विश्वास नहीं
सन्धि की कोई आस नहीं
मेरे ही अन्तःस्थित संवेदन
मुझपर ही
गरजते हैं
बरसते हैं
कड़कते हैं
कहते हैं कि,
अब यह...मित्र
मौलिक रूप से
तुम्हारे होकर भी
तुम्हारे नहीं।