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"होली रोॅ आसरा / नवीन ठाकुर 'संधि'" के अवतरणों में अंतर

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जहाँ नै जाय पारैॅ छै रवि,
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आबी गेलै उमड़लोॅ महिना होली
वहाँ जाय छै कवि।
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खुलेॅ लागलै देखोॅ सब्भै रोॅ बोली।
  
सोची समझी केॅ देखै छै,
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कत्तेॅ हम्में आसरा देखबो,ॅ कत्तें हम्में सहबो,ॅ
जानी बुझी केॅ लिखै छै।
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आबै छै अंगड़ाई केकरा हम्में कहबोॅ।
  
असंभवोॅ केॅ संभव बनाय छै,
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आँखी में नीन कहाँ, सपना देखैं छीं सांझै विहान,
संभवोॅ केॅ असंभव बनाय छै।
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आँखी में घूरी-घूरी नाँचै छै, आबै रोॅ नै ठिकान।
  
सब्भे कामोॅ के करै छै पैरबी
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अगलोॅ-बगलोॅ रोॅ सब्भै करै छै ठिठोली,
जहाँ नै जाय पारैॅ छै रवि।
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आबी गेलै उमड़लोॅ महिना होली।
  
पैसा नें आपनोॅ-पराया केॅ भूलाय छै,
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लागै छै डाक तार सब्भे होय गेलै बोॅन,
प्यार मोहब्बतें नें सब्भै केॅ घुमाय छै।
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याद करी केॅ मोबाइलोॅ सें करोॅ फोन।
  
पानी सें तेॅ सब्भें प्यास बुझाय छै,
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वाँही तोहें रंगों में रंगै छो,ॅ बुझै छीं तोरोॅ मोंन,
ओस चाटी केॅ जैसें संतोश बुलाय छै।
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लागै छै तोरा सें कोय छिनै छै हमरोॅ धोॅन।
  
जहाँ नै जाय पारैॅ छै रवि,
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रोज हँसी उड़ाय छै यहाँ हमरी सहेली,
वहाँ जाय छै कवि।
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आबी गेलै उमड़लोॅ महिना होली।
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हरदम खनकै छै चूड़ी आरो पायल,
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तरसाय केॅ जवानी में बनाय छोॅ घायल।
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खोजै छौं ऑखि रोॅ काजरें आरो कानोॅ रोॅ बाली,
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आयतौं पाहून ‘‘संधि’’ खेलतोॅ रंग घोली-घोली।
 
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15:50, 27 मई 2017 के समय का अवतरण

आबी गेलै उमड़लोॅ महिना होली
खुलेॅ लागलै देखोॅ सब्भै रोॅ बोली।

कत्तेॅ हम्में आसरा देखबो,ॅ कत्तें हम्में सहबो,ॅ
आबै छै अंगड़ाई केकरा हम्में कहबोॅ।

आँखी में नीन कहाँ, सपना देखैं छीं सांझै विहान,
आँखी में घूरी-घूरी नाँचै छै, आबै रोॅ नै ठिकान।

अगलोॅ-बगलोॅ रोॅ सब्भै करै छै ठिठोली,
आबी गेलै उमड़लोॅ महिना होली।

लागै छै डाक तार सब्भे होय गेलै बोॅन,
याद करी केॅ मोबाइलोॅ सें करोॅ फोन।

वाँही तोहें रंगों में रंगै छो,ॅ बुझै छीं तोरोॅ मोंन,
लागै छै तोरा सें कोय छिनै छै हमरोॅ धोॅन।

रोज हँसी उड़ाय छै यहाँ हमरी सहेली,
आबी गेलै उमड़लोॅ महिना होली।

हरदम खनकै छै चूड़ी आरो पायल,
तरसाय केॅ जवानी में बनाय छोॅ घायल।

खोजै छौं ऑखि रोॅ काजरें आरो कानोॅ रोॅ बाली,
आयतौं पाहून ‘‘संधि’’ खेलतोॅ रंग घोली-घोली।