भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"रूप बदलकर एक टाँग पर खड़ा मगर है / डी. एम. मिश्र" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
पंक्ति 6: | पंक्ति 6: | ||
{{KKCatGhazal}} | {{KKCatGhazal}} | ||
<poem> | <poem> | ||
− | रूप बदलकर एक टाँग पर खड़ा मगर | + | रूप बदलकर एक टाँग पर खड़ा मगर है |
बगुले की तालाब पे लेकिन बुरी नज़र है। | बगुले की तालाब पे लेकिन बुरी नज़र है। | ||
− | मुँह में अपने आप निवाला आ जाता है | + | मुँह में अपने आप निवाला आ जाता है |
बड़ी सुरक्षित कुर्सी पर बैठा अजगर है। | बड़ी सुरक्षित कुर्सी पर बैठा अजगर है। | ||
− | अंधे राजा के सब पहरेदार सो गये | + | अंधे राजा के सब पहरेदार सो गये |
प्रजा सजग है धोखे में दरबार मगर है। | प्रजा सजग है धोखे में दरबार मगर है। | ||
− | गाँव छोड़कर अपना मैं यह कहाँ आ गया | + | गाँव छोड़कर अपना मैं यह कहाँ आ गया |
पुठपाथों पर जगह नहीं सम्पन्न शहर है। | पुठपाथों पर जगह नहीं सम्पन्न शहर है। | ||
− | मँहगाई की मार झेलता आम आदमी | + | मँहगाई की मार झेलता आम आदमी |
बड़े लोग तो खुश हैं उन पर कहाँ असर है। | बड़े लोग तो खुश हैं उन पर कहाँ असर है। | ||
</poem> | </poem> |
17:12, 23 अगस्त 2017 का अवतरण
रूप बदलकर एक टाँग पर खड़ा मगर है
बगुले की तालाब पे लेकिन बुरी नज़र है।
मुँह में अपने आप निवाला आ जाता है
बड़ी सुरक्षित कुर्सी पर बैठा अजगर है।
अंधे राजा के सब पहरेदार सो गये
प्रजा सजग है धोखे में दरबार मगर है।
गाँव छोड़कर अपना मैं यह कहाँ आ गया
पुठपाथों पर जगह नहीं सम्पन्न शहर है।
मँहगाई की मार झेलता आम आदमी
बड़े लोग तो खुश हैं उन पर कहाँ असर है।