भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"बड़े अज़ीब मकाँ उम्र भी दिखाती है / डी. एम. मिश्र" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
पंक्ति 19: | पंक्ति 19: | ||
कभी गुनाह लगे तो कभी सवाब लगे | कभी गुनाह लगे तो कभी सवाब लगे | ||
− | + | एक पानी पे नदी कौन ठहर पाती है। | |
</poem> | </poem> |
15:14, 24 अगस्त 2017 के समय का अवतरण
बड़े अज़ीब मकाँ उम्र भी दिखाती है
हज़ार आँसुओं से जिंदगी रूलाती है।
खड़े दरख़्त मगर घूमती हुई छाया
कभी करीब, कभी दूर-दूर जाती है।
कभी सफ़र न रूका साथ के लिए फिर भी
कभी उम्मीद, कभी दोस्ती रूलाती है।
सुबह से शाम तलक सिर्फ़ खेाजता फिरता
फिर भी मंजिल मेरी कहीं नज़र न आती है।
कभी गुनाह लगे तो कभी सवाब लगे
एक पानी पे नदी कौन ठहर पाती है।