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"तट का अधूरापन / अर्चना कुमारी" के अवतरणों में अंतर

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03:13, 27 अगस्त 2017 के समय का अवतरण

उफनाई नदी में पांव भिगोकर बैठना
घुटनों से लगकर प्रेम के
थामकर अराल ऊंगलियां
मौन का स्वस्तिवाचन होता है

अंजुरी में रिक्तियों के पुष्प सौंपना
कलाई में बांधना इच्छाओं का कलेवा
माथे पर टांक देना
आसयुक्त विश्वास का रक्तिम टीका
और बन जाना पूजा की थाल
प्रेम की निजता है

पैरों में महावर की चमक लेकर
दुल्हन के पाजेब का स्वर
विरह की गीत का आर्तनाद भी होती हैं
प्रेम की प्रतिŠवनियां गूंजती नहीं

विरहन रात बजती है
कानों में अनवरत...
दुखती नस दबाकर
कम होती पीड़ाएं दौड़ती हैं सरपट
रक्तवाहिनियों के अवरुद्ध होते ही

मस्तिष्क का गणित
अलग होता है मन के व्याकरण से
दोषयुक्त नहीं होता कभी प्रेम
और दंड विधान नियत है

अंतिम भेंट
जो शायद पहली हो
और प्रेम कहते ही
उफनाई नदी लेकर उतर जाए गहरे कहीं
तट पर रह जाएं सदियों तक
मेरे कदमों के निशान अधूरे।