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12:55, 21 जून 2008 का अवतरण
अपने ही परिवेश से अंजान है
कितना बेसुध आज का इन्सान है
हर डगर मिलते हैं बेचेहरा—से लोग
अपनी सूरत की किसे पहचान है
भावना को मौन का पहनाओ अर्थ
मन की कहने में बड़ा नुकसान है
चाँद पर शायद मिले ताज़ा हवा
क्योंकि आबादी यहाँ गुंजान है
कामनाओं के वनों में हिरण—सा
यह भटकता मन चलायेमान है
नाव मन की कौन —से तट पर थमे
हर तरफ़ यादों का इक तूफ़ान है
आओ चलकर जंगलों में जा बसें
शह्र की तो हर गली वीरान है
साँस का चलना ही जीवन तो नहीं
सोच बिन हर आदमी बेजान है
खून से ‘साग़र’! लिखेंगे हम ग़ज़ल
जान में जब तक हमारी जान है