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"लुत्फ़ सारा मुहब्बत का जाता रहा / सुभाष पाठक 'ज़िया'" के अवतरणों में अंतर
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लुत्फ़ सारा मुहब्बत का जाता रहा
मैं उसे वो मुझे आजमाता रहा
अपना ग़म तो वो हँसकर उठाता रहा
मेरा ख़ुश रहना उसको सताता रहा
टुकड़े टुकड़े बिखर तो गया आइना
सच दिखाया था सच ही दिखाता रहा
दुश्मनी थी अन्धेरों से उसकी मगर
रातभर दिल हमारा जलाता रहा
जीत में भी मज़ा जीत का था कहाँ
हारने वाला जब मुस्कुराता रहा