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12:59, 21 जून 2008 के समय का अवतरण
ख़िज़ाँ के दौर में हंगामा—ए—बहार थे हम
ख़ुलूस—ओ—प्यार के मौसम की यादगार थे हम
चमन को तोड़ने वाले ही आज कहते हैं
वो गुलनवाज़ हैं ग़ारतगर—ए—बहार थे हम
शजर से शाख़ थी तो फूल शाख़ से नालाँ
चमन के हाल—ए—परेशाँ पे सोगवार थे हम
हमें तो जीते —जी उसका कहीं निशाँ न मिला
वो सुब्ह जिसके लिए महव—ए—इंतज़ार थे हम
हुई न उनको ही जुर्रत कि आज़माते हमें
वग़र्ना जाँ से गुज़रने को भी तैयार थे हम
जो लुट गए सर—ए—महफ़िल तो क्या हुआ ‘साग़र’!
अज़ल से जुर्म—ए—वफ़ा के गुनाहगार थे हम