भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मसूरी की शाम / जया पाठक श्रीनिवासन" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जया पाठक श्रीनिवासन |अनुवादक= |सं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

00:09, 21 अक्टूबर 2017 के समय का अवतरण

विरह की है उदासी या
कि है यह प्रीत की कविता
जिसे इन पर्वतों की
चोटियों ने गुनगुनाया है
गगन का स्पर्श पा
धरती अचानक जी उठी सी है
की यह सूरज को जाता देख
नभ ने दुःख जताया है
सृजन की भोर है यह या
थकी सी शाम कहते हो
धरा की धडकनों में
पत्थरों के गीत सुनते हो?

मुझे लगता यहीं मिल जायेगा
आराध्य धरती को
जिसे बरसों से खोजा कर
रही थी वह समर्पित हो
प्रणय की वृष्टि के
सपने सजाये थरथराती वो
बनेगी वत्सला श्यामल पड़ी
बरसों से परती जो
चमकते बादलों को धुन
सुनहली सांझ रंगते हो
प्रणय की शाम में
इन पत्थरों के गीत सुनते हो?

(जून २००७, मसूरी)