"प्रथम अध्याय / तृतीय वल्ली / भाग १ / कठोपनिषद / मृदुल कीर्ति" के अवतरणों में अंतर
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+ | छायातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति पञ्चाग्नयो ये च त्रिणाचिकेताः ॥ १ ॥<br><br> | ||
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+ | यः सेतुरीजानानामक्षरं ब्रह्म यत् परम् ।<br> | ||
+ | अभयं तितीर्षतां पारं नाचिकेतँ शकेमहि ॥ २ ॥<br><br> | ||
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+ | आत्मानँ रथितं विद्धि शरीरँ रथमेव तु ।<br> | ||
+ | बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ॥ ३ ॥<br><br> | ||
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+ | इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयाँ स्तेषु गोचरान् ।<br> | ||
+ | आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ॥ ४ ॥<br><br> | ||
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+ | यस्त्वविज्ञानवान्भवत्ययुक्तेन मनसा सदा ।<br> | ||
+ | तस्येन्द्रियाण्यवश्यानि दुष्टाश्वा इव सारथेः ॥ ५ ॥<br><br> | ||
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+ | यस्तु विज्ञानवान्भवति युक्तेन मनसा सदा ।<br> | ||
+ | तस्येन्द्रियाणि वश्यानि सदश्वा इव सारथेः ॥ ६ ॥<br><br> | ||
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+ | यस्त्वविज्ञानवान्भवत्यमनस्कः सदाऽशुचिः ।<br> | ||
+ | न स तत्पदमाप्नोति संसारं चाधिगच्छति ॥ ७ ॥<br><br> | ||
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+ | यस्तु विज्ञानवान्भवति समनस्कः सदा शुचिः ।<br> | ||
+ | स तु तत्पदमाप्नोति यस्माद्भूयो न जायते ॥ ८ ॥<br><br> | ||
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+ | विज्ञानसारथिर्यस्तु मनः प्रग्रहवान्नरः ।<br> | ||
+ | सोऽध्वनः पारमाप्नोति तद्विष्णोः परमं पदम् ॥ ९ ॥<br><br> | ||
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+ | इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः ।<br> | ||
+ | मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान्परः ॥ १० ॥<br><br> | ||
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22:09, 5 जुलाई 2008 का अवतरण
ऋतं पिबन्तौ सुकृतस्य लोके गुहां प्रविष्टौ परमे परार्धे ।
छायातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति पञ्चाग्नयो ये च त्रिणाचिकेताः ॥ १ ॥
अति पुण्य कर्मों का उदय,मिलता मनुज का रूप है,
क्योंकि मनुज के हृदय बुद्धि में , ब्रह्म का प्रतिरूप है।
धूप और छायावत परस्पर, भिन्न भी है अभिन्न भी,
पन्चाग्निमय जो गृहस्थ, कहते सत्य यह अविछिन्न भी॥ [ १ ]
यः सेतुरीजानानामक्षरं ब्रह्म यत् परम् ।
अभयं तितीर्षतां पारं नाचिकेतँ शकेमहि ॥ २ ॥
- याज्ञादी और शुभ कर्म हम निष्काम भाव से सर्वदा,
- प्रभुवर करें सामर्थ्य वह, देना हमें हे वसुविदा।
- भाव सिंधु करने को पार इच्छुक को, जो पद भय रहित है,
- मिले ब्रह्म जब कि प्रार्थना की भावना सन्निहित है॥ [ २ ]
- याज्ञादी और शुभ कर्म हम निष्काम भाव से सर्वदा,
आत्मानँ रथितं विद्धि शरीरँ रथमेव तु ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ॥ ३ ॥
नचिकेता प्रिय जीवात्मा को, रथ का स्वामी मान लो,
एस पान्च्भौतिक देह को तुम रथ का स्वामी जान लो।
जीवात्मा स्वामी है रथ का, बुद्धि समझो सारथी,
रथ रथी और सारथी का मन नियंत्रक महारथी॥ [ ३ ]
इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयाँ स्तेषु गोचरान् ।
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ॥ ४ ॥
- सब इंद्रियों को ज्ञानियों ने, रूप अश्वों का कहा,
- विषयों में जग के विचरने का, मार्ग अति मोहक महा।
- मनचंचला और देह इन्द्रियों से युक्त है जीवात्मा,
- बहु भोग विषयों में लीन हो, भूला है वह परमात्मा॥ [ ४ ]
- सब इंद्रियों को ज्ञानियों ने, रूप अश्वों का कहा,
यस्त्वविज्ञानवान्भवत्ययुक्तेन मनसा सदा ।
तस्येन्द्रियाण्यवश्यानि दुष्टाश्वा इव सारथेः ॥ ५ ॥
मन वृत्तियाँ जिसकी हैं चंचल, वह विवेकी है नहीं,
हैं बुद्धि विषयक प्रवण पर वे, ब्रह्म पा सकते नहीं।
अति दुष्ट अश्वों की भांति, उनकी इन्द्रियों वश्हीं हैं,
वे लक्ष्य हीन भटकते, जिनका सारथी न प्रवीण है॥ [ ५ ]
यस्तु विज्ञानवान्भवति युक्तेन मनसा सदा ।
तस्येन्द्रियाणि वश्यानि सदश्वा इव सारथेः ॥ ६ ॥
- वश में हैं जिसकी इन्द्रियाँ, मन से वही संपन्न है,
- मन से ही लौकिक और भौतिक, लक्ष्य सब निष्पन्न हैं।
- अति कुशल सारथि की तरह से, इन्द्रियाँ जिसकी सदा,
- हो वश में जिसके वह विवेकी, दिव्य पाये संपदा॥ [ ६ ]
- वश में हैं जिसकी इन्द्रियाँ, मन से वही संपन्न है,
यस्त्वविज्ञानवान्भवत्यमनस्कः सदाऽशुचिः ।
न स तत्पदमाप्नोति संसारं चाधिगच्छति ॥ ७ ॥
जो विषय विष को मान अमृत, लिप्त उसमें ही रहें,
उनके असंयमित मन विकारी, लेश न सतगुन गहें।
उस परम पद को ऐसे प्राणी, पा नहीं सकते कभी,
पुनि पुनि जनम और मरण के दुष्चक्र न रुकते कभी॥ [ ७ ]
यस्तु विज्ञानवान्भवति समनस्कः सदा शुचिः ।
स तु तत्पदमाप्नोति यस्माद्भूयो न जायते ॥ ८ ॥
- पर जो सदा संयम विवेकी, शुद्ध भाव से युक्त हैं,
- पद परम अधिकारी वही और मरण जन्म से मुक्त हैं।
- निष्काम भाव से कर्म,कर्मा की जन्म मृत्यु भी शेष है,
- निःशेष शेष हों कर्म जिसके भक्त प्रभु का विशेष है॥ [ ८ ]
- पर जो सदा संयम विवेकी, शुद्ध भाव से युक्त हैं,
विज्ञानसारथिर्यस्तु मनः प्रग्रहवान्नरः ।
सोऽध्वनः पारमाप्नोति तद्विष्णोः परमं पदम् ॥ ९ ॥
जो बुद्धि रूपी सारथी से है नियंत्रित सर्वदा,
स्व मन स्वरूपी डोर उसके हाथ में रहती सदा।
है वह मनुज सम्यक विवेकी, पार हो संसार से,
फ़िर भोग से उपरत हो रत हो, परम करुनागार से॥ [ ९ ]
इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः ।
मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान्परः ॥ १० ॥
- इन्द्रियों से अति अधिक तो शब्द विषयों में वेग है,
- विषयों से भी बलवान मन का, प्रबल अति संवेग है|
- इस मन से भी बुद्धि परम और बुद्धि से है आत्मा,
- अतः मानव आत्म बल संयम से हो परमात्मा॥ [ १० ]
- इन्द्रियों से अति अधिक तो शब्द विषयों में वेग है,