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"पछतावा / साँवरी / अनिरुद्ध प्रसाद विमल" के अवतरणों में अंतर

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कि यह सब कुछ बिना जाने
 
कि यह सब कुछ बिना जाने
 
तुम फिर लौट कर नहीं आए।
 
तुम फिर लौट कर नहीं आए।
डर
 
आकर तो देखो मेरे प्राणपति
 
आज कितनी भयावह लगती है
 
पहाड़ की हँसी
 
कि आकाश हो गया है सुरसा  का मुँह
 
यह इंजोरिया, जिसके हो दाँत
 
नदी के दोनों किनारे
 
जैसे, इसकी दो बाँहे
 
लगते हैं
 
सब मिल कर मुझे खा जायेंगे।
 
यह वही
 
गहराइयों और ऊँचाईयों वाला
 
जेठोर का पहाड़ है
 
जो तुम्हारे साथ रहने पर अपने पंख पसार
 
उन पर चढ़ा घुमाता था मुझे
 
और आज उसी पहाड़ को लगता है
 
हजारों-हजार हाथ निकल आये हैं
 
और नदी किनारे के सभी बाँस
 
उसके हाथों में बन गये हैं भालों की तरह
 
हवाओं में करचियाँ
 
नागों की तरह फुंफकारती हैं
 
लगता है
 
फनवाले हजारों नाग के भाले लिए
 
पहाड़ दौड़े चला आ रहा है
 
ऐसे में तुम नहीं हो तो मैं चाहती हूँ
 
कि यह आकाश उलट जाए और मैं
 
इसकी गहराई में डूब कर मर जाऊँ।
 
 
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22:42, 22 अक्टूबर 2017 के समय का अवतरण

देखो न प्राण प्यारे
तुम्हरे न आने के दुख से व्याकुल हो
मोतियों की वह माला
जिसको पहना था तुमसे मिलन-अवसर पर
उसे तोड कर फेंक दी हैं मैंने
आकाश की ओर घुमा कर
जब तुम्हीं नहीं मेरे संग हो
तो यह श्रृंगार किसलिए !

सच मानो पिया
आकाश में चमक रहे ये तारे
वियोग की वेदना में फेंकी गई
मोतियों की वही माला है
जो टूट कर बिखर गई है

प्रियतम
अब भी तो आ जाओ
आकर देखो
आज तुम्हारी साँवरी
तुम्हारे लिए कितनी कलप रही है
कि अपने किए पर कितनी पछता रही है
सोचती हूँ
कि क्यों नहीं
उस दिन लोक-लाज छोड़ कर
मिल पाई तुमसे

क्यों नहीं कह पाई मन की सारी बातें
तुमने तो पुरूरवा होकर दिखा दिया
मैं ही उर्वशी नहीं हो सकी।

हाय, मेरा भाग्य
कहाँ ला कर छोड़ दिया यह तुमने मुझे।

यह लाज ही मेरे सभी दूखों का कारण है
आखिर नारी ही तो ठहरी प्रियतम।

क्या करोगे
लाज ही तो जनानी होती है
वही लाज, जो नारी का श्रृंगार है
और उसी लाज
डर और भय से
मैं साफ-साफ खुल कर
कुछ भी न बोल सकी
अक्षर भी बेमानी हो गये
तो इसमें मेरा क्या दोष।

तुम्हीं कहो।
दोष तो तुम्हारा भी है
कि यह सब कुछ बिना जाने
तुम फिर लौट कर नहीं आए।