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"ज़ब्त किस इम्तहान तक पहुँचा / द्विजेन्द्र 'द्विज'" के अवतरणों में अंतर

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ये भी तो शे‘र का करिश्मा है
 
ये भी तो शे‘र का करिश्मा है
  
‘द्विज’ भी सारे जहान तक पहुँचा
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‘द्विज’ भी सारे जहान तक पहुँचा
 
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दिलों की उलझनों से फ़ैसलों तक
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सफ़र कितना कड़ा है मंज़िलों तक
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यही पहुंचाएगा भी मंज़िलों तक
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सफ़र पहुँचा हमारा हौसलों तक
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ये अम्नो—चैन की डफली ही उनकी
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हमें लाती  रही कोलाहलों  तक
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दरख़्तों  ने ही पी  ली  धूप सारी
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नहीं आई ज़मीं पर  कोंपलों तक
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हम उनकी फ़िक़्र में शामिल नहीं हैं
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वो हैं महदूद ज़ाती  मसअलों तक
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ज़माने  के  चलन में शाइरी भी
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सिमट कर रह गई अब चुटकलों तक
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यहाँ जब  और भी  ख़तरे  बहुत  थे
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‘द्विज’! आता कौन फिर इन साहिलों तक
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18:39, 22 जून 2008 का अवतरण

ज़ब्त किस इम्तहान तक पहुँचा

मेरा ग़म भी बयान तक पहुँचा


लौट आई परों में फिर जुम्बिश

हौसला जब ज़बान तक पहुँचा


अपनी आँखों में घर के ख़्वाब लिए

इक मुसाफ़िर मकान तक पहुँचा


तीर था तू जो मेरे तरकश का

कैसे उसकी कमान तक पहुँचा


उसकी ख़ुशबू हवाओं में फैली

जब सुख़न क़द्रदान तक पहुँचा


ये भी तो शे‘र का करिश्मा है

‘द्विज’ भी सारे जहान तक पहुँचा