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12:54, 8 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण
रात के आगोश से सवेरा निकल गया, 
समंदर को छोड़ कर किनारा निकल गया   
रेत की सेज पे चांदनी रोया करी,   
छोड़ कर दरिया उसे, बेसहारा निकल गया
सोई रही जमी, आसमाँ सोया रहा, 
चाँद तारों का सारा नज़ारा निकल गया
ठूंठ पर यूँ ही धूप ठिठकी सुलगती  रही, 
साया किसी का थका हारा निकल गया 
गूंगे दर की मेरे सांकल बजा के रात, 
कुदरत का कोई इशारा निकल गया  
घुलती रही मिसरी कानों में सारी रात,
हुई सुबह तो वो आवारा बंजारा निकल गया
बाँहों में उसकी आऊँ, पिघल जाऊँ,
ख्वाब ये मेरा कंवारा निकल गया
मेरी तस्वीर पे अपने लब रख कर, 
मेरे इश्क का वो मारा निकल गया
 
	
	

