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"गत्ते की मछलियाँ / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल" के अवतरणों में अंतर

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करती है निर्धारित तुम्हारा भाग्य
+
पीछा करते मृत्यु का
क्या पहनोगे
+
पहुँच गया उसके द्वार पर
या टँगेंगे
+
हर क्षण
हवा में तुम्हारे कपड़े
+
कभी आगे, कभी पीछे
तुम्हारे बिना फड़फड़ाते हुए
+
पहुँच गये मातृभूमि से दूर
होना है उन्हें भी आजाद
+
बैठे-बैठे
इस फड़फड़ाहट से
+
कुछ क्षण और
इस थरथराहट से
+
जीने की चाह में
लौट जाना चाहती है डोर
+
पर नहीं कर पाया
फिर कभी
+
स्पर्श, प्याले का
फूटने के लिए
+
इतनी-सी दूरी भी
धरा की कोख से।
+
हो गयी अनंत
 
+
थम गया स्तब्ध-सा समय
एक नुकीली कील
+
अर्धांगिनी थरथराती रही
नियंत्रित करती है थरथराहट
+
सुख के प्याले में
इस ब्रह्मांड की धुरी-सी
+
क्या बचा था?
बचाये रखती है
+
बस एक चीख
इसे खिसकने से
+
एक आँसू
एक नुकीली कील
+
अटका कोर में
केंद्र है इस आदि और अनादि का
+
फटा जा रहा था हृदय
केंद्र है इस अनंत विस्तार का
+
गत्ते की मछली
जो फैलता है
+
सूख रही धूप में
और फिर लौट आता है
+
फड़फड़ाती हवा में
खुलता है और सिमट जाता है
+
कहाँ गयी चेतना
एक नुकीली कील
+
गीला धुआँ जला रहा आँखों को
लपेटती है पतंग की डोर
+
क्या सचमुच रो रहे थे
नाप नहीं सकते ओर-छोर
+
दुःख से, मछुआरे
नचाती है लट्टू को
+
क्या भूनेंगे, तलेंगे
घुमाती गोल-गोल
+
आखिर कब तक?
गिर पड़ते हैं फिर
+
भूख तो काट डालेगी
तीरों की शय्या पर  
+
सभी रिश्ते
भीष्म पितामह
+
चबायेंगे, गत्ते को ही
कृष्ण लेटते हैं वन में  
+
होठों पर जीभ फेरते हुए
एक नुकीली कील के लिए
+
क्या नमक ज्यादा हो गया?
हर-एक की
+
यादों पर भी
एक अलग नुकीली कील
+
जमेंगे रेत के टीले
करती है छेद साँस लेने के लिए
+
बदलेंगे पहाड़ों में
करती है छेद
+
कभी-कभी एकांत में बैठ
सब बहा ले जाने के लिए
+
जिंदगी की निरर्थकता पर मुसकरायेंगे
जल, जीवन, आँसू
+
फिर उन्हीं जूतों को पहनेंगे
सुख-दुःख, ताकत-
+
फिर करेंगे पीछा मृत्यु का
कमजोरियाँ, यादें
+
उसके द्वार तक
तमाम तरह के रसायन
+
इसी तरह
भर रखे हैं जो सदियों से
+
गत्ते की मछलियाँ
सहेज रखे हैं मर्तबानों में
+
सौंपेंगी अपनी विरासत
बह जाने दो इस संग्रहालय को
+
अगली पीढ़ियों को
एक नुकीली कील मार्ग है मुक्ति का।
+
बदलेंगे मछुआरे को
 +
कभी यहाँ, कभी वहाँ
 +
डालेंगे काँटा
 +
फंेकेंगे जाल
 +
कुछ फँसेंगी
 +
कुछ बच जायेंगी?
 +
पर कब तक?
 +
समय तो बीत रहा
 +
ना थमेगा
 +
ना धीमा होगा
 +
तेल जल रहा दीपक में
 +
अँधेरी रात में
 +
एक ही सहारा, रोशनी का
 +
लपकती है गत्ते की मछलियाँ
 +
और लो
 +
वो चमका भाला चांदनी रात में
 +
चीर दिया आर-पार
 +
आँखों में चमका वहशीपन
 +
कितना आनंदित करता
 +
शिकार और शिकारी
 +
दायें, बायें
 +
डाल-डाल पात-पात
 +
क्या छुप पायेगी कहीं
 +
गत्ते की मछलियाँ
 +
बच सके जहाँ
 +
वो गलने से
 +
सूखने से
 +
जलने से
 +
लंबी बंसी की डोर
 +
उड़ती पतंग की तरह
 +
पड़ती चाबुक-सी
 +
ढूँढ ही लेती है
 +
खोहांे-कंदराओं में
 +
पेड़ों पर, पहाड़ों में
 +
सुरक्षित से सुरक्षित कोना भी
 +
दूर नहीं पहुँच से
 +
बचाकर रखो बस
 +
एक चीख
 +
एक आँसू
 +
गीला करो होठों को
 +
और करते रहो पीछा
 +
मृत्यु का
 +
उसके द्वार तक।
 
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14:45, 13 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण

पीछा करते मृत्यु का
पहुँच गया उसके द्वार पर
हर क्षण
कभी आगे, कभी पीछे
पहुँच गये मातृभूमि से दूर
बैठे-बैठे
कुछ क्षण और
जीने की चाह में
पर नहीं कर पाया
स्पर्श, प्याले का
इतनी-सी दूरी भी
हो गयी अनंत
थम गया स्तब्ध-सा समय
अर्धांगिनी थरथराती रही
सुख के प्याले में
क्या बचा था?
बस एक चीख
एक आँसू
अटका कोर में
फटा जा रहा था हृदय
गत्ते की मछली
सूख रही धूप में
फड़फड़ाती हवा में
कहाँ गयी चेतना
गीला धुआँ जला रहा आँखों को
क्या सचमुच रो रहे थे
दुःख से, मछुआरे
क्या भूनेंगे, तलेंगे
आखिर कब तक?
भूख तो काट डालेगी
सभी रिश्ते
चबायेंगे, गत्ते को ही
होठों पर जीभ फेरते हुए
क्या नमक ज्यादा हो गया?
यादों पर भी
जमेंगे रेत के टीले
बदलेंगे पहाड़ों में
कभी-कभी एकांत में बैठ
जिंदगी की निरर्थकता पर मुसकरायेंगे
फिर उन्हीं जूतों को पहनेंगे
फिर करेंगे पीछा मृत्यु का
उसके द्वार तक
इसी तरह
गत्ते की मछलियाँ
सौंपेंगी अपनी विरासत
अगली पीढ़ियों को
बदलेंगे मछुआरे को
कभी यहाँ, कभी वहाँ
डालेंगे काँटा
फंेकेंगे जाल
कुछ फँसेंगी
कुछ बच जायेंगी?
पर कब तक?
समय तो बीत रहा
ना थमेगा
ना धीमा होगा
तेल जल रहा दीपक में
अँधेरी रात में
एक ही सहारा, रोशनी का
लपकती है गत्ते की मछलियाँ
और लो
वो चमका भाला चांदनी रात में
चीर दिया आर-पार
आँखों में चमका वहशीपन
कितना आनंदित करता
शिकार और शिकारी
दायें, बायें
डाल-डाल पात-पात
क्या छुप पायेगी कहीं
गत्ते की मछलियाँ
बच सके जहाँ
वो गलने से
सूखने से
जलने से
लंबी बंसी की डोर
उड़ती पतंग की तरह
पड़ती चाबुक-सी
ढूँढ ही लेती है
खोहांे-कंदराओं में
पेड़ों पर, पहाड़ों में
सुरक्षित से सुरक्षित कोना भी
दूर नहीं पहुँच से
बचाकर रखो बस
एक चीख
एक आँसू
गीला करो होठों को
और करते रहो पीछा
मृत्यु का
उसके द्वार तक।