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"विजयी के सदृश जियो रे / रामधारी सिंह "दिनकर"" के अवतरणों में अंतर

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वैराग्य छोड़ बाँहों की विभा संभालो
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चट्टानों की छाती से दूध निकालो
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है रुकी जहाँ भी धार शिलाएं तोड़ो
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पीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ो
  
वैराग्य छोड़ बाँहों की विभा संभालो <br>
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चढ़ तुंग शैल शिखरों पर सोम पियो रे
चट्टानों की छाती से दूध निकालो <br>
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योगियों नहीं विजयी के सदृश जियो रे!
है रुकी जहाँ भी धार शिलाएं तोड़ो <br>
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पीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ो <br><br>
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चढ़ तुंग शैल शिखरों पर सोम पियो रे <br>
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जब कुपित काल धीरता त्याग जलता है
योगियों नहीं विजयी के सदृश जियो रे! <br><br>
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चिनगी बन फूलों का पराग जलता है
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सौन्दर्य बोध बन नयी आग जलता है
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ऊँचा उठकर कामार्त्त राग जलता है
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अम्बर पर अपनी विभा प्रबुद्ध करो रे  
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गरजे कृशानु तब कंचन शुद्ध करो रे!  
  
जब कुपित काल धीरता त्याग जलता है <br>
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जिनकी बाँहें बलमयी ललाट अरुण है  
चिनगी बन फूलों का पराग जलता है <br>
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भामिनी वही तरुणी नर वही तरुण है  
सौन्दर्य बोध बन नयी आग जलता है <br>
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है वही प्रेम जिसकी तरंग उच्छल है
ऊँचा उठकर कामार्त्त राग जलता है <br>
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वारुणी धार में मिश्रित जहाँ गरल है  
  
अम्बर पर अपनी विभा प्रबुद्ध करो रे <br>
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उद्दाम प्रीति बलिदान बीज बोती है
गरजे कृशानु तब कंचन शुद्ध करो रे! <br><br>
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तलवार प्रेम से और तेज होती है!  
  
जिनकी बाँहें बलमयी ललाट अरुण है <br>
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छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाये
भामिनी वही तरुणी नर वही तरुण है <br>
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मत झुको अनय पर भले व्योम फट जाये
है वही प्रेम जिसकी तरंग उच्छल है <br>
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दो बार नहीं यमराज कण्ठ धरता है  
वारुणी धार में मिश्रित जहाँ गरल है <br><br>
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मरता है जो एक ही बार मरता है  
  
उद्दाम प्रीति बलिदान बीज बोती है <br>
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तुम स्वयं मृत्यु के मुख पर चरण धरो रे
तलवार प्रेम से और तेज होती है! <br><br>
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जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे!  
  
छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाये <br>
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स्वातंत्र्य जाति की लगन व्यक्ति की धुन है
मत झुको अनय पर भले व्योम फट जाये <br>
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बाहरी वस्तु यह नहीं भीतरी गुण है  
दो बार नहीं यमराज कण्ठ धरता है <br>
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मरता है जो एक ही बार मरता है <br><br>
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तुम स्वयं मृत्यु के मुख पर चरण धरो रे <br>
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वीरत्व छोड़ पर का मत चरण गहो रे  
जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे! <br><br>
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जो पड़े आन खुद ही सब आग सहो रे!  
  
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जब कभी अहम पर नियति चोट देती है  
बाहरी वस्तु यह नहीं भीतरी गुण है <br><br>
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कुछ चीज़ अहम से बड़ी जन्म लेती है
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जो पड़े आन खुद ही सब आग सहो रे! <br><br>
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धधको स्फुलिंग में बढ़ अंगार बनो रे!  
  
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उद्देश्य जन्म का नहीं कीर्ति या धन है  
कुछ चीज़ अहम से बड़ी जन्म लेती है <br>
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सुख नहीं धर्म भी नहीं, न तो दर्शन है
नर पर जब भी भीषण विपत्ति आती है <br>
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विज्ञान ज्ञान बल नहीं, न तो चिंतन है  
वह उसे और दुर्धुर्ष बना जाती है <br><br>
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जीवन का अंतिम ध्येय स्वयं जीवन है  
  
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सबसे स्वतंत्र रस जो भी अनघ पियेगा  
धधको स्फुलिंग में बढ़ अंगार बनो रे! <br><br>
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पूरा जीवन केवल वह वीर जियेगा! </poem>
 
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उद्देश्य जन्म का नहीं कीर्ति या धन है <br>
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सुख नहीं धर्म भी नहीं, न तो दर्शन है <br>
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जीवन का अंतिम ध्येय स्वयं जीवन है <br><br>
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सबसे स्वतंत्र रस जो भी अनघ पियेगा <br>
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पूरा जीवन केवल वह वीर जियेगा! <br><br>
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11:23, 15 दिसम्बर 2017 का अवतरण

वैराग्य छोड़ बाँहों की विभा संभालो
चट्टानों की छाती से दूध निकालो
है रुकी जहाँ भी धार शिलाएं तोड़ो
पीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ो

चढ़ तुंग शैल शिखरों पर सोम पियो रे
योगियों नहीं विजयी के सदृश जियो रे!

जब कुपित काल धीरता त्याग जलता है
चिनगी बन फूलों का पराग जलता है
सौन्दर्य बोध बन नयी आग जलता है
ऊँचा उठकर कामार्त्त राग जलता है
अम्बर पर अपनी विभा प्रबुद्ध करो रे
गरजे कृशानु तब कंचन शुद्ध करो रे!

जिनकी बाँहें बलमयी ललाट अरुण है
भामिनी वही तरुणी नर वही तरुण है
है वही प्रेम जिसकी तरंग उच्छल है
वारुणी धार में मिश्रित जहाँ गरल है

उद्दाम प्रीति बलिदान बीज बोती है
तलवार प्रेम से और तेज होती है!

छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाये
मत झुको अनय पर भले व्योम फट जाये
दो बार नहीं यमराज कण्ठ धरता है
मरता है जो एक ही बार मरता है

तुम स्वयं मृत्यु के मुख पर चरण धरो रे
जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे!

स्वातंत्र्य जाति की लगन व्यक्ति की धुन है
बाहरी वस्तु यह नहीं भीतरी गुण है

वीरत्व छोड़ पर का मत चरण गहो रे
जो पड़े आन खुद ही सब आग सहो रे!

जब कभी अहम पर नियति चोट देती है
कुछ चीज़ अहम से बड़ी जन्म लेती है
नर पर जब भी भीषण विपत्ति आती है
वह उसे और दुर्धुर्ष बना जाती है

चोटें खाकर बिफरो, कुछ अधिक तनो रे
धधको स्फुलिंग में बढ़ अंगार बनो रे!

उद्देश्य जन्म का नहीं कीर्ति या धन है
सुख नहीं धर्म भी नहीं, न तो दर्शन है
विज्ञान ज्ञान बल नहीं, न तो चिंतन है
जीवन का अंतिम ध्येय स्वयं जीवन है

सबसे स्वतंत्र रस जो भी अनघ पियेगा
पूरा जीवन केवल वह वीर जियेगा!