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एक भोर रिक्शेवाले की-
पीड़ाओं के लिए जब ठहरी थी,
भोर के तारे के उगते ही,
पगली -सी मटकती कहाँ चली थी ?
इसी भोर की आहट को सुनते ही,
खींचने को बोझ करवट धीरे से बदली थी।
रात, रिक्शा सड़क के कोने लगा,
धीरे सी चुभती कराह एक निकली थी।
शायद किसी ने भी न सुनी हो,
जो धनिकों के कोलाहल में मचली थी।
पांच रुपया हाथ में ही रह गया,
लोकतन्त्र की थाली अपरिभाषित धुँधली थी।
कोहरे की चादर में लेटा था,
जमती हुई सिसकारियाँ कुछ निकली थी।
व्यवस्था की निर्लज्जता को ढकने को आतुर,
वही कफन बन गयी जो उसने ओढ़ ली थी।