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"हर सम्त एक भीड़—से फैले हुए हैं लोग / साग़र पालमपुरी" के अवतरणों में अंतर

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हर सम्त एक भीड़—से बिखरे हुए हैं लोग
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हर सम्त एक भीड़—से फैले हुए हैं लोग
  
लगता है जैसे टूट के बिखरे हुए हैं लोग
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लगता है जैसे टूट के फैले हुए हैं लोग
  
  

14:28, 29 जून 2008 के समय का अवतरण

हर सम्त एक भीड़—से फैले हुए हैं लोग

लगता है जैसे टूट के फैले हुए हैं लोग


कहते नहीं अगर्चे किसी से ये दिल की बात

हर गाम इश्तहार—से चिपके हुए हैं लोग


हैं खुद से दूर ग़ैरों को अपनाएँ किस तरह ?

कुछ ऐसे अपने—आप से रूठे हुए हैं लोग


ये जानते हुए भी कि लुट जाएँगे वहाँ

फिर भी उसी सराए में ठहरे हुए हैं लोग


बेचेहरगी ने उनको बनाया है ख़ुदपरस्त

इन्सानियत की राह से भटके हुए हैं लोग


मुद्दत हुई गिरे थे यही आसमान से

और आज भी खजूर पर अटके हुए हैं लोग


मालूम क्या है राज़—ए—वजूद—ओ—अदम इन्हें

अपनी अना के शोर में बहरे हुए हैं लोग


चेहरे धुआँ—धुआँ हैं तो दिल भी लहू—लहू

एहसास की सलीब पर लटके हुए हैं लोग


फूलों की जुस्तजू में हई काँटों से हमकिनार

इक हल तलब सवाल—से उलझे हुए हैं लोग


‘साग़र’! चला है उनके तआक़ुब में तू कहाँ ?

जो ज़िन्दगी की क़ैद से भागे हुए हैं लोग