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ज़र्द चेहरों पे क्यों पसीना है
ज़िन्दगी जेठ का महीना है
काश इक जाम ही उठाते वो
ग़म से लबरेज़ आबगीना है
खौफ़ तूफ़ान का उन्हें कैसा
जिनका मंझधार में सफ़ीना है
दिल अँगूठी—सा है मेरा जिसमें
आपकी याद इक नगीना है
उनको अमृत पिला रहे हैं आप
उम्र भर जिनको ज़ह्र पीना है
फ़ाक़ामस्तों से पूछिये तो सही
मुल्क़ में किस क़दर क़रीना है
अब तो तार—ए—नज़र ही ‘साग़र’!
ज़ख़्म—ए—एहसास हमको सीना है