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{{KKRachna
|रचनाकार=फ़िराक़ गोरखपुरी
|अनुवादक=|संग्रह= गुले-नग़मा/ फ़िराक़ गोरखपुरी
}}
[[Category:ग़ज़ल]]{{KKCatGhazal}}<poem>बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैंतुझे ऐ ज़िन्दगी, हम दूर से पहचान लेते हैं।
बहुत पहले से उन क़दमों मेरी नजरें भी ऐसे काफ़िरों की आहट जान लेते ओ ईमाँ हैं<br>तुझे ए ज़िन्दगी, हम दूर से पहचान निगाहे मिलते ही जो जान और ईमान लेते हैं<br><br>हैं।
मेरी नजरें भी ऐसे कातिलों का जान ओ ईमान हैं<br>जिसे कहती दुनिया कामयाबी वाय नादानीनिगाहे मिलते ही जो जान और ईमान उसे किन क़ीमतों पर कामयाब इंसान लेते हैं <br><br>हैं।
तबियत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में<br>निगाहे-बादागूँ, यूँ तो तेरी बातों का क्या कहनाहम ऐसे में तेरी यादों के चादर तान हर बात लेकिन एहतियातन छान लेते हैं<br><br>हैं।
खुद अपना फ़ैसला भी इश्क तबियत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में काफ़ी नहीं होता<br>उसे भी कैसे कर गुजरें जो दिल हम ऐसे में ठान तेरी यादों के चादर तान लेते हैं<br><br>
जिसे सूरत बताते हैं, पता देती है सीरत का<br>खुद अपना फ़ैसला भी इश्क में काफ़ी नहीं होताइबारत देख उसे भी कैसे कर जिस तरह मानी जान गुजरें जो दिल में ठान लेते हैं<br><br>
तुझे घाटा ना होने देंगे कारोबारहयाते-इश्क़ का इक-उल्फ़त में<br>इक नफ़स जामे-शहादत हैहम अपने सर तेरा ऎ दोस्त हर नुक़सान वो जाने-नाज़बरदाराँ, कोई आसान लेते हैं <br><br>हैं।
हमआहंगी में भी इक चासनी है इख़्तलाफ़ों की
मेरी बातें ब‍उनवाने-दिगर वो मान लेते हैं।
रफ़ीक़तेरी मक़बूलियत की बज्‍हे-ए-ज़िन्दगी थी अब अनीस-ए-वक़्त-ए-आखिर है<br>वाहिद तेरी रम्ज़ीयततेरा ऎ मौत! हम ये दूसरा एअहसान कि उसको मानते ही कब हैं जिसको जान लेते हैं<br><br>हैं।
हमारी हर नजर तुझसे नयी सौगन्ध खाती है<br>अब इसको कुफ़्र माने या बलन्दी-ए-नज़र जानेंतो तेरी हर नजर से ख़ुदा-ए-दोजहाँ को देके हम नया पैगाम इन्सान लेते हैं<br><br>हैं।
ज़माना वारदात-ए-क़्ल्ब सुनने को तरसता जिसे सूरत बताते हैं, पता देती है <br>सीरत काइसी से तो सर आँखों पर मेरा दीवान इबारत देख कर जिस तरह मानी जान लेते हैं <br><br>
तुझे घाटा ना होने देंगे कारोबार-ए-उल्फ़त मेंहम अपने सर तेरा ऎ दोस्त हर नुक़सान लेते हैं हमारी हर नजर तुझसे नयी सौगन्ध खाती हैतो तेरी हर नजर से हम नया पैगाम लेते हैं रफ़ीक़-ए-ज़िन्दगी थी अब अनीस-ए-वक़्त-ए-आखिर हैतेरा ऎ मौत! हम ये दूसरा एअहसान लेते हैं ज़माना वारदात-ए-क़्ल्ब सुनने को तरसता हैइसी से तो सर आँखों पर मेरा दीवान लेते हैं 'फ़िराक' अक्सर बदल कर भेस मिलता है कोई काफ़िर<br>कभी हम जान लेते हैं कभी पहचान लेते हैं<br><br/poem>
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