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धूप सबकी होती है  
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कितनी बसें हैं जो छूटती है
धूप में खड़ी औरत
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इस देश में  
बस यही सोचती है
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कितने लोग इन बसों में चढ़ कर
पर उसे तो जीवन - काल में  
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अपने स्थान को छोड़ जाते हैं
संतुलन बनाए रखना है
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हवा भी इन बसों के अंदर पसीने में बदल जाती है
अपनी इच्छाओं और वृहत्तर संसार के बीच
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इन बसों में चढ़ कर जाते लोग
इस लिये औरत धूप में  
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जेल से रिहा हुए लोगों की तरह भाग्यशाली नहीं होते
बिल्कुल सीधी खड़ी होती है
+
ये लोग मनुष्य की तरह नहीं सामान की तरह यात्रा में हैं
मार्क्स की व्याख्या में  
+
ये लोग एक जैसे होते हैं
औरत सर्वहारा होती है
+
मामूली से चेहरे / कपड़े / उम्मीद के साथ
इस युग की धूप औरत के लिये नहीं है
+
जिस शहर में ये लोग जाते हैं
पर धूप में खड़ी औरत यह नहीं जानती है
+
वह शहर इनका नाम नहीं पुकारता
वह तो सीधी खड़ी होकर
+
भरी हुई बसों में सफर करता सर्वहारा
किसी और के हिस्से की
+
नाम के लिए नहीं मामूली सी नौकरी के लिए शहर आता है
धूप को बचाना चाहती है  
+
ये बसें यंत्रवत चलती है  
किसी और के हिस्से की धूप को बचाती औरत
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जिसके अंदर बैठे हुए लोगों के भीतर कुछ भींगता रहता है  
की परछाई  दिवार पर सीधी पड़ती है  
+
कुछ दरकता सा रहता है
दिवार पर औरत की सीधी पड़ती परछाई
+
दूर से घंटाघर की घड़ी की सुई की तरह लगती है
+
और पास से सारस की गर्दन की तरह
+
पर धूप में खड़ी औरत यह नहीं जानती है  
+
 
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11:47, 14 अप्रैल 2018 के समय का अवतरण

कितनी बसें हैं जो छूटती है
इस देश में
कितने लोग इन बसों में चढ़ कर
अपने स्थान को छोड़ जाते हैं
हवा भी इन बसों के अंदर पसीने में बदल जाती है
इन बसों में चढ़ कर जाते लोग
जेल से रिहा हुए लोगों की तरह भाग्यशाली नहीं होते
ये लोग मनुष्य की तरह नहीं सामान की तरह यात्रा में हैं
ये लोग एक जैसे होते हैं
मामूली से चेहरे / कपड़े / उम्मीद के साथ
जिस शहर में ये लोग जाते हैं
वह शहर इनका नाम नहीं पुकारता
भरी हुई बसों में सफर करता सर्वहारा
नाम के लिए नहीं मामूली सी नौकरी के लिए शहर आता है
ये बसें यंत्रवत चलती है
जिसके अंदर बैठे हुए लोगों के भीतर कुछ भींगता रहता है
कुछ दरकता सा रहता है