"माँ / भाग २६ / मुनव्वर राना" के अवतरणों में अंतर
(New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= मुनव्वर राना |संग्रह=माँ / मुनव्वर राना}} {{KKPageNavigation |पीछे=म...) |
(कोई अंतर नहीं)
|
21:24, 11 जुलाई 2008 का अवतरण
उसे जली हुई लाशें नज़र नहीं आतीं
मगर वो सूई से धागा गुज़ार देता है
वो पहरों बैठ कर तोते से बातें करता रहता है
चलो अच्छा है अब नज़रें बदलना सीख जायेगा
उसे हालात ने रोका मुझे मेरे मसाएल ने
वफ़ा की राह में दुश्वारियाँ दोनों तरफ़ से हैं
तुझसे बिछड़ा तो पसंद आ गई बेतरतीबी
इससे पहले मेरा कमरा भी ग़ज़ल जैसा था
कहाँ की हिजरतें, कैसा सफ़र, कैसा जुदा होना
किसी की चाह पैरों में दुपट्टा डाल देती है
ग़ज़ल वो सिन्फ़—ए—नाज़ुक़ है जिसे अपनी रफ़ाक़त से
वो महबूबा बना लेता है मैं बेटी बनाता हूँ
वो एक गुड़िया जो मेले में कल दुकान पे थी
दिनों की बात है पहले मेरे मकान पे थी
लड़कपन में किए वादे की क़ीमत कुछ नहीं होती
अँगूठी हाथ में रहती है मंगनी टूट जाती है
वि जिसके वास्ते परदेस जा रहा हूँ मैं
बिछड़ते वक़्त उसी की तरफ़ नहीं देखा.