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"मानिनि आब उचित नहि मान / विद्यापति" के अवतरणों में अंतर

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जूडि रयनि चकमक करन चांदनि एहन समय नहि आन।<br>
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एहि अवसर पिय मिलन जेहन सुख जकाहि होय से जान।।<br>
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मानिनि आब उचित नहि मान।  
रभसि रभसि अलि बिलसि बिलसि कलि करय मधु पान।<br>
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एखनुक रंग एहन सन लागय जागल पए पंचबान॥
अपन-अपन पहु सबहु जेमाओल भूखल तुऊ जजमान।।<br>
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जूडि रयनि चकमक करन चांदनि एहन समय नहि आन।  
त्रिबलि तरंग सितासित संगम उरज सम्भु निरमान।<br>
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एहि अवसर पिय मिलन जेहन सुख जकाहि होय से जान॥
आरति पति मंगइछ परति ग्रह करु धनि सरबस दान।।<br>
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रभसि रभसि अलि बिलसि-बिलसि कलि करय मधु पान।  
दीप-बाति सम भिर न रहम मन दिढ करु अपन गेयान।<br>
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अपन-अपन पहु सबहु जेमाओल भूखल तुऊ जजमान॥
संचित मदन बेदन अति दारुन विद्यापति कवि भान।।<br><br>
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त्रिबलि तरंग सितासित संगम उरज सम्भु निरमान।  
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आरति पति मंगइछ परति ग्रह करु धनि सरबस दान॥
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दीप-बाति सम भिर न रहम मन दिढ करु अपन गेयान।  
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संचित मदन बेदन अति दारुन विद्यापति कवि भान॥
  
भावार्थ : - हे नायिका! अब अर्थ इतना भी रुसना-फुलना उचित नहीं है। इन बातों को अब छोड़ भी दो। देखो तो, ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे कामदेव अपने पांच बाणों के साथ जग चुके हों। रात कितना आकर्षक लग रहा है। चारों तरफ स्पष्ट दिखाई दे रहा है (शुक्ल पक्ष अपनी चढ़ाव में जो है)। इससे अच्छा (उपयुक्त) पला भला और क्या हो सकता (अभिसार के लिए) है। इस मनोनुकूल क्षण में प्रियतम से मिलन का जो आनन्द मिलता है उसका अनुभव (अनुमान) वही कर सकता है, जिसने ऐसे पल को कभी भोगा है। भँवर रस से हुए मदमत होकर कली को तोर रहा है, मधुपान कर रहा है। दोनों तरफ से कहीं कोई अवरोध नहीं है। अर्थात् सभी अपने-अपने प्रियतम की भूख मिटा चुके हैं, केवल तुम्हारा प्रियतम अभी तक भूखा है। तुम्हारे नाभि के ऊपर में लहर तरंगित है। संगम पर अवस्थित दोनों स्तन (छाती) शिव-शम्भु के समान लग रहे हैं। इस तरह के अवसर पर तुम्हारा प्रियतम आर्त होकर खड़े हैं। तुमसे कुछ मांग रहा है- याचक मुद्रा में। हे मानिनि (नायिका), तुम ऐसे पल में अपना सर्व दान कर दो। अब भी अपने मन को दृढ़ करो। इस चंचल मन का क्या भरोसा! यह तो दीपक के बाती जैसे हमेशा काँपता रहेगा। महाकवि विद्यापति ऐसी स्थिति का बोध कराते हुए कहते हैं कि कामेच्छा अत्यधिक मात्रा में एकत्रित हो जाने पर बहुत कष्ट देता है।
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भावार्थ : - हे नायिका! अब अर्थ इतना भी रुसना-फुलना उचित नहीं है। इन बातों को अब छोड़ भी दो। देखो तो, ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे कामदेव अपने पांच बाणों के साथ जग चुके हों। रात कितना आकर्षक लग रहा है। चारों तरफ स्पष्ट दिखाई दे रहा है (शुक्ल पक्ष अपनी चढ़ाव में जो है)। इससे अच्छा (उपयुक्त) पला भला और क्या हो सकता (अभिसार के लिए) है। इस मनोनुकूल क्षण में प्रियतम से मिलन का जो आनन्द मिलता है उसका अनुभव (अनुमान) वही कर सकता है, जिसने ऐसे पल को कभी भोगा है। भँवर रस से हुए मदमत होकर कली को तोर रहा है, मधुपान कर रहा है। दोनों तरफ से कहीं कोई अवरोध नहीं है। अर्थात् सभी अपने-अपने प्रियतम की भूख मिटा चुके हैं, केवल तुम्हारा प्रियतम अभी तक भूखा है। तुम्हारे नाभि के ऊपर में लहर तरंगित है। संगम पर अवस्थित दोनों स्तन (छाती) शिव-शम्भु के समान लग रहे हैं। इस तरह के अवसर पर तुम्हारा प्रियतम आर्त होकर खड़े हैं। तुमसे कुछ मांग रहा है- याचक मुद्रा में। हे मानिनि (नायिका), तुम ऐसे पल में अपना सर्व दान कर दो। अब भी अपने मन को दृढ़ करो। इस चंचल मन का क्या भरोसा! यह तो दीपक के बाती जैसे हमेशा काँपता रहेगा। महाकवि विद्यापति ऐसी स्थिति का बोध कराते हुए कहते हैं कि कामेच्छा अत्यधिक मात्रा में एकत्रित हो जाने पर बहुत कष्ट देता है।</poem>

12:08, 25 अप्रैल 2018 के समय का अवतरण

मानिनि आब उचित नहि मान।
एखनुक रंग एहन सन लागय जागल पए पंचबान॥
जूडि रयनि चकमक करन चांदनि एहन समय नहि आन।
एहि अवसर पिय मिलन जेहन सुख जकाहि होय से जान॥
रभसि रभसि अलि बिलसि-बिलसि कलि करय मधु पान।
अपन-अपन पहु सबहु जेमाओल भूखल तुऊ जजमान॥
त्रिबलि तरंग सितासित संगम उरज सम्भु निरमान।
आरति पति मंगइछ परति ग्रह करु धनि सरबस दान॥
दीप-बाति सम भिर न रहम मन दिढ करु अपन गेयान।
संचित मदन बेदन अति दारुन विद्यापति कवि भान॥

भावार्थ : - हे नायिका! अब अर्थ इतना भी रुसना-फुलना उचित नहीं है। इन बातों को अब छोड़ भी दो। देखो तो, ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे कामदेव अपने पांच बाणों के साथ जग चुके हों। रात कितना आकर्षक लग रहा है। चारों तरफ स्पष्ट दिखाई दे रहा है (शुक्ल पक्ष अपनी चढ़ाव में जो है)। इससे अच्छा (उपयुक्त) पला भला और क्या हो सकता (अभिसार के लिए) है। इस मनोनुकूल क्षण में प्रियतम से मिलन का जो आनन्द मिलता है उसका अनुभव (अनुमान) वही कर सकता है, जिसने ऐसे पल को कभी भोगा है। भँवर रस से हुए मदमत होकर कली को तोर रहा है, मधुपान कर रहा है। दोनों तरफ से कहीं कोई अवरोध नहीं है। अर्थात् सभी अपने-अपने प्रियतम की भूख मिटा चुके हैं, केवल तुम्हारा प्रियतम अभी तक भूखा है। तुम्हारे नाभि के ऊपर में लहर तरंगित है। संगम पर अवस्थित दोनों स्तन (छाती) शिव-शम्भु के समान लग रहे हैं। इस तरह के अवसर पर तुम्हारा प्रियतम आर्त होकर खड़े हैं। तुमसे कुछ मांग रहा है- याचक मुद्रा में। हे मानिनि (नायिका), तुम ऐसे पल में अपना सर्व दान कर दो। अब भी अपने मन को दृढ़ करो। इस चंचल मन का क्या भरोसा! यह तो दीपक के बाती जैसे हमेशा काँपता रहेगा। महाकवि विद्यापति ऐसी स्थिति का बोध कराते हुए कहते हैं कि कामेच्छा अत्यधिक मात्रा में एकत्रित हो जाने पर बहुत कष्ट देता है।