भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"मध्यस्थ / जगदीश गुप्त" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जगदीश गुप्त |अनुवादक= |संग्रह=नाव...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
10:52, 3 मई 2018 के समय का अवतरण
जीभ की मृदु नोक को ऊपर उठा
जब दाढ़ के तीखे कगारे बार-बार टटोलता हूँ मैं —
और जब सहसा ’कैनाइन टीथ’ छू जाते
सिहर जाती देह
निस्सन्देह
लगता मुझे जैसे अभी तक पशु ही बना हूँ मैं।
किन्तु जब पलकें झुका, दृग मून्द
झाँकता हूँ हृदय के उस पार,
मन के गहन लोकों में —
तुम्हारे स्नेह के आलोक से पूरित,
उधर जाते अनेकों द्वार — अनगिन द्वार
जिनकी आड़ से झाँई तुम्हारी झाँकती
तिरती
बिखरती
फैल जाती ज्योति के उजले कुहासे सी
चेतना की उस मधुर स्वप्निल कुहा में
मुझे लगता देवता हूँ मैं।
तुम बनो मध्यस्थ
बतलाओ कि क्या हूँ मैं।