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"कहा था / राहुल कुमार 'देवव्रत'" के अवतरणों में अंतर

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वो जो कहीं छुपकर
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कहा था ... याद है?
रोशनी में नहाता है ... मैं नहीं
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जमीं बड़ी कोमल
  
मेरा मैं
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कि इसको ज़िल्द पहना चाहिए
वो नहीं जो मैं होता रहता हूँ यक्सर
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गिनने को ख़ला में और क्या-क्या हैं?
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वो क्षितिज ...
ये पंक्तिबद्ध टांकी गिरहें रेजगारियाँ
+
क्षिप्रा के पार
जिस्मो-जां के हजारों पैबंद
+
उसे जो चूमता-सा दिख रहा है शाम ढलते
पुराने होते नहीं... न होंगे
+
कोई माशूक-सा लगता ...आवारा
  
मेरा नसीब और मैं
+
कहो है सत्य कितना?
कि जैसे सेमल के फूल सेता परिंदा
+
और कांटे यहाँ उलटे उगते हैं
+
  
दफ़्न हुई ख़लिश की मोटी परतें
+
बराबरी की बात करते बाज़ुबां तुम
स्मृति के कोठार पर खामोश खड़ी
+
कसम से नाच उठते
आज भी जिंदा हैं
+
  
ये दुनिया के मेले ... नाक़ाफी
+
... याद है?
झुंड का कोई नाम कहाँ होता है  
+
  
अनगिन धागों की फांस से जकड़ा पतंग ही तो हूँ
+
न समझा ... नोंच लोगे लुंचे मांस
उड़ता जाता हूँ अनिर्दिष्ट
+
क्षितिज से भी निठुर तुम
गिनने को होंगी दस दिशाएँ ... मेरी ज़द मेरी नहीं
+
नुचे गर्दन से बहते रक्त कत्थई
 
+
क्षिप्रा के ठंडे धार धोएंगे
हवा की रौ उसकी मनमर्जियाँ
+
मेरी परवशता ... मेरा प्रारब्ध
+
 
+
ये फांसें कण्ठहार हैं ... स्वीकार
+
तुमको मालूम ...?
+
ये जो अनंत स्वतंत्र फैला है
+
सब तेरा
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मेरे हिस्से का आकाश मेरा नहीं
+
 
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18:31, 12 मई 2018 के समय का अवतरण

कहा था ... याद है?
जमीं बड़ी कोमल

कि इसको ज़िल्द पहना चाहिए

वो क्षितिज ...
क्षिप्रा के पार
उसे जो चूमता-सा दिख रहा है शाम ढलते
कोई माशूक-सा लगता ...आवारा

कहो है सत्य कितना?

बराबरी की बात करते बाज़ुबां तुम
कसम से नाच उठते

... याद है?

न समझा ... नोंच लोगे लुंचे मांस
क्षितिज से भी निठुर तुम
नुचे गर्दन से बहते रक्त कत्थई
क्षिप्रा के ठंडे धार धोएंगे