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"हिमालय-अभियान / रामइकबाल सिंह 'राकेश'" के अवतरणों में अंतर

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गरुड़ की-सी भूख लेकर सिन्धु का गति-ज्वार,
प्यास उदित अगस्त्य की ले दीर्घ अमित अपार।
बने नचिकेता मनुज-दल चले यम के द्वार,
ज्ञान की विस्तीर्णता का देखने संसार।
एक ओर अजेय पर्वतराज का विस्तार
लहलहाती शून्य ऊँची बर्फ की दीवार
किन्तु, इधर त्रिशंकु-सी निर्बल पुरुष की साध,
देवलोक सदेह जाने का प्रयास अबाध।

हर कदम पर आपदा गतिरुद्धता आघात,
हर कदम पर मुखर झंकृत विकट झंझावत।
रहराती गुफा-दरियाँ रीढ़दार दरार,
बर्फ के टुकड़े नुकीले कीलदार पठार।
खड्ड नीचे और सिर पर टूटती चट्टान,
कटकटाता दौड़ पड़ता निगलने तूफान।
हर कदम पर मृत्यु की धूमिल धधकती आँच,
हर कदम पर प्राण की कुरबानियों की जाँच।
ईंट से कुरबानियों की ज्ञान की मीनार,
खड़ी करने को चले नर मृत्यु को फटकार।
विकट प्रतिद्वन्दी हिमालय शक्ति का भण्डार,
गुणातीत अगम्यता का सन्तरी खूँख्वार।
मौन गौरव-दीप्त मुद्रा उठा बारम्बार,
क्षीणकाय आशक्त मानव को रहा ललकार।
शिलाखण्डों की चुनौती अनवरत हुंकार,
लोमहर्षक मर्म-विस्फोटक प्रखर चीत्कार।
हर कदम पर प्रकृति का परिवेश दिव्याकार,
हर कदम पर नयन-मोहन सृष्टि का शृंगार।
खड़ा गर्वोन्नत लिए शिर एवरेस्ट विशाल,
हिमाच्छादित गगनचुम्बी चोटियाँ विकराल।

बढ़ चले इर्विन मलेरी विजन घाटी लाँघ,
डगमगाते अडिग मग मंे दुर्ग दुर्गम लाँघ।
जोङ् तिङ््-विय-जोङ् शी-गर् जोङ् कालिम्पोङ्
भोङ् छू को पार करते और खम्-पा जोङ्।
छोड़ पीछे झील उपवन झाड़ियाँ सुनसान,
वेल कुवलय लता-पल्लव धवल दुग्ध-समान।
झाँड़ शुकपा के सलोने विविधरंगी फूल,
उठे ऊपर झुके नीचे हरितपर्ण दुकूल।
चीड़ का वह प्रमद कानन देवदारु ललाम,
सरों के सुकुमार पत्ते, भोज-द्रुम अभिराम।
उड़े बाजों की चमत्कृत दृष्टि से अविराम।
चढ़े असि की धार पर तज फर्श के आराम।
चमकती चपला कड़कती उगलती अंगार,
गगन-वन मंे जहाँ करती स्वर-धनुष टंकार।
कहीं खाकी चीथड़ों की खिंची घन में रेख,
जलद अथवा बनी कादम्बिनी काली देख।
कहीं सुन्दर और परतीले उनीले मेघ,
कहीं नन्हे हिमकणों से बने कुन्तल मेघ।
कम घने की अति घने भी लाल-पीले मेघ,
शीघ्र ही संयुक्त होते विलग होते मेघ।
कभी बर्फीले शिखर से उफन उठती भाप,
वायुमण्डल पर चढ़ाती सघनता के चाप।

कभी जल-सीकर हिमानी वेग से एकत्र,
गगन में घिर फैल जाते दौड़कर सर्वत्र।
घिरे रहते टपक पड़ते घुमड़ मूसलधार,
परों में या धारियों में शुभ्र विपुलाकार।
कभी कुंजर कंुज मन्थर पवन से सम्पृक्त,
स्वर्ण-मृग-से चौकड़ी भरते उछलते दृप्त।

ठोस नीचे और ऊपर कुण्डलित घन गोल,
शून्यता का नील अंचल फरफराता डोल।
कपिल पिंगल केश खोले शिखर शुण्डाकर,
कर रहे दुर्गम्यता का शून्य में प्रस्तार।
रोकते गतिवान होने से अडिग पाषाण,
दरकती पगडण्डियों में कड़कते अरमान।
हो रहा दूभर बढ़ाना एक डग भी और,
नहीं संभव अधिक चढ़ना शृंगार-ऊपर और।
सूखते मन-प्राण खण्डित फूल-से मुख म्लान,
हृदय के कटिबन्ध ढीले छिन्न साज-कमान।
साँस लेना भी असम्भव घुलटते-से प्राण,
चौंधियाते नेत्र मुख से रक्त का सन्धान।
नसों के तूणीर से चिनगारियों के तीर,
झनझनाकर छूटते, बजती हवा में भीड़।

बेध सर्पिल सौर-मण्डल दीर्घ वर्त्ताकार,
धूमकेतू निहारिकाएँ निखिल वलयाकार।
कुण्डली मारे गगन में दिग्दिगन्त समेट,
बाहुओं में अर्कमण्डल अन्तरक्षि लपेट।
तोड़ बाधा-बाँध दुर्गम लौह दुर्ग कठोर,
बढ़े चले ओ महामानव, लक्ष्य पथ की ओर।
ध्येय के निर्माण में हो सफल जीवन-होम,
बनें ढोकें और टेकड़ियाँ पिघलकर मोम।
सिन्धु से भी अधिक गर्वीला तुम्हारा गान,
सूर्य के ऊपर चमकता तुंग तेरा यान।
निखिल व्योम ललाट तेरा और पद पाताल।
सघन कज्जल केश कानन वज्रभुज दिग्पाल।

हास विद्युत्óास मारुत शैल देह अखण्ड,
नयन दिनमणि रक्त अम्बुधि दाढ़ मृत्यु प्रचंड।
श्रेष्ठ तुझसे नहीं कुछ भी मनुज जग में अन्य,
तुम्हीं वामन से बने हो। विश्व-पुरुष वरेण्य।
तू अमग्य अचिन्त्य मानव युगपर्य्यन्त अनन्त,
प्राणकेन्द्र खगेन्द्र से भी वेगमय बलवन्त।
ज्ञान-गंगा के भगीरथ अयन-ऋतु के लीक,
शालस्कन्ध-समान उन्नत मुक्तिदण्ड प्रतीक।
यज्ञ-अंगों से तुम्हारे यज्ञ वरुण सुरेश,
सृजित होते किम्पुरुष गन्धर्व किन्नर शेष।
मेदिनी का पुत्र मंगल दिव्यज्योति अनूप,
ओ अमर मानव, तुम्हारा ही विराट स्वरूप।
पार उतरे सर्ग कितने प्रलय कितने काल,
प्राण के रथ पर तुम्हारे पक्ष कितने साल?

मलय सिंहल चोलमण्डल सिन्धु के उस पार,
मनुज, तेरी सभ्यता का उन्नयन विस्तार।
सूर्य का रथ रोकनेवाला विराट ललाट,
विन्ध्यगिरि की मेखला का भीमकाय कपाट।
शक्ति-क्षमता से तुिम्हारी संकुचित कर अंग,
नम्रता से ण्ुक गया था गर्व शृृंग अभंग।
शीर्ण रम्भा-पत्र से कर शिशिर-ऋतु-से दीर्ण,
भीरुता की क्लैव्य-कीलित भावना को जीर्ण।
भंग कर पग-ठोकरों से काल का व्यवधान,
चढ़े चल तू ओ पहाड़ी शाह बाज महान!
गिरि-शिख र पर अंशुमाली का मुकुट छविमान,
दहकता आदर्श का वह क्षितिज गरिमावान।
गड़गड़ाता बढ़ रहा ढक्कन धरा का तोडद्व
पवनपंखी ग्लेशियर वह पर्वतों को फोड़।
गति-विरोधी कण्टकों, लघु कंकड़ों को लील,
वज्रदन्ती तीक्ष्णता से पंथ बन्धुर छील।
चल रहे शनि शुक्रवृश्चिक वृहत् उल्कापिण्ड,
सुरँग पुच्छल लुब्ध लुब्धक गोल पृथिवीपिण्ड।
चल रहे पल पहर घण्टा घड़ी निशि दिन मास,

वर्ष युग के यान चलते राशिचक्र प्रकाश।
लुढ़क चलते उपल-शिवशंकर भँवर से दूर,
रगड़-घर्षण से परस्पर दलित होकर चूर।
गहन पैनी धारवाले पत्थरों के तीर,
चोट पहुँचाते कगारों को खुरचते चीर।
सिन्धु, लहरों से निरन्तर कठिन तट के कूल,
काटता विस्तीर्ण करता अचल जीवन-मूल।
किन्तु, मानव ठहर जाए उच्च गौरव-स्तूप,
खोल केंचुल का चढ़ाए बना अजगर-रूप?

बढ़ चले इर्विन मलेरी बर्फ का घन छेद
मन्त्र प्रेरित ब्रह्म-शर-से दुर्ग दुर्गम भेद।
कर रहा इंगित जिधर कर्तव्य का ध्रुव छोर,
थाम सीने में कलेजे को बढ़े उस ओर।
विस्फुल्लिंगित साध का लेकर महागाण्डीव,
भेदने निकले हिमालय लक्ष्य का उदग्रीव।
चल पड़े पर से उड़ाने मसक अण्डकटाह,
या कि जैसे चले रवि की गृद्ध लेने थाह।
झुलस अनथक पंख होंगे क्षार,
खाक में मिलकर रहेंगे जीत हो या हार?
साधना के ज्वाल में विकराल,
कनक से कुन्दन बनेंगे लाल।
चले पड़े वंशी बजाते काँध,
नाथने गिरि-वासुकी को बाँध।

खिलखिला उठता हिमालय शिव-पिनाक-समान,
घुमकता घन छेद उसका गर्व-गंजन गान।
हर कद़म पर चीरता हिम-दन्त अंग-प्रत्यंग,
हर क़दम पर गूँजता प्रतिरोध का सारंग।
रुक्षता का शिलीभूत कगार,
हर क़दम पर राशि-राशि तुषार।
थहरता उर-तन्तुओं का तार,
हर क़दम पर विघ्न-क्लेश अपार।
परुषता का वक्र-भृकुटि-कुठार,
लौह पंजों में लिए संहार।
कुटिल दाढ़ों में चपेट दरार,
लपकता प्रतिक्षण निगलने को निखिल संसार।

गरुड़ की-सी भूख लेकर सिन्धु का गति ज्वार,
प्यास उदित अगस्त्य की ले दीर्घ अमित अपार।
बने नचिकेता मनुज-दल चले यम के द्वार,
ज्ञान की विस्तीर्णता का देखने संसार।
चल पड़े इर्विन मलेरी बर्फ का घन छेद,
मन्त्र-प्रेरित ब्रह्म-शर-से दुर्ग दुर्गम भेद।
चल पड़े वंशी बजाते काँध,
नाथने गिरि-वासुकी को बाँध।

साध कैसी? घन-सुमन को सूँघने की साध?
लघु पतंगों की शिखा से जूझने की साध?
साध? बनकर तेल जो बलि-दीप के जल जाय?
मेघ-वन में भी गुलाबी-फूल-सी खिल जाय?
स्वप्न कैसा? जो न फोड़े मुष्टि से कैलाश?
स्वप्न कैसा? जो न भुज में बाँध ले आकाश?
ललक? जो ले मोमबाती से पिछलती पीर?
स्वयं जलकर विश्व को दे ज्योति तम को चीर?
लगन? जिसमें धधकते हांे जेठ के गुबार?
लगन? जिसमें डहकते हों प्राण के अंगार?
सनकता छूटे सनन गाण्डीव के उच्छ्वास,
लगन? जिसमें बहे लंका के पवन उन्चास।

काल कालिय नाग की कर शीर्ण विष-जंज़ीर,
सो गए जो धूम विष का श्याम,
उन अमर बलिपंथियों को कोटि-कोटि प्रणाम।
जो न अन्तिम क्षणों में भी हुए विचलित नेक,
सफलता हो या विफलता पर न छोड़ी टेक।
सिर झुका, ले सुठि सुमन के हार,
वन्दना उन पुरुष-सिंहों की करे संसार।

ध्वस्त उनके अस्थि-कण को स्नेह से संतृप्त,
अमृत-बूँदों में बरसकर मेघ कर दे सिक्त।
क्षिप्रपंखी हवा, तू बलि के अमर वे बोल,
सनसनाती रह सुनाती युग-युगों तक डोल।
समय के इतिहास पर भी कालिमा छा जाए,
पर मधुर बलिदान की यह अमिट लिपि रह जाए!

(रचना-काल: फरवरी, 1946। ‘विशाल भारत’, अप्रैल, 1946 में प्रकाशित।)