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"और आगे और दूर / रामइकबाल सिंह 'राकेश'" के अवतरणों में अंतर
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18:28, 18 मई 2018 के समय का अवतरण
खोया-सा रहता अपने ही में,
चिन्तित और चिन्ता क्या,
यह भी नहीं जानता,
सहसा न जाने कब किसी दूर दिशा से,
गगन को अवगुंठन अर्पित कर।
भेद को निगल कर,
रात उतर आती है,
ऐसा क्यों होता है?
बोध को लगता आघात है,
लौट आती वाणी,
कुछ कहने की इच्छा से,
अपने निवासरूप वृक्ष पर।
जानी नहीं जा सकती बात यह,
कहीं नहीं जा सकती बात यह,
ज्ञात और ज्ञेय के दोनों ओर,
बिम्ब से परे प्रतिबिम्ब से।
अन्त क्या बहुधा विस्तार का?
और आगे और दूर,
गान के बाद गान।