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"एक चित्र यह / रामइकबाल सिंह 'राकेश'" के अवतरणों में अंतर

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गगनदेश के ख्ुाले किबारे,
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चेतना के केन्द्र पर,
घन सावन के आए।
+
बन्द द्वार खोल कर रहस्य का!
आसावरी-ध्रुपद में गाते,
+
अतल अतीत की दरार से,
मोर नाचते आए।
+
खिल उठा प्राण-कण मिट्टी का!
जान न पाया कब-क्यों, कैसे,
+
बीज विष्णुत्व का,
सिन्धु छोड़कर आए।
+
अंकुरित अर्थों से वर्णों और रूपों में,
बिना कहे ही मुझसे मिलने,
+
पग-पग पर सहज सरल,
हृदय लगाने आए।
+
विद्युत्संचार से,
अपने अंगों में न समाकर,
+
नूतन व्यक्तित्व का सृजन कर!
मेरे कारण आए।
+
द्यावा और पृथिवी के मण्डल को-
उठा बगूले धूमकेतु के,
+
रक्तिम आलोक से प्रज्वल कर।
घटाटोप घन आए।
+
मिथ्या मोह-पाश के बन्धनों को छिन्न कर,
बिजली के पायल चमकाते,
+
क्षुद्र अवगुंठन को भंग कर,
कड़कनाद कर आए।
+
शिलीभूत पंजरों को तोड़ कर
रंग-बिरंगे परिधानों में,
+
युग-युग के पड़ावों लाँघ कर,
मन हुलसाने आए।
+
नीचे से ऊपर तक आदि से अन्त तक,
झहराते काजल के पर्वत,
+
बदल कर रोमकोशों, कोश भित्तिकाओं को
कामरूप घन आए।
+
अणिमा से भूमा बन-
कभी सलिल बन, कभी मरुत बन,
+
परम की प्यास में अनन्त तक!
कभी तड़ित बन आए।
+
अनुभव की भूमिका में,
आँखों से मोती ढरकाते।
+
खिल उठा प्राण-कण मिट्टी का।
वायुयान पर आए।
+
मालकौस-चौताल सुनाने,
+
मेघ बावरे आए।
+
 
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18:54, 18 मई 2018 के समय का अवतरण

चेतना के केन्द्र पर,
बन्द द्वार खोल कर रहस्य का!
अतल अतीत की दरार से,
खिल उठा प्राण-कण मिट्टी का!
बीज विष्णुत्व का,
अंकुरित अर्थों से वर्णों और रूपों में,
पग-पग पर सहज सरल,
विद्युत्संचार से,
नूतन व्यक्तित्व का सृजन कर!
द्यावा और पृथिवी के मण्डल को-
रक्तिम आलोक से प्रज्वल कर।
मिथ्या मोह-पाश के बन्धनों को छिन्न कर,
क्षुद्र अवगुंठन को भंग कर,
शिलीभूत पंजरों को तोड़ कर
युग-युग के पड़ावों लाँघ कर,
नीचे से ऊपर तक आदि से अन्त तक,
बदल कर रोमकोशों, कोश भित्तिकाओं को
अणिमा से भूमा बन-
परम की प्यास में अनन्त तक!
अनुभव की भूमिका में,
खिल उठा प्राण-कण मिट्टी का।