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चोट पर चोट देकर रुलाया गया
जब न रोए तो पत्थर बताया गया ।
हिचकियाँ कह रही हैं कि तुमसे हमेंअब तलक भी न साथी ! भुलाया गया । ज़िंदगी लम्हा-ए-तर को तरसी मगर वक़्ते रुखसत पे दरिया बहाया गया । ऐसे छोड़ा कि ताज़िंदगी चाहकर फिर न आवाज़ देकर बुलाया गया आदतें इस क़दर पक गईं देखिए आँख रोने लगीं जब हँसाया गया । यूँ निखर आई मैं ओ मेरे संगज़रमुझको इतनी दफ़ा आज़माया गया । </poem>