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"मगर निठुर न तुम रुके / गोपालदास "नीरज"" के अवतरणों में अंतर

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मगर निठुर न तुम रुके, मगर निठुर न तुम रुके!
  
मगर निठुर न तुम रुके, मगर निठुर न तुम रुके!<br>
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पुकारता रहा हृदय, पुकारते रहे नयन,
पुकारता रहा हृदय, पुकारते रहे नयन,<br>
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पुकारती रही सुहाग दीप की किरन-किरन,
पुकारती रही सुहाग दीप की किरन-किरन,<br>
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निशा-दिशा, मिलन-विरह विदग्ध टेरते रहे,
निशा-दिशा, मिलन-विरह विदग्ध टेरते रहे,<br>
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कराहती रही सलज्ज सेज की शिकन शिकन,
कराहती रही सलज्ज सेज की शिकन शिकन,<br>
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असंख्य श्वास बन समीर पथ बुहारते रहे,
असंख्य श्वास बन समीर पथ बुहारते रहे,<br>
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मगर निठुर न तुम रुके!  
मगर निठुर न तुम रुके! <br>
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गुंथे सुवेश केश में अशेष स्वप्न फूल से,<br>
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गुंथे सुवेश केश में अशेष स्वप्न फूल से,
अनाम कामना शरीर छांह बन चली गई,<br>
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अनाम कामना शरीर छांह बन चली गई,
गया हृदय सदय बंधा बिंधा चपल दुकूल से,<br>
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गया हृदय सदय बंधा बिंधा चपल दुकूल से,
बिलख-बिलख जला शलभ समान रूप अधजला,<br>
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बिलख-बिलख जला शलभ समान रूप अधजला,
मगर निठुर न तुम रुके! <br>
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मगर निठुर न तुम रुके!  
विफल हुई समस्त साधना अनादि अर्चना,<br>
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असत्य सृष्टि की कथा, असत्य स्वप्न कल्पना,<br>
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विफल हुई समस्त साधना अनादि अर्चना,
मिलन बना विरह, अकाल मृत्यु चेतना बनी,<br>
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असत्य सृष्टि की कथा, असत्य स्वप्न कल्पना,
अमृत हुआ गरल, भिखारिणी अलभ्य भावना,<br>
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मिलन बना विरह, अकाल मृत्यु चेतना बनी,
सुहाग-शीश-फूल टूट धूल में गिरा मुरझ-<br>
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अमृत हुआ गरल, भिखारिणी अलभ्य भावना,
मगर निठुर न तुम रुके!<br>
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सुहाग-शीश-फूल टूट धूल में गिरा मुरझ-
न तुम रुके, रुके न स्वप्न रूप-रात्रि-गेह में,<br>
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न गीत-दीप जल सके अजस्र-अश्रु-मेंह में,<br>
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धुआँ धुआँ हुआ गगन, धरा बनी ज्वलित चिता,<br>
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मरण-विलास-रास-प्राण-कूल पर रचा उठा,<br>
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मगर निठुर न तुम रुके! <br>
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आकाश में चांद अब, न नींद रात में रही,<br>
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न साँझ में शरम, प्रभा न अब प्रभात में रही,<br>
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न फूल में सुगन्ध, पात में न स्वप्न नीड़ के,<br>
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संदेश की न बात वह वसंत-वात में रही,<br>
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हठी असह्य सौत यामिनी बनी तनी रही-<br>
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न गीत-दीप जल सके अजस्र-अश्रु-मेंह में,
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धुआँ धुआँ हुआ गगन, धरा बनी ज्वलित चिता,
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अंगार सा जला प्रणय अनंग-अंक-देह में,
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मरण-विलास-रास-प्राण-कूल पर रचा उठा,
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मगर निठुर न तुम रुके!
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आकाश में चांद अब, न नींद रात में रही,
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न साँझ में शरम, प्रभा न अब प्रभात में रही,
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न फूल में सुगन्ध, पात में न स्वप्न नीड़ के,
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संदेश की न बात वह वसंत-वात में रही,
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हठी असह्य सौत यामिनी बनी तनी रही-
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मगर निठुर न तुम रुके!
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20:59, 19 जुलाई 2018 के समय का अवतरण

मगर निठुर न तुम रुके, मगर निठुर न तुम रुके!

पुकारता रहा हृदय, पुकारते रहे नयन,
पुकारती रही सुहाग दीप की किरन-किरन,
निशा-दिशा, मिलन-विरह विदग्ध टेरते रहे,
कराहती रही सलज्ज सेज की शिकन शिकन,
असंख्य श्वास बन समीर पथ बुहारते रहे,
मगर निठुर न तुम रुके!

पकड़ चरण लिपट गए अनेक अश्रु धूल से,
गुंथे सुवेश केश में अशेष स्वप्न फूल से,
अनाम कामना शरीर छांह बन चली गई,
गया हृदय सदय बंधा बिंधा चपल दुकूल से,
बिलख-बिलख जला शलभ समान रूप अधजला,
मगर निठुर न तुम रुके!

विफल हुई समस्त साधना अनादि अर्चना,
असत्य सृष्टि की कथा, असत्य स्वप्न कल्पना,
मिलन बना विरह, अकाल मृत्यु चेतना बनी,
अमृत हुआ गरल, भिखारिणी अलभ्य भावना,
सुहाग-शीश-फूल टूट धूल में गिरा मुरझ-
मगर निठुर न तुम रुके!

न तुम रुके, रुके न स्वप्न रूप-रात्रि-गेह में,
न गीत-दीप जल सके अजस्र-अश्रु-मेंह में,
धुआँ धुआँ हुआ गगन, धरा बनी ज्वलित चिता,
अंगार सा जला प्रणय अनंग-अंक-देह में,
मरण-विलास-रास-प्राण-कूल पर रचा उठा,
मगर निठुर न तुम रुके!

आकाश में चांद अब, न नींद रात में रही,
न साँझ में शरम, प्रभा न अब प्रभात में रही,
न फूल में सुगन्ध, पात में न स्वप्न नीड़ के,
संदेश की न बात वह वसंत-वात में रही,
हठी असह्य सौत यामिनी बनी तनी रही-
मगर निठुर न तुम रुके!